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________________ ११८ अध्यात्मनवनीत समयसार कलश पद्यानुवाद वस्तु का स्वरूप समझाते अरे भव्यजन, अब आगे की गाथाओं में कुन्दकुन्द मुनि ।।२०४।। अरे जैन होकर भी सांख्यों के समान ही, इस आतम को सदा अकर्ता तुम मत जानो। भेदज्ञान के पूर्व राग का कर्ता आतम; भेदज्ञान होने पर सदा अकर्ता जानो ।।२०५।। जो कर्त्ता वह नहीं भोगता इस जगती में, ऐसा कहते कोई आतमा क्षणिक मानकर। नित्यरूप से सदा प्रकाशित स्वयं आतमा, मानो उनका मोह निवारण स्वयं कर रहा ।।२०६।। (सोरठा) वृत्तिमान हो नष्ट, वृत्त्यंशों के भेद से। कर्ता भोक्ता भिन्न; इस भय से मानो नहीं ।।२०७ ।। (रोला) यह आतम हैक्षणिकक्योंकियह परमशुद्ध है। जहाँकाल की भी उपाधि की नहीं अशुद्धि ।। इसी धारणा से छूटा त्यों नित्य आतमा। ज्यों डोरा बिन मुक्तामणि से हार न बनता ।।२०८।। कर्ता-भोक्ता में अभेद हो युक्तिवश से, भले भेद हो अथवा दोनों ही न होवें। ज्यों मणियों की मालाभेदी नहीं जा सके, त्यों अभेद आतम का अनुभव हमें सदा हो।।२०९।। (दोहा) अरे मात्र व्यवहार से कर्मरु कर्ता भिन्न । निश्चयनय से देखिये दोनों सदा अभिन्न ।।२१०।। अरे कभी होता नहीं कर्ता के बिन कर्म । निश्चय से परिणाम ही परिणामी का कर्म ।। सदा बदलता ही रहे यह परिणामी द्रव्य । एकरूप रहती नहीं वस्तु की थिति नित्य ।।२११।। (रोला) यद्यपि आतमराम शक्तियों से है शोभित । और लोटता बाहर-बाहर परद्रव्यों के।। पर प्रवेश पा नहीं सकेगा उन द्रव्यों में। फिर भी आकुल-व्याकुल होकर क्लेशपा रहा।।२१२।। एक वस्तु हो नहीं कभी भी अन्य वस्तु की। वस्तु वस्तु की ही है - ऐसा निश्चित जानो। ऐसा है तो अन्य वस्तु यदि बाहर लोटे। तोफिर वह क्या कर सकती है अन्य वस्तु का।।२१३।। स्वयं परिणमित एकवस्तु यदि परवस्तु का। कुछ करती है - ऐसा जो माना जाता है।। वह केवल व्यवहारकथन है निश्चय से तो। एक दूसरे का कुछ करना शक्य नहीं है ।।२१४।। एक द्रव्य में अन्य द्रव्य रहता हो - ऐसा । भासित कभी नहीं होता है ज्ञानिजनों को।। शुद्धभाव का उदय ज्ञेय का ज्ञान, न जाने । फिर भी क्यों अज्ञानीजन आकुल होते हैं ।।२१५ ।। शुद्धद्रव्य का निजरसरूप परिणमन होता। वह पररूप या पर उसरूप नहीं हो सकते ।। अरे चाँदनी की ज्यों भूमि नहीं हो सकती। त्यों ही कभीनहीं हो सकते ज्ञेय ज्ञान के ।।२१६ ।। तबतक राग-द्वेष होते हैं जबतक भाई !
SR No.008335
Book TitleAdhyatma Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Ritual, & Vidhi
File Size333 KB
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