Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 99
________________ १९० अध्यात्मनवनीत परमातमा के ध्यान से हो नाश लोभ कषाय का । नवकर्म का आस्रव रुके यह कथन जिनवरदेव का ।।४८ ।। जो योगि सम्यक्दर्शपूर्वक चारित्र दृढ़ धारण करे । निज आतमा का ध्यानधर वह मुक्ति की प्राप्ति करे ।।४९।। चारित्र ही निजधर्म है अर धर्म आत्मस्वभाव है। अनन्य निज परिणाम वह ही राग-द्वेष विहीन है ।।५०।। फटिकमणिसम जीव शुध पर अन्य के संयोग से । वह अन्य-अन्य प्रतीत हो पर मूलत: तो अनन्य ही ।।५१।। देव-गुरु का भक्त अर अनुरक्त साधक वर्ग में । सम्यक्सहित निज ध्यानरत ही योगि हो इस जगत में ।।५२।। उग्र तप तप अज्ञ भव-भव में न जितने क्षय करें । विज्ञ अन्तर्मुहूरत में कर्म उतने क्षय करें ।।५३।। परद्रव्य में जो साधु करते राग शुभ के योग से । वे अज्ञ हैं पर विज्ञ राग नहीं करें परद्रव्य में ।।५४।। निज भाव से विपरीत अर जो आस्रवों के हेतु हैं । जो उन्हें मानें मुक्तिमग वे साधु सचमुच अज्ञ हैं ।।५।। अरे जो कर्मजमति वे करें आत्मस्वभाव को । खण्डित अत: वे अज्ञजन जिनधर्म के दूषक कहे ।।५६।। चारित रहित है ज्ञान-दर्शन हीन तप संयुक्त है । क्रिया भाव विहीन तो मुनिवेष से क्या साध्य है ।।५७।। जो आतमा को अचेतन हैं मानते अज्ञानि वे । पर ज्ञानिजन तो आतमा को एक चेतन मानते ।।५८ ।। निरर्थक तप ज्ञान विरहित तप रहित जो ज्ञान है । यदि ज्ञान तप हों साथ तो निर्वाणपद की प्राप्ति हो ।।५९।। क्योंकि चारों ज्ञान से भी महामण्डित तीर्थकर । भी तप करें बस इसलिए तप करो सम्यग्ज्ञान युत ।।६०।। अष्टपाहुड़: मोक्षपाहुड़ पद्यानुवाद स्वानुभव से भ्रष्ट एवं शून्य अन्तरलिंग से । बहिर्लिंग जो धारण करें वे मोक्षमग नाशक कहे ।।६१।। अनुकूलता में जो सहज प्रतिकूलता में नष्ट हों । इसलिये प्रतिकूलता में करो आतम साधना ।।६।। आहार निद्रा और आसन जीत ध्याओ आतमा । बस यही है जिनदेव का मत यही गुरु की आज्ञा ।।६३।। ज्ञान दर्शन चरित मय जो आतमा जिनवर कहा । गुरु की कृपा से जानकर नित ध्यान उसका ही करो ।।६४।। आतमा का जानना भाना व करना अनुभवन । तथा विषयों से विरक्ति उत्तरोत्तर है कठिन ।।५।। जबतक विषय में प्रवृत्ति तबतक न आतमज्ञान हो । इसलिए आतम जानते योगी विषय विरक्त हो ।।६६।। निज आतमा को जानकर भी मूढ़ रमते विषय में । हो स्वानुभव से भ्रष्ट भ्रमते चतुर्गति संसार में ।।६७।। अरे विषय विरक्त हो निज आतमा को जानकर । जो तपोगुण से युक्त हों वे चतुर्गति से मुक्त हों ।।६८।। यदि मोह से पर द्रव्य में रति रहे अणु परिमाण में । विपरीतता के हेतु से वे मूढ़ अज्ञानी रहें ।।६९।। शुद्ध दर्शन दृढ़ चरित एवं विषय विरक्त नर । निर्वाण को पाते सहज निज आतमा का ध्यान धर ।।७।। पर द्रव्य में जो राग वह संसार कारण जानना । इसलिये योगी करें नित निज आतमा की भावना ।।७१।। निन्दा-प्रशंसा दुक्ख-सुख अर शत्रु-बंधु-मित्र में । अनुकूल अर प्रतिकूल में समभाव ही चारित्र है ।।७२।। जिनके नहीं व्रत-समिति चर्या भ्रष्ट हैं शुधभाव से । वे कहें कि इस काल में निज ध्यान-योग नहीं बने ।।७३।।

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