Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 90
________________ १७२ अध्यात्मनवनीत चैत्य आलय तीर्थ वच स्ववशासक्तस्थान में । जिनभवन में मुनिवर रहें जिनवर कहें जिनमार्ग में ।। ४३ ।। इन्द्रियजयी महाव्रतधनी निरपेक्ष सारे लोक से । निजध्यानरत स्वाध्यायरत मुनिश्रेष्ठ ना इच्छा करें ।। ४४ ।। परिषहजयी जितकषायी निर्ग्रन्थ है निर्मोह है। है मुक्त पापारंभ से ऐसी प्रव्रज्या जिन कही । । ४५ ।। धन-धान्य पट अर रजत- सोना आसनादिक वस्तु के । भूमि चंवर - छत्रादि दानों से रहित हो प्रव्रज्या ।। ४६ ।। जिनवर कही है प्रव्रज्या समभाव लाभालाभ में। अर कांच - कंचन मित्र - अरि निन्दा - प्रशंसा भाव में ।। ४७ ।। प्रव्रज्या जिनवर कही सम्पन्न हों असंपन्न हों। उत्तम मध्यम घरों में आहार लें समभाव से ।।४८ ।। निर्ग्रन्थ है निःसंग है निर्मान है नीराग है । निर्दोष है निरआश है जिन प्रव्रज्या ऐसी कही ।। ४९ ।। निर्लोभ है निर्मोह है निष्कलुष है निर्विकार है । निस्नेह निर्मल निराशा जिन प्रव्रज्या ऐसी कही ।। ५० ।। शान्त है है निरायुध नग्नत्व अवलम्बित भुजा । आवास परकृत निलय में जिन प्रव्रज्या ऐसी कही ।। ५१ ।। उपशम क्षमा दम युक्त है शृंगारवर्जित रूक्ष है । मदरागरुस से रहित है जिनप्रव्रज्या ऐसी कही ।। ५२ ।। मूढ़ता विपरीतता मिथ्यापने से रहित है । सम्यक्त्व गुण से शुद्ध है जिन प्रवज्या ऐसी कही ।। ५३ ।। जिनमार्ग में यह प्रव्रज्या निर्ग्रन्थता से युक्त है । भव्य भावे भावना यह कर्मक्षय कारण कही ।। ५४ ।। जिसमें परिग्रह नहीं अन्तर्बाह्य तिलतुषमात्र भी । सर्वज्ञ के जिनमार्ग में जिनप्रव्रज्या ऐसी कही ।। ५५ ।। १७३ अष्टपाहुड़ : भावपाहुड़ पद्यानुवाद परिषह सहें उपसर्ग जीतें रहें निर्जन देश में । शिला पर या भूमितल पर रहें वे सर्वत्र ही ।। ५६ ।। पशु - नपुंसक - महिला तथा कुस्शीलजन की संगति । ना करें विकथा ना करें रत रहें अध्ययन-ध्यान में ।। ५७ ।। सम्यक्त्व संयम तथा व्रत -तप गुणों से सुविशुद्ध हो । शुद्ध हो सद्गुणों से जिन प्रव्रज्या ऐसी कही ।। ५८ ।। आयतन से प्रव्रज्या तक यह कथन संक्षेप में। सुविशुद्ध समकित सहित दीक्षा यों कही जिनमार्ग में ।। ५९ ।। षट्काय हितकर जिसतरह ये कहे हैं जिनदेव ने । बस उसतरह ही कहे हमने भव्यजन संबोधने ।। ६० ।। जिनवरकथित शब्दत्वपरिणत समागत जो अर्थ है । बस उसे ही प्रस्तुत किया भद्रबाहु के इस शिष्य ने । ६१ । । अंग बारह पूर्व चउदश के विपुल विस्तार विद । श्री भद्रबाहु गमकगुरु जयवंत हो इस जगत में ।। ६२ ।। भावपाहुड़ सुर-असुर - इन्द्र-नरेन्द्र वंदित सिद्ध जिनवरदेव अर । सब संयतों को नमन कर इस भावपाहुड़ को कहूँ ॥ १ ॥ बस भाव ही गुण-दोष के कारण कहे जिनदेव ने । भावलिंग ही परधान हैं द्रव्यलिंग न परमार्थ है ||२|| अर भावशुद्धि के लिए बस परीग्रह का त्याग हो । रागादि अन्तर में रहें तो विफल समझो त्याग सब ॥ ३ ॥ वस्त्रादि सब परित्याग कोड़ाकोड़ि वर्षों तप करें। पर भाव बिन ना सिद्धि हो सत्यार्थ यह जिनवर कहें ॥४ ॥ परिणामशुद्धि के बिना यदि परीग्रह सब छोड़ दें। तब भी अरे निज आत्महित का लाभ कुछ होगा नहीं ॥ ५ ॥

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