Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 68
________________ १२८ अध्यात्मनवनीत समयसार कलश पद्यानुवाद को प्राप्त करते जो अपनीतमोही।। साधकपने को पा वे सिद्ध होते । अर अज्ञ इसके बिना परिभ्रमण करते ।।२६६।। स्याद्वादकौशल तथा संयम सुनिश्चिल । से ही सदा जो निज में जमे हैं।। वे ज्ञान एवं क्रिया की मित्रता से। सुपात्र हो पाते भूमिका को ।।२६७।। उदितप्रभा से जो सुप्रभात करता। चित्पिण्ड जो है खिला निज रमणता से ।। जो अस्खलित है आनन्दमय वह । होता उदित अद्भुत अचल आतम ।।२६८।। महिमा उदित शुद्धस्वभाव की नित। स्याद्वाददीपित लसत् सद्ज्ञान में जब ।। तब बंध-मोक्ष मग में आपतित भावों। से क्या प्रयोजन है तुम ही बताओ ॥२६९।। निज शक्तियों का समुदाय आतम । विनष्ट होता नयदृष्टियों से।। खंड-खंड होकर खण्डित नहीं मैं। एकान्त शान्त चिन्मात्र अखण्ड हूँ मैं ।।२७०।। (रोला) परज्ञेयों के ज्ञानमात्र मैं नहीं जिनेश्वर । मैं तो केवल ज्ञानमात्र हँ निश्चित जानो।। ज्ञेयों के आकार ज्ञान की कल्लोलों से। परिणत ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेयमय वस्तुमात्र अरे अमेचक कभी कभी यहमेचक दिखता। कभी मेचकामेचक यह दिखाई देता है ।। अनंत शक्तियों का समूह यह आतम फिर भी। दृष्टिवंत को भ्रमित नहीं होने देता है।।२७२।। एक ओर से एक स्वयं में सीमित अर ध्रुव । अन्य ओर से नेक क्षणिक विस्तारमयी है।। अहो आतमा का अद्भुत यह वैभव देखो। जिसे देखकर चकित जगतजन ज्ञानी होते ।।२७३।। एक ओर से शान्त मुक्त चिन्मात्र दीखता। अन्य ओर सेभव-भवपीड़ित राग-द्वेषमय ।। जीरो पामिन टोना विविधयोंगे। आत्मा का ध्यान करने के लिए उसे जानना आवश्यक है। इसीप्रकार अपने आत्मा के दर्शन के लिए भी आत्मा का जानना आवश्यक है। इसप्रकार आत्मध्यानरूप चारित्र के लिए तथा आत्मदर्शनरूप सम्यग्दर्शन के लिए आत्मा का जानना जरूरी है तथा आत्मज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान के लिए तो आत्मा का जानना आवश्यक है ही। अन्तत: यही निष्कर्ष निकला कि धर्म की साधना के लिए एकमात्र निज भगवान आत्मा का जानना ही सार्थक है। सुनकर नहीं, पढ़कर नहीं; आत्मा को प्रत्यक्ष अनुभूतिपूर्वक साक्षात् जानना ही आत्मज्ञान है और इसीप्रकार जानते रहना ही आत्मध्यान है। इसप्रकार का आत्मज्ञान सम्यग्ज्ञान है और इसीप्रकार का आत्मध्यान सम्यक्चारित्र है। जब ऐसा आत्मज्ञान और आत्मध्यान होता है तो उसी समय आत्मप्रतीति भी सहज हो जाती है, आत्मा में अपनापन भी सहज आ जाता है, अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन भी उसीसमय होता है; सबकुछ एकसाथ ही उत्पन्न होता है और सबका मिलाकर एक नाम आत्मानुभूति है। - आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-२२१ ज्यों शब्द अपनी शक्ति से ही तत्त्व प्रतिपादन करें।

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