Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 85
________________ अष्टपाहुड़ : सूत्रपाहुड पद्यानुवाद १६२ अध्यात्मनवनीत सहज जिनवर लिंग लख ना नमें मत्सर भाव से। बस प्रगट मिथ्यादृष्टि हैं संयम विरोधी जीव वे ।।२४।। अमर वंदित शील मण्डित रूप को भी देखकर। ना नमें गारब करें जो सम्यक्त्व विरहित जीव वे ।।२५।। असंयमी ना वन्द्य है दृगहीन वस्त्रविहीन भी। दोनों ही एक समान हैं दोनों ही संयत हैं नहीं ।।२६।। ना वंदना हो देह की कुल की नहीं ना जाति की। कोई करे क्यों वंदना गुणहीन श्रावक-साधु की ।।२७।। गुण शील तप सम्यक्त्व मंडित ब्रह्मचारी श्रमण जो। शिवगमन तत्पर उन श्रमण को शुद्धमन से नमन हो ।।२८।। चौसठ चमर चौंतीस अतिशय सहित जो अरहंत हैं। वे कर्मक्षय के हेतु सबके हितैषी भगवन्त हैं ।।२९।। ज्ञान-दर्शन-चरण तप इन चार के संयोग से। हो संयमित जीवन तभी हो मुक्ति जिनशासन विर्षे ।।३०।। ज्ञान ही है सार नर का और समकित सार है। सम्यक्त्व से हो चरण अर चारित्र से निर्वाण है।।३१।। सम्यक्पने परिणमित दर्शन ज्ञान तप अर आचरण । इन चार के संयोग से हो सिद्ध पद सन्देह ना ।।३२।। समकित रतन है पूज्यतम सब ही सुरासुर लोक में। क्योंकि समकित शुद्ध से कल्याण होता जीव का ।।३३।। प्राप्तकर नरदेह उत्तम कुल सहित यह आतमा। सम्यक्त्व लह मुक्ति लहे अर अखय आनन्द परिणमे ।।३४।। हजार अठ लक्षण सहित चौंतीस अतिशय युक्त जिन । विहरें जगत में लोकहित प्रतिमा उसे थावर कहें।।३५।। द्वादश तपों से युक्त क्षयकर कर्म को विधिपूर्वक। तज देह जो व्युत्सर्ग युत, निर्वाण पावें वे श्रमण ।।३६।। सूत्रपाहुड़ अरहंत-भासित ग्रथित-गणधर सूत्र से ही श्रमणजन । परमार्थ का साधन करें अध्ययन करो हे भव्यजन ।।१।। जो भव्य हैं वे सूत्र में उपदिष्ट शिवमग जानकर। जिनपरम्परा से समागत शिवमार्ग में वर्तन करें ।।२।। डोरा सहित सुइ नहीं खोती गिरे चाहे वन-भवन । संसार-सागर पार हों जिनसूत्र के ज्ञायक श्रमण ।।३।। संसार में गत गृहीजन भी सूत्र के ज्ञायक पुरुष । निज आतमा के अनुभवन से भवोदधि से पार हों।।४।। जिनसूत्र में जीवादि बहुविध द्रव्य तत्त्वारथ कहे। हैं हेय पर व अहेय निज जो जानते सद्बुष्टि वे ।।५।। परमार्थ या व्यवहार जो जिनसूत्र में जिनवर कहे। सब जान योगी सुख लहें मलपुंज का क्षेपण करें।।६।। सूत्रार्थ से जो नष्ट हैं वे मूढ़ मिथ्यादृष्टि हैं। तुम खेल में भी नहीं धरना यह सचेलक वृत्तियाँ ।।७।। सूत्र से हों भ्रष्ट जो वे हरीहर सम क्यों न हों। स्वर्गस्थ हों पर कोटि भव अटकत फिरें ना मुक्त हों।।८।। सिंह सम उत्कृष्ट चर्या हो तपी गुरु भार हो। पर हो यदी स्वच्छन्द तो मिथ्यात्व है अर पाप हो।।९।। निश्चेल एवं पाणिपात्री जिनवरेन्द्रों ने कहा। बस एक है यह मोक्षमारग शेष सब उन्मार्ग हैं।।१०।। संयम सहित हों जो श्रमण हों विरत परिग्रहारंभ से। वे वन्द्य हैं सब देव-दानव और मानुष लोक से ।।११।। निजशक्ति से सम्पन्न जो बाइस परीषह को सहें। अर कर्म क्षय वा निर्जरा सम्पन्न मुनिजन वंद्य हैं।।१२।।

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