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अध्यात्मनवनीत
समयसार कलश पद्यानुवाद
ज । य । । ६ ३ । ।
(हरिगीत) सब पुद्गलों में है स्वभाविक परिणमन की शक्ति जब । और उनके परिणमन में है न कोई विघ्न जब ।। क्यों न हो तब स्वयं कर्ता स्वयं के परिणमन का। सहज ही यह नियम जानो वस्तु के परिणमन का ।।६४।। आत्मा में है स्वभाविक परिणमन की शक्ति जब । और उसके परिणमन में है न कोई विघ्न जब ।। क्यों न हो तब स्वयं कर्ता स्वयं के परिणमन का। सहज ही यह नियम जानो वस्तु के परिणमन का ।।५।।
(रोला) ज्ञानी के सब भाव शुभाशुभ ज्ञानमयी हैं।
अज्ञानी के वही भाव अज्ञानमयी हैं।। ज्ञानी और अज्ञानी में यह अन्तर क्यों है।
तथा शुभाशुभ भावों में भी अन्तर क्यों है ।।६६।। ज्ञानी के सब भाव ज्ञान से बने हुए हैं।
अज्ञानी के सभी भाव अज्ञानमयी हैं।। उपादान के ही समान कारज होते हैं। जौ बौने पर जौ ही तो पैदा होते हैं ।।६७।।
(दोहा) अज्ञानी अज्ञानमय भावभूमि में व्याप्त । इसकारण द्रवबंध के हेतुपने को प्राप्त ।।६८।।
(सोरठा) जो निवसे निज माहि छोड़ सभी नय पक्ष को।
करे सुधारस पान निर्विकल्प चित शान्त हो ।।६९।।
(रोला) एक कहे ना बंधा दूसरा कहे बंधा है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है। पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ।।७।। एक कहे ना मूढ़ दूसरा कहे मूढ़ है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है। पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है।।७१।। एक कहे ना रक्त दूसरा कहे रक्त है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है। पक्षपात से रहित तत्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ।।७२।। एक कहे ना दुष्ट दूसरा कहे दुष्ट है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है। पक्षपात से रहित तत्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ।।७३।। एक अकर्ता कहे दूसरा कर्ता कहता,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है। पक्षपात से रहित तत्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ।।७४।। एक अभोक्ता कहे दूसरा भोक्ता कहता,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है। पक्षपात से रहित तत्ववेदी जो जन हैं,