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अध्यात्मनवनीत
कांच - कंचन बन्धु-अरि सुख-दुःख प्रशंसा - निन्द में । शुद्धोपयोगी श्रमण का समभाव जीवन-मरण में ।। २४१ ।। ज्ञानदर्शनचरण में युगपत सदा आरूढ़ हो । एकाग्रता को प्राप्त यति श्रामण्य से परिपूर्ण हैं । । २४२ ।। अज्ञानि परद्रव्याश्रयी हो मुग्ध राग-द्वेषमय । जो श्रमण वह ही बाँधता है विविध विध के कर्म सब ।। २४३ ॥ मोहित न हो जो लोक में अर राग-द्वेष नहीं करें। वे श्रमण ही नियम से क्षय करें विध-विध कर्म सब ।। २४४ ॥ शुभोपयोगप्रज्ञापनाधिकार
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शुद्धोपयोगी श्रमण हैं शुभोपयोगी भी श्रमण । शुद्धोपयोगी निरास्रव हैं आस्रवी हैं शेष सब ।। २४५ ।। वात्सल्य प्रवचनरतों में अर भक्ति अर्हत् आदि में । बस यही चर्या श्रमणजन की कही शुभ उपयोग है ।। २४६ ।। श्रमणजन के प्रति बंदन नमन एवं अनुगमन । विनय श्रमपरिहार निन्दित नहीं हैं जिनमार्ग में ।। २४७ ।। उपदेश दर्शन - ज्ञान-पूजन शिष्यजन का परिग्रहण । और पोषण ये सभी हैं रागियों के आचरण ।। २४८ ।। तनविराधन रहित कोई श्रमण पर उपकार में। नित लगा हो तो जानना है राग की ही मुख्यता । । २४९ ।। जो श्रमण वैयावृत्ति में छहकाय को पीड़ित करें ।
गृही ही हैं क्योंकि यह तो श्रावकों का धर्म है ।। २५० ।। दया से सेवा सदा जो श्रमण-श्रावकजनों की ।
करे वह भी अल्पलेपी कहा है जिनमार्ग में ।। २५१ ।। भूखे-प्यासे दुःखीजन लख दुखित मन से जो पुरुष । दया से हो द्रवित बस वह भाव अनुकंपा कहा ।। ३६ ।।
• आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा ३६
प्रवचनसार पद्यानुवाद
श्रम रोग भूख प्यास से आक्रान्त हैं जो श्रमणजन । उन्हें लखकर शक्ति के अनुसार वैयावृत करो ।। २५२ ।। ग्लान गुरु अर वृद्ध बालक श्रमण सेवा निमित्त से । निंदित नहीं शुभभावमय संवाद लौकिकजनों से ।। २५३ ।। प्रशस्त चर्या श्रमण के हो गौण किन्तु गृहीजन । के मुख्य होती है सदा अर वे उसी से सुखी हों । । २५४ । । एकविध का बीज विध-विध भूमि के संयोग से । विपरीत फल शुभभाव दे बस पात्र के संयोग से । । २५५ ।। अज्ञानियों से मान्य व्रत-तप देव-गुरु-धर्मादि में । रत जीव बाँधे पुण्यहीनरु मोक्ष पद को ना लहें ।। २५६ ।। जाना नहीं परमार्थ अर रत रहें विषय- कषाय में । उपकार सेवादान दें तो जाय कुनर- कुदेव में ।। २५७।। शास्त्र में ऐसा कहा कि पाप विषय-कषाय हैं। जो पुरुष उनमें लीन वे कल्याणकारक किसतरह । । २५८ ।। समभाव धार्मिकजनों में निष्पाप अर गुणवान हैं। सन्मार्गगामी वे श्रमण परमार्थ मग में मगन हैं ।। २५९ ।। शुद्ध अथवा शुभ सहित अर अशुभ से जो रहित हैं । वे तार देते लोक उनकी भक्ति से पुणबंध हो । । २६० ।। जब दिखें मुनिराज पहले विनय से वर्तन करो । भेद करना गुणों से पश्चात् यह उपदेश है । । २६१ । । गुणाधिक में खड़े होकर अंजलि को बाँधकर । ग्रहण - पोषण - उपासन-सत्कार कर करना नमन ।। २६२ ।। विशारद सूत्रार्थ संयम-ज्ञान-तप में आढ्य हों ।
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उन श्रमणजन को श्रमणजन अति विनय से प्रणमन करें ।। २६३ ।। सूत्र संयम और तप से युक्त हों पर जिनकथित । तत्त्वार्थ को ना श्रद्धहैं तो श्रमण ना जिनवर कहें ।। २६४ ।।