________________
१२२
समयसार कलश पद्यानुवाद
अध्यात्मनवनीत कर्म वृक्ष के विषफल मेरे बिन भोगे ही।
खिर जायें बस यही भावना भाता हूँ मैं ।। क्योंकि मैं तो वर्त रहा हूँ स्वयं स्वयं के।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ।।२३०।। सब कर्मों के फल से सन्यासी होने से।
आतम से अतिरिक्त प्रवृत्ति से निवृत्त हो ।। चिद्लक्षण आतम को अतिशय भोगरहा हूँ। यहप्रवृत्ति हीबनीरहेबसअमित इसकालतक।।२३१।।
(वसंततिलका) रे पूर्वभावकृत कर्मजहरतरु के।
अज्ञानमय फल नहीं जो भोगते हैं।। हो तृप्त स्वयं में चिरकाल तक वे।
निष्कर्म सुखमय दशा को भोगते हैं ।।२३२ ।। रे कर्मफल से सन्यास लेकर।
सद्ज्ञान चेतना को निज में नचाओ ।। प्याला पियो नित प्रशमरस का निरन्तर । सुख में रहो अभी से चिरकालतक तुम ।।२३३।।
(दोहा) अपने में ही मगन है अचल अनाकुल ज्ञान । यद्यपि जाने ज्ञेय को तदपि भिन्न ही जान ।।२३४ ।।
(हरिगीत) है अन्य द्रव्यों से पृथक् विरहित ग्रहण अर त्याग से। यहज्ञाननिधिनिज में नियत वस्तुत्वकोधारण किये।। है आदि-अन्त विभाग विरहित स्फुरित आनन्दघन । होसहज महिमाप्रभाभास्वर शुद्ध अनुपम ज्ञानघन ।।२३५।।
जिनने समेटा स्वयं ही सब शक्तियों को स्वयं में। सब ओर से धारण किया हो स्वयं को ही स्वयं में ।। मानो उन्हीं ने त्यागने के योग्य जो वह तज दिया। अर जो ग्रहण केयोग्य वह सब भी उन्हीं नेपालिया।।२३६।।
(सोरठा) ज्ञानस्वभावी जीव परद्रव्यों से भिन्न ही। कैसे कहें सदेह जब आहारक ही नहीं ।।२३७।। शुद्धज्ञानमय जीव के जब देह नहीं कही। तब फिर यह द्रवलिंग शिवमग कैसे हो सके।॥२३८।।
(दोहा) मोक्षमार्ग बस एक ही रत्नत्रयमय होय । अत: मुमुक्षु के लिए वह ही सेवन योग्य ।।२३९।।
(हरिगीत) दृगज्ञानमय वृत्त्यात्मक यह एक ही है मोक्षपथ । थित रहें अनुभव करें अर ध्यावे अहिर्निश जो पुरुष ।। जो अन्य को न छुयें अर निज में विहार करें सतत । वे पुरुष ही अतिशीघ्र ही समसार को पावे उदि त ।। २ ४ ० । । जो पुरुष तज पूर्वोक्त पथ व्यवहार में वर्तन करें। तर जायेंगे यह मानकर द्रव्यलिंग में ममता धरें।। वे नहीं देखें आत्मा निज अमल एक उद्योतमय । अर अखण्ड अभेदचिन्मय अज अतुल आलोकमय ।।२४१।। तुष माँहि मोहित जगतजन ज्यों एक तुष ही जानते । वे मूढ तुष संग्रह करें तन्दुल नहीं पहिचानते ।। व्यवहारमोहित मूढ़ त्यों व्यवहार को ही जानते।