Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 66
________________ १२४ अध्यात्मनवनीत आनन्दमय सद्ज्ञानमय परमार्थ नहीं पहिचानते । । २४२ ।। यद्यपी परद्रव्य है द्रवलिंग फिर भी अजज्ञन । बस उसी में ममता धरें द्रवलिंग मोहित अन्धजन ।। देखें नहीं जाने नहीं सुखमय समय के सार को । बस इसलिए ही अज्ञजन पाते नहीं भवपार को ।। २४३ ।। क्या लाभ है ऐसे अनल्प विकल्पों के जाल से । बस एक ही है बात यह परमार्थ का अनुभव करो ।। क्योंकि निजरसभरित परमानन्द के आधार से । कुछ भी नहीं है अधिक सुनलोइस समय के सार से ।। २४४ ।। ( दोहा ) ज्ञानानन्दस्वभाव को करता हुआ प्रत्यक्ष । अरे पूर्ण अब हो रहा यह अक्षय जगचक्षु || २४५ ।। इसप्रकार यह आतमा अचल अबाधित एक । ज्ञानमात्र निश्चित हुआ जो अखण्ड संवेद्य । । २४६ ।। परिशिष्ट ( कुण्डलिया ) यद्यपि सब कुछ आ गया कुछ भी रहा न शेष । फिर भी इस परिशिष्ट में सहज प्रमेय विशेष ।। प्रमेय विशेष सहज भ ज्ञानमात्र व म आतम स्याद्वाद समझाते परमव्यवस्था वस्तुतत्त्व की प्रस्तुत परमज्ञानमय परमातम का चिन्तन करते ।। २४७ ।। T य उपायोपेय I से ।। करके । ( हरिगीत ) बाह्यार्थ ने ही पी लिया निजव्यक्तता से रिक्त जो । समयसार कलश पद्यानुवाद १२५ वह ज्ञान तो सम्पूर्णत: पररूप में विश्रान्त है । पर से विमुख हो स्वोन्मुख सद्ज्ञानियों का ज्ञान तो । 'स्वरूप से ही ज्ञान है' - इस मान्यता से पुष्ट है ।। २४८ ।। इस ज्ञान में जो झलकता वह विश्व ही बस ज्ञान है । अबुध ऐसा मानकर स्वच्छन्द हो वर्तन करें ।। अर विश्व को जो जानकर भी विश्वमय होते नहीं । वे स्याद्वादी जगत में निजतत्त्व का अनुभव करें ।। २४९ ।। छिन-भिन्न हो चहुँ ओर से बाह्यार्थ के परिग्रहण से । खण्ड-खण्ड होकर नष्ट होता स्वयं अज्ञानी पशु ।। एकत्व के परिज्ञान से भ्रमभेद जो परित्याग दें । वे स्याद्वादी जगत में एकत्व का अनुभव करें ।। २५० ।। जो मैल ज्ञेयाकार का धो डालने के भाव से । स्वीकृत करें एकत्व को एकान्त से वे नष्ट हों ।। अनेकत्व को जो जानकर भी एकता छोड़े नहीं । वे स्याद्वादी स्वतः क्षालित तत्त्व का अनुभव करें ।। २५१ ।। इन्द्रियों से जो दिखे ऐसे तनादि पदार्थ में । एकत्व कर हों नष्ट जन निजद्रव्य को देखें नहीं । । निजद्रव्य को जो देखकर निजद्रव्य में ही रत रहें । वे स्याद्वादी ज्ञान से परिपूर्ण हो जीवित रहें ।। २५२ ।। सब द्रव्यमय निज आतमा यह जगत की द व T स न T I ७ बस रत रहे परद्रव्य में स्वद्रव्य के भ्रमबोध से ।। परद्रव्य के नास्तित्व को स्वीकार सब द्रव्य में । निजज्ञान बल से स्याद्वादी रत रहें निजद्रव्य में ।। २५३ ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112