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समयसार कलश पद्यानुवाद
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यह कर्मकालिमा विलीयमान हो रही ।। जिसके उदय को कोई नहीं रोक सके,
अद्भुत शोर्य से विकासमान हो रही। कमर कसे हुए धीर-वीर गंभीर, ऐसी दिव्यज्योति प्रकाशमान हो रही ।।१७९।।
मोक्ष अधिकार
(हरिगीत) निज आतमा अर बंध को कर पृथक् प्रज्ञाछैनि से। सद्ज्ञानमय निज आत्म को कर सरस परमानन्द से ।। उत्कृष्ट है कृतकृत्य है परिपूर्णता को प्राप्त है। प्रगटित हुई वह ज्ञानज्योति जो स्वयं में व्याप्त
अध्यात्मनवनीत यदि ऐसी है बात तो मुनिजन क्यों नहीं, शुद्धज्ञानघन आतम में निश्चल रहें।।१७३।।
(सोरठा) कहे जिनागम माँहि शुद्धातम से भिन्न जो। रागादिक परिणाम कर्मबंध के हेतु वे।। यहाँ प्रश्न अब एक उन रागादिक भाव का। यह आतम या अन्य कौन हेतु है अब कहैं ।।१७४।। अग्निरूप न होय सूर्यकान्तमणि सूर्य बिन । रागरूप न होय यह आतम परसंग बिन ।।१७५।।
(दोहा) ऐसे वस्तुस्वभाव को जाने विज्ञ सदीव । अपनापन ना राग में अत: अकारक जीव ।।१७६।। ऐसे वस्तुस्वभाव को ना जाने अल्पज्ञ । धरे एकता राग में नहीं अकारक अज्ञ ।।१७७।।
(सवैया इकतीसा) परद्रव्य हैं निमित्त परभाव नैमित्तिक,
नैमित्तिक भावों से कषायवान हो रहा। भावीकर्मबंधन हो इन कषायभावों से,
बंधन में आतमा विलायमान हो रहा ।। इसप्रकार जान परभावों की संतति को,
जड़ से उखाड़ स्फुरायमान हो रहा। आनन्दकन्द निज-आतम के वेदन में,
निजभगवान शोभायमान हो रहा ।।१७८।। बंध के जो मूल उन रागादिकभावों को,
जड़ से उखाड़ने उदीयमान हो रही। जिसके उदय से चिन्मयलोक की,
सूक्ष्म अन्त:संधि में अति तीक्ष्ण प्रज्ञाछैनि का
। अति निपुणतासेडालकर अति निपुणजन ने बन्धको।। अति भिन्न करके आतमा से आतमा में जम गये। वे ही विवेकी धन्य हैं जोभवजलधि से तर गये।।१८१।। स्वलक्षणों के प्रबलबल से भेदकर परभाव को। चिदलक्षणों से ग्रहण कर चैतन्यमय निजभाव को ।। यदि भेद को भी प्राप्त हो गुण धर्म कारक आदि से। तो भले हो पर मैं तो केवल शुद्ध चिन्मयमात्र हूँ॥१८२ ।। है यद्यपि अद्वैत ही यह चेतना इस जगत में। किन्तु फिर भी ज्ञानदर्शन भेद से दो रूप है।। यह चेतना दर्शन सदा सामान्य अवलोकन करे। पर ज्ञान जाने सब विशेषों को तदपि निज में रहे ।।