Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 62
________________ समयसार कलश पद्यानुवाद अध्यात्मनवनीत कर्त्तापन अज्ञान से ज्ञान अकारकभाव ।।१९४।। (रोला) निजरस से सुविशुद्ध जीव शोभायमान है। झलके लोकालोक ज्योति स्फुरायमान है।। अहो अकर्ता आतम फिर भी बंध हो रहा। यह अपार महिमा जानो अज्ञानभाव की ।।१९५।। (दोहा) जैसे कर्तृस्वभाव नहीं वैसे भोक्तृस्वभाव। भोक्तापन अज्ञान से ज्ञान अभोक्ताभाव ।।१९६।। (रोला) प्रकृतिस्वभावरत अज्ञानी हैं सदा भोगते । प्रकृतिस्वभाव सेविरत ज्ञानिजन कभीनभोगें।। निपुणजनो! निजशुद्धातममय ज्ञानभाव को। अपनाओ तुम सदा त्याग अज्ञानभाव को।।१९७ ।। (सोरठा) निश्चल शुद्धस्वभाव, ज्ञानी करे न भोगवे। जाने कर्मस्वभाव, इस कारण वह मुक्त है ।।१९८ ।। (हरिगीत) निज आतमा ही करे सबकुछ मानते अज्ञान से। हों यद्यपि वे मुमुक्षु पर रहित आतमज्ञान से ।। अध्ययन करें चारित्र पालें और भक्ति करें पर। लौकिकजनोंवत उन्हें भी तो मुक्ति की प्राप्ति न हो।।१९९।। (दोहा) जब कोई संबंध ना पर अर आतम मांहि। तब कर्ता परद्रव्य का किसविध आत्मकहाँहि ।।२०।। (रोला) जब कोई संबंध नहीं है दो द्रव्यों में, तब फिर कर्ताकर्मभाव भी कैसे होगा? इसीलिए तो मैं कहता हूँ निज को जानो; सदा अकर्ता अरे जगतजन अरे मुनिजन ।।२०१।। इस स्वभाव के सहज नियम जो नहीं जानते, अरे विचारे वे तो डूबे भवसागर में। विविध कर्म को करते हैं बस इसीलिए वे, भावकर्म के कर्ता होते अन्य कोई ना ।।२०२।। अरे कार्य कर्ता के बिना नहीं हो सकता, भावकर्म भी एक कार्य है सब जग जाने । और पौद्गलिक प्रकृति सदा ही रही अचेतन; वह कैसे कर सकती चेतन भावकर्म को।। प्रकृति-जीव दोनों ही मिलकर उसे करें तो फिर दोनों मिलकर ही फल क्यों ना भोगें? भावकर्म तो चेतन का ही करे अनुसरण, इसकारण यह जीव कहा है उनका कर्ता ।।२०३।। कोई कर्ता मान कर्म को भावकर्म का, आतम का कर्तृत्व उड़ाकर अरे सर्वथा। और कथंचित् कर्ता आतम कहनेवाली; स्याद्वादमय जिनवाणी को कोपित करते ।। उन्हीं मोहमोहितमतिवाले अल्पज्ञों के, संबोधन के लिए सहेतुक स्याद्वादमय ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112