Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 86
________________ अध्यात्मनवनीत १६५ अष्टपाहुड़: चारित्रपाहुड़ पद्यानुवाद चित्तशुद्धी नहीं एवं शिथिलभाव स्वभाव से। मासिकधरम से चित्त शंकित रहे वंचित ध्यान से ।।२६।। जलनिधि से पटशुद्धिवत जो अल्पग्राही साधु हैं। हैं सर्व दुख से मुक्त वे इच्छा रहित जो साधु हैं ।।२७।। १६४ अवशेष लिंगी वे गृही जो ज्ञान दर्शन युक्त हैं। शुभ वस्त्र से संयुक्त इच्छाकार के वे योग्य हैं।।१३।। मर्मज्ञ इच्छाकार के अर शास्त्र सम्मत आचरण । सम्यक् सहित दुष्कर्म त्यागी सुख लहें परलोक में ।।१४।। जो चाहता नहिं आतमा वह आचरण कुछ भी करे। पर सिद्धि को पाता नहीं संसार में भ्रमता रहे ।।१५।। बस इसलिए मन वचन तन से आत्म की आराधना। तुम करो जानो यत्न से मिल जाय शिवसुख साधना ।।१६।। बालाग्र के भी बराबर ना परीग्रह हो साधु के। अर अन्य द्वारा दत्त पाणीपात्र में भोजन करें।।१७।। जन्मते शिशुवत् अकिंचन नहीं तिल-तुष हाथ में। किंचित् परीग्रह साथ हो तो श्रमण जाँयें निगोद में ।।१८।। थोड़ा-बहुत भी परिग्रह हो जिस श्रमण के पास में। वह निन्द्य है निर्ग्रन्थ होते जिनश्रमण आचार में ।।१९।। महाव्रत हों पाँच गुप्ती तीन से संयुक्त हों। निरग्रन्थ मुक्ती पथिक वे ही वंदना के योग्य हैं।।२०।। जिनमार्ग में उत्कृष्ट श्रावक लिंग होता दूसरा । भिक्षा ग्रहण कर पात्र में जो मौन से भोजन करे ।।२१।। अर नारियों का लिंग तीजा एक पट धारण करें। वह नग्न ना हो दिवस में इकबार ही भोजन करें।।२२।। सिद्ध ना हो वस्त्रधर वह तीर्थकर भी क्यों न हो। बस नग्नता ही मार्ग है अर शेष सब उन्मार्ग हैं ।।२३।। नारियों की योनि नाभी काँख अर स्तनों में। जिन कहे हैं बहु जीव सूक्षम इसलिए दीक्षा न हो।।२४।। पर यदी वह सद्दृष्टि हो संयुक्त हो जिनमार्ग में। सद्आ चरण से युक्त तो वह भी नहीं है पापमय ।।२५।। चारित्रपाहुड़ सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी अमोही अरिहंत जिन। त्रैलोक्य से हैं पूज्य जो उनके चरण में कर नमन ।।१।। ज्ञान-दर्शन-चरण सम्यक् शुद्ध करने के लिए। चारित्रपाहुड़ कहूँ मैं शिवसाधना का हेतु जो।।२।। जो जानता वह ज्ञान है जो देखता दर्शन कहा। समयोग दर्शन-ज्ञान का चारित्र जिनवर ने कहा ।।३।। तीन ही ये भाव जिय के अखय और अमेय हैं। इन तीन के सुविकास को चारित्र दो विध जिन कहा ।।४।। है प्रथम सम्यक्त्वाचरण जिन ज्ञानदर्शन शुद्ध है। है दूसरा संयमचरण जिनवर कथित परिशुद्ध है ।।५।। सम्यक्त्व के जो दोष मल शंकादि जिनवर ने कहे। मन-वचन-तन से त्याग कर सम्यक्त्व निर्मल कीजिए।।६।। निशंक और निकांक्ष अर निग्लान दृष्टि-अमूढ़ है। उपगूहन अर थितिकरण वात्सल्य और प्रभावना ।।७।। इन आठ गुण से शुद्ध सम्यक् मूलतः शिवथान है। सद्ज्ञानयुत आचरण यह सम्यक्चरण चारित्र है ।।८।। सम्यक्चरण से शुद्ध अर संयमचरण से शुद्ध हों। वे समकिती सद्ज्ञानिजन निर्वाण पावें शीघ्र ही ।।९।। सम्यक्चरण से भ्रष्ट पर संयमचरण आचरें जो। अज्ञान मोहित मती वे निर्वाण को पाते नहीं ।।१०।।

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