Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 58
________________ १०८ अध्यात्मनवनीत बस उसतरह ही रागरस से रिक्त सम्यग्ज्ञानिजन । सब कर्म करते पर परीग्रहभाव को ना प्राप्त हों ।। १४८ ।। रागरस से रहित ज्ञानी जीव इस भूलोक में । कर्मस्थ हों पर कर्मरज से लिप्त होते हैं नहीं ।। १४९ ।। स्वयं ही हों परिणमित स्वाधीन हैं सब वस्तुयें । अर अन्य के द्वारा कभी वे नहीं बदली जा सकें ।। जिम परजनित अपराध से बंधते नहीं जन जगत में । तिम भोग भोगे किन्तु ज्ञानीजन कभी बंधते न ह I I I I १ ५ ० कर्म करना ज्ञानियों को उचित हो सकता नहीं । फिर भी भोगासक्त जो दुर्भुक्त ही वे जानिये । हो भोगने से बंध ना पर भोगने के भाव से । तो बंध है बस इसलिए निज आतमा में रत रहो । । १५१ ।। तू भोग मुझको ना कहे यह कर्म निज करतार को । फलाभिलाषी जीव ही नित कर्मफल को भोगता ।। फलाभिलाषाविरत मुनिजन ज्ञानमय वर्तन करें। सब कर्म करते हुए भी वे कर्मबंधन ना करें । । १५२ ।। जिसे फल की चाह ना वह करे - यह जंचता नहीं । यदि विवशता वश आ पड़े तो बात ही कुछ और है ।। अकंप ज्ञानस्वभाव में थिर रहें जो वे ज्ञानिजन । सब कर्म करते या नहीं - यह कौन जाने वि वज्र का हो पात जो त्रैलोक्य को विह्वल करे । फिर भी अरे अतिसाहसी सदृष्टिजन निश्चल रहें ।। निश्चल रहें निर्भय रहें निशंक निज में ही रहें । निसर्ग ही निजबोधवपु निज बोध से अच्युत रहें ।। १५४।। ज्ञ ज न I I १ ५ ३ I I समयसार कलश पद्यानुवाद १०९ इहलोक अर परलोक से मेरा न कुछ सम्बन्ध है । अर भिन्न पर से एक यह चिल्लोक ही मम लोक है ।। जब जानते यह ज्ञानिजन तब होंय क्यों भयभीत वे । वे तो सतत निःशंक हो निजज्ञान का अनुभव करें ।। १५५ । । चूंकि एक - अभेद में ही वेद्य-वेदक भाव हों । अतएव ज्ञानी नित्य ही निजज्ञान का अनुभव करें ।। अन वेदना कोइ है नहीं तब होंय क्यों भयभीत वे । वे तो सतत् निःशंक हो निजज्ञान का अनुभव करें ।। १५६ ।। निज आतमा सत् और सत् का नाश हो सकता नहीं । है सदा रक्षित सत् अरक्षाभाव हो सकता नहीं ।। जब जानते यह ज्ञानिजन तब होंय क्यों भयभीत वें । वे तो सतत् निःशंक हो निजज्ञान का अनुभव करें ।। १५७ ।। कोई किसी का कुछ करे यह बात संभव है नहीं । सब हैं सुरक्षित स्वयं में अगुप्ति का भय है नहीं । जब जानते यह ज्ञानिजन तब होंय क्यों भयभीत वे । वे तो सतत नि:शंक हो निजज्ञान का अनुभव करें ।। १५८ । । मृत्यु कहे सारा जगत बस प्राण के उच्छेद को । ज्ञान ही है प्राण मम उसका नहीं उच्छेद हो ।। तब मरणभय हो किसतरह हों ज्ञानिजन भयभीत क्यों । वे तो सतत निःशंक हो निज ज्ञान का अनुभव करें ।। १५९ ।। इसमें अचानक कुछ नहीं यह ज्ञान निश्चल एक है । यह है सदा ही एकसा एवं अनादि अनंत है ।। जब जानते यह ज्ञानिजन तब होंय क्यों भयभीत वे । वे तो सतत निःशंक हो निज ज्ञान का अनुभव करें । । १६० ।। ( दोहा )

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