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समयसार कलश पद्यानुवाद
अध्यात्मनवनीत जो ज्ञानमय हों परिणमित परमाद के वश में न हों। कर्म विरहित जीव वे संसार-सागर पार हों।।१११।। जग शुभ अशुभ में भेद माने मोह मदिरापान
स
पर भेद इनमें है नहीं जाना है सम्यग्ज्ञान से ।। यह ज्ञानज्योति तमविरोधी खेले केवलज्ञान से। जयवंत हो इस जगत में जगमगै आतमज्ञान से ।।११२।।
आस्रवाधिकार
(हरिगीत) इन द्रव्य कर्मों के पहाड़ों के निरोधक भाव जो। हैं राग-द्वेष-विमोह बिन सद्ज्ञान निर्मित भाव जो।। भावानवों से रहित वे इस जीव के निजभाव हैं। वे ज्ञानमय शुद्धात्ममय निज आत्मा के भाव हैं।।११४।।
(दोहा) द्रव्यास्रव से भिन्न है भावास्रव को नाश । सदा ज्ञानमय निरास्रव ज्ञायकभाव प्रकाश ॥११५।।
(कुण्डलिया) स्वयं सहज परिणाम से कर दीना परित्याग।
सम्यग्ज्ञानी जीव ने बुद्धिपूर्वक राग ।। बुद्धिपूर्वक राग त्याग दीना है जिसने।
और अबुद्धिक राग त्याग करने को जिसने।। निजशक्तिस्पर्श प्राप्त कर पूर्णभाव को। रहे निरास्रव सदा उखाड़े परपरिणति को।।११६।।
(दोहा) द्रव्यास्रव की संतति विद्यमान सम्पूर्ण। फिर भी ज्ञानी निराम्रव कैसे हो परिपूर्ण ।।११७।।
(हरिगीत)
पूर्व में जो द्रव्यप्रत्यय बंधे थे अब वे सभी। निजकाल पाकर उदित होंगे सुप्त सत्ता में अभी ।। यद्यपी वे हैं अभी पर राग-द्वेषाभाव से। अंतर अमोही ज्ञानियों को बंध होता है नहीं।।११८।।
(दोहा) राग-द्वेष अर मोह ही केवल बंधकभाव । ज्ञानी के ये हैं नहीं तातें बंध अभाव ।।११९।।
(हरिगीत) सदा उद्धत चिह्न वाले शुद्धनय अभ्यास से। निज आत्म की एकाग्रता के ही सतत् अभ्यास से।। रागादि विरहित चित्तवाले आत्मकेन्द्रित ज्ञानिजन । बंधविरहित अर अखण्डित आत्मा को देखते ।।१२०।। च्युत हुए जो शुद्धनय से बोध विरहित जीव वे। पहले बंधे द्रव्यकर्म से रागादि में उपयुक्त हो।। अरे विचित्र विकल्प वाले और विविध प्रकार के। विपरीतता से भरे विध-विध कर्म का बंधन करें।।१२१।। इस कथन का है सार यह कि शुद्धनय उपादेय है। अर शुद्धनय द्वारा निरूपित आत्मा ही ध्येय है।। क्योंकि इसके त्याग से ही बंध और अशान्ति है। इसके ग्रहण में आत्मा की मुक्ति एवं शान्ति है।।१२२।। धीर और उदार महिमायुत अनादि-अनंत जो। उस ज्ञान में थिरता करे अर कर्मनाशक भाव जो।। सद्ज्ञानियों को कभी भी वह शुद्धनय ना हेय है। विज्ञानघन इक अचल आतम ज्ञानियों का ज्ञेय है।।१२३।। निज आतमा जो परमवस्तु उसे जो पहिचानते।