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अध्यात्मनवनीत
आनन्दमय सद्ज्ञानमय परमार्थ नहीं पहिचानते । । २४२ ।। यद्यपी परद्रव्य है द्रवलिंग फिर भी अजज्ञन । बस उसी में ममता धरें द्रवलिंग मोहित अन्धजन ।। देखें नहीं जाने नहीं सुखमय समय के सार को । बस इसलिए ही अज्ञजन पाते नहीं भवपार को ।। २४३ ।। क्या लाभ है ऐसे अनल्प विकल्पों के जाल से । बस एक ही है बात यह परमार्थ का अनुभव करो ।। क्योंकि निजरसभरित परमानन्द के आधार से । कुछ भी नहीं है अधिक सुनलोइस समय के सार से ।। २४४ ।। ( दोहा )
ज्ञानानन्दस्वभाव को करता हुआ प्रत्यक्ष ।
अरे पूर्ण अब हो रहा यह अक्षय जगचक्षु || २४५ ।। इसप्रकार यह आतमा अचल अबाधित एक । ज्ञानमात्र निश्चित हुआ जो अखण्ड संवेद्य । । २४६ ।। परिशिष्ट
( कुण्डलिया )
यद्यपि सब कुछ आ गया कुछ भी रहा न शेष । फिर भी इस परिशिष्ट में सहज प्रमेय विशेष ।।
प्रमेय
विशेष
सहज भ ज्ञानमात्र
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म
आतम
स्याद्वाद
समझाते परमव्यवस्था वस्तुतत्त्व की प्रस्तुत
परमज्ञानमय परमातम का चिन्तन करते ।। २४७ ।।
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उपायोपेय I
से ।।
करके ।
( हरिगीत )
बाह्यार्थ ने ही पी लिया निजव्यक्तता से रिक्त जो ।
समयसार कलश पद्यानुवाद
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वह ज्ञान तो सम्पूर्णत: पररूप में विश्रान्त है । पर से विमुख हो स्वोन्मुख सद्ज्ञानियों का ज्ञान तो । 'स्वरूप से ही ज्ञान है' - इस मान्यता से पुष्ट है ।। २४८ ।।
इस ज्ञान में जो झलकता वह विश्व ही बस ज्ञान है । अबुध ऐसा मानकर स्वच्छन्द हो वर्तन करें ।। अर विश्व को जो जानकर भी विश्वमय होते नहीं । वे स्याद्वादी जगत में निजतत्त्व का अनुभव करें ।। २४९ ।। छिन-भिन्न हो चहुँ ओर से बाह्यार्थ के परिग्रहण से । खण्ड-खण्ड होकर नष्ट होता स्वयं अज्ञानी पशु ।। एकत्व के परिज्ञान से भ्रमभेद जो परित्याग दें । वे स्याद्वादी जगत में एकत्व का अनुभव करें ।। २५० ।। जो मैल ज्ञेयाकार का धो डालने के भाव से । स्वीकृत करें एकत्व को एकान्त से वे नष्ट हों ।। अनेकत्व को जो जानकर भी एकता छोड़े नहीं । वे स्याद्वादी स्वतः क्षालित तत्त्व का अनुभव करें ।। २५१ ।। इन्द्रियों से जो दिखे ऐसे तनादि पदार्थ में । एकत्व कर हों नष्ट जन निजद्रव्य को देखें नहीं । । निजद्रव्य को जो देखकर निजद्रव्य में ही रत रहें । वे स्याद्वादी ज्ञान से परिपूर्ण हो जीवित रहें ।। २५२ ।। सब द्रव्यमय निज आतमा यह जगत की
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बस रत रहे परद्रव्य में स्वद्रव्य के भ्रमबोध से ।। परद्रव्य के नास्तित्व को स्वीकार सब द्रव्य में । निजज्ञान बल से स्याद्वादी रत रहें निजद्रव्य में ।। २५३ ।।