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अध्यात्मनवनीत
समयसार कलश पद्यानुवाद
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को धारण कर निज में नित्य मगन रहते
ज्ञान-ज्ञेय का भेद ज्ञान में उदित नहीं हो।। ज्ञान-ज्ञेय काभेद समझकर राग-द्वेष को,
मेट पूर्णत: पूर्ण ज्ञानमय तुम हो जावो ।।२१७।। यही ज्ञान अज्ञानभाव से राग-द्वेषमय ।
हो जाता पर तत्त्वदृष्टि से वस्तु नहीं ये ।। तत्त्वदृष्टि के बल से क्षयकर इन भावों को।
हो जाती है अचल सहज यह ज्योति प्रकाशित।।२१८।। तत्त्वदृष्टि से राग-द्वेष भावों का भाई।
कर्ता-धर्ता कोई अन्य नहीं हो सकता।। क्योंकि है अत्यन्त प्रगट यह बात जगत में।
द्रव्यों का उत्पाद स्वयं से ही होता है ।।२१९।। राग-द्वेष पैदा होते हैं इस आतम में ।
उसमें परद्रव्यों का कोई दोष नहीं है ।। यह अज्ञानी अपराधी है इनका कर्ता ।
यह अबोध हो नष्ट कि मैं तो स्वयंज्ञान हूँ।।२२०।। अरे राग की उत्पत्ति में परद्रव्यों को।
एकमात्र कारण बतलाते जो अज्ञानी ।। शुद्धबोध से विरहित वे अंधे जन जग में। ___ अरे कभी भी मोहनदी से पार न होंगे ।।२२१।। जैसे दीपक दीप्य वस्तुओं से अप्रभावित ।
वैसे ही ज्ञायक ज्ञेयों से विकृत न हो।। फिर भी अज्ञानीजन क्यों असहज होते हैं।
न जाने क्यों व्याकुल हो विचलित होते हैं ।।२२२ ।। राग-द्वेष से रहित भूत-भावी कर्मों से।
मुक्त स्वयं को वे नित ही अनुभव करते हैं।। और स्वयं में रत रह ज्ञानमयी चेतनता।
ज्ञान चेतना शुद्ध ज्ञान को करे प्रकाशित ।
शुद्धज्ञान को रोके नित अज्ञान चेतना ।। और बंध की कर्ता यह अज्ञान चेतना।
यही जान चेतो आतम नित ज्ञान चेतना ।।२२४।। भूत भविष्यत वर्तमान के सभी कर्म कृत ।
कारित अर अनुमोदनादि मैं सभी ओर से। सबका कर परित्याग हृदयसेवचन-काय से।
अवलम्बन लेता हूँ परम निष्कर्मभाव का ।।२२५ ।। मोहभाव से भूतकाल में कर्म किये जो।
उन सबका ही प्रतिक्रमण करके अब मैं तो।। वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ।।२२६।। मोहभाव से वर्तमान में कर्म किये जो।
उन सबका आलोचन करके ही अब
वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ।।२२७ ।। नष्ट हो गया मोहभाव जिसका ऐसा मैं।
करके प्रत्याख्यान भाविकर्मों का अब तो।। वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ।।२२८।। तीन काल के सब कर्मों को छोड़ इसतरह।
परमशुद्धनिश्चयनय का अवलम्बन लेकर।। निर्मोही हो वर्त रहा हूँ स्वयं स्वयं के।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ।।२२९।।