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अध्यात्मनवनीत अरे दर्शन शुद्ध हो अर सूत्र अध्ययन भी करें। घोर चारित्र आचरे पर ना नारियों के निर्जरा ।।२७।। इसलिए उनके लिंग को बस सपट ही जिनवर कहा। कुलरूप वययुत विज्ञ श्रमणी कही जाती आर्यिका ।।२८।। त्रिवर्णी नीरोग तप के योग्य वय से युक्त हों। सुमुख निन्दा रहित नर ही दीक्षा के योग्य हैं।।२९।। रतनत्रय का नाश ही है भंग जिनवर ने कहा। भंगयुत हो श्रमण तो सल्लेखना के योग्य ना ।।३०।। जन्मते शिशुसम नगन तन विनय अर गुरु के वचन । आगम पठन हैं उपकरण जिनमार्ग का ऐसा कथन ।।२२५।। इहलोक से निरपेक्ष यति परलोक से प्रतिबद्ध ना। अर कषायों से रहित युक्ताहार और विहार में ।।२२६।। चार विकथा कषायें अर इन्द्रियों के विषय में। रत श्रमण निद्रा-नेह में परमत्त होता है श्रमण ।।३१।। अरे भिक्षा मुनिवरों की ऐसणा से रहित हो। वे यतीगण ही कहे जाते हैं अनाहारी श्रमण ।।२२७।। तनमात्र ही है परिग्रह ममता नहीं है देह में। अंगार बिन शक्ति छुपाये बिना तप में जोड़ते।।२२८।। इकबार भिक्षाचरण से जैसा मिले मधु-मांस बिन । अधपेट दिन में लें श्रमण बस यही युक्ताहार है।।२२९।। पकते हुए अर पके कच्चे मांस में उस जाति के। सदा ही उत्पन्न होते हैं निगोदी जीव वस ॥३२॥ जो पके कच्चे माँस को खावें छुयें वे नारि-नर। जीवजन्तु करोड़ों को मारते हैं निरन्तर ।।३३॥ जिनागम अविरुद्ध जो आहार होवे हस्तगत । नहीं देवे दूसरों को दे तो प्रायश्चित योग्य है।।३४।। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा २७ से ३४ तक
प्रवचनसारपद्यानुवाद
१५१ मूल का न छेद हो इस तरह अपने योग्य ही। वृद्ध बालक श्रान्त रोगी आचरण धारण करें।।२३०।। श्रमण श्रम क्षमता उपधि लख देश एवं काल को। जानकर वर्तन करें तो अल्पलेपी जानिये ।।२३१।।
मोक्षमार्गप्रज्ञापनाधिकार स्वाध्याय से जो जानकर निज अर्थ में एकाग्र हैं। भूतार्थ से वे ही श्रमण स्वाध्याय ही बस श्रेष्ठ है ।।२३२।। जो श्रमण आगमहीन हैं वे स्व-पर को नहिं जानते। वे कर्मक्षय कैसे करें जो स्व-पर को नहिं जानते ।।२३३।। साधु आगमचक्षु इन्द्रियचक्षु तो सब लोक है। देव अवधिचक्षु अर सर्वात्मचक्षु सिद्ध हैं।।२३४।। जिन-आगमों से सिद्ध हो सब अर्थ गुण-पर्यय सहित । जिन-आगमों से ही श्रमणजन जानकर साधे स्वहित ।।२३५।। जिनागम अनुसार जिनकी दृष्टि न वे असंयमी। यह जिनागम का कथन है वे श्रमण कैसे हो सकें ।।२३६।। जिनागम से अर्थ का श्रद्धान ना सिद्धि नहीं। श्रद्धान हो पर असंयत निर्वाण को पाता नहीं ।।२३७।। विज्ञ तीनों गुप्ति से क्षय करें स्वासोच्छ्वास में। ना अज्ञ उतने कर्म नाशे भव हजार करोड़ में ।।२३८।। देहादि में अणुमात्र मूर्छा रहे यदि तो नियम से। वह सर्व आगम धर भले हो सिद्धि वह पाता नहीं।।२३९।। अनारंभी त्याग विषयविरक्त और कषायक्षय । ही तपोधन संत का सम्पूर्णतः संयम कहा ।।३५।। तीन गुप्ति पाँच समिति सहित पंचेद्रियजयी ।
ज्ञानदर्शनमय श्रमण ही जितकषायी संयमी ।।२४०।। •आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा ३५