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अध्यात्मनवनीत
प्रथम जानो भाव को तुम भाव बिन द्रवलिंग से । तो लाभ कुछ होता नहीं पथ प्राप्त हो पुरुषार्थ से | ६ || भाव बिन द्रवलिंग अगणित धरे काल अनादि से।
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पर आजतक हे आत्मन् ! सुख रंच भी पाया नहीं ।।७।। भीषण नरक तिर्यंच नर अर देवगति में भ्रमण कर । पाये अनन्ते दुःख अब भावो जिनेश्वर भावना ॥ ८ ॥ इन सात नरकों में सतत चिरकाल तक हे आत्मन् ।
दारुण भयंकर अर असह्य महान दुःख तूने सहे ।। ९ ।। तिर्यंचगति में खनन उत्तापन जलन अर छेदना । रोकना वध और बंधन आदि दुख तूने सहे ।। १० ।। मानसिक देहिक सहज एवं अचानक आ पड़े । ये चतुर्विध दुख मनुजगति में आत्मन् तूने सहे ।। ११ ।। हे महायश सुरलोक में परसंपदा लखकर जला । देवांगना के विरह में विरहाग्नि में जलता रहा ।।१२।। पंचविध कांदर्पि आदि भावना भा अशुभतम । मुनि द्रव्यलिंगी देव हों किल्विषिक आदिक अशुभतम ।। १३ ।। पार्श्वस्थ आदि कुभावनायें भवदुःखों की बीज जो । भाकर उन्हें दुख विविध पाये विविध वार अनादि से ।। १४ । । निज हीनता अर विभूति गुण - ऋद्धि महिमा अन्य की । लख मानसिक संताप हो है यह अवस्था देव की ।। १५ ।। चतुर्विध विकथा कथा आसक्त अर मदमत्त हो । यह आतमा बहुबार हीन कुदेवपन को प्राप्त हो ।। १६ । । फिर अशुचितम वीभत्स जननी गर्भ में चिरकाल तक । दुख सहे तूने आजतक अज्ञानवश हे मुनिप्रवर ।। १७।। अरे तू नरलोक में अगणित जनम धर-धर जिया । हो उदधि जल से भी अधिक जो दूध जननी का पिया ।। १८ ।।
अष्टपाहुड़ भावपाहुड़ पद्यानुवाद
तेरे मरण से दुखित जननी नयन से जो जल बहा । वह उदधिजल से भी अधिक यह वचन जिनवर ने कहा ।। १९ ।। ऐसे अनन्ते भव धरे नरदेह के नख-केश सब । यदि करे कोई इकट्ठे तो ढेर होवे मेरु सम ।। २० ।। परवश हुआ यह रह रहा चिरकाल से आकाश में । थल अनल जल तरु अनिल उपवन गहन वन गिरि गुफा में ।। २१ ।। पुद्गल सभी भक्षण किये उपलब्ध हैं जो लोक में । बहु बार भक्षण किये पर तृप्ति मिली न रंच भी ।। २२ ।। त्रैलोक्य में उपलब्ध जल सब तृषित हो तूने पिया । पर प्यास फिर भी ना बुझी अब आत्मचिंतन में लगो ।। २३ ।। जिस देह में तू रम रहा ऐसी अनन्ती देह तो । मूरख अनेकों बार तूने प्राप्त करके छोड़ दीं ।। २४ ।। शस्त्र श्वासनिरोध एवं रक्तक्षय संक्लेश से । अर जहर से भय वेदना से आयुक्षय हो मरण हो ।। २५ ।। अनिल जल से शीत से पर्वतपतन से वृक्ष से । परधनहरण परगमन से कुमरण अनेक प्रकार हो ।। २६ ।। हे मित्र ! इस विधि नरगति में और गति तिर्यंच में । बहुविध अनंते दुःख भोगे भयंकर अपमृत्यु के ।। २७ ।। इस जीव ने नीगोद में अन्तरमुहूरत काल में । छयासठ सहस अर तीन सौ छत्तीस भव धारण किये ।। २८ ।। विकलत्रयों के असी एवं साठ अर चालीस भव । चौबीस भव पंचेन्द्रियों अन्तरमुहूरत छुद्रभव ।। २९ ।। रतन त्रय के बिना होता रहा है यह परिणमन । तुम रतन त्रय धारण करो बस यही है जिनवर कथन ।। ३० ।। निज आतमा को जानना सद्ज्ञान रमना चरण है। निज आतमारत जीव सम्यग्दृष्टि जिनवर कथन है ।। ३१ । ।
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