Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 23
________________ अध्यात्मनवनीत सब आयु से जीवित रहें - यह बात जिनवर ने कही। कैसे बचावें वे तुझे जब आयु दे सकते नहीं? ।।५१।। मैं सुखी करता दुःखी करता हूँ जगत में अन्य को। यह मान्यता अज्ञान है क्यों ज्ञानियों को मान्य हो? ।।५२।। मारो न मारो जीव को हो बन्ध अध्यवसान से। यह बंध का संक्षेप है तुम जान लो परमार्थ से ।।५३।। प्राणी मरें या ना मरें हिंसा अयत्नाचार से। तब बंध होता है नहीं जब रहें यत्नाचार से ।।५४।। उत्पाद-व्यय-ध्रुवयुक्त सत् सत् द्रव्य का लक्षण कहा। पर्याय-गुणमय द्रव्य है - यह वचन जिनवर ने कहा ।।५५।। पर्याय बिन ना द्रव्य हो ना द्रव्य बिन पर्याय ही। दोनों अनन्य रहे सदा- यह बात श्रमणों ने कही ।।५६।। द्रव्य बिन गुण हों नहीं गुण बिना द्रव्य नहीं बने । गुण द्रव्य अव्यतिरिक्त हैं - यह कहा जिनवर देव ने ।।५७।। उत्पाद हो न अभाव का ना नाश हो सद्भाव में। उत्पाद-व्यय करते रहें सब द्रव्य गुण-पर्याय में ।।५८।। असद्भूत हों सद्भूत हों सब द्रव्य की पर्याय सब । सद्ज्ञान में वर्तमानवत् ही हैं सदा वर्तमान सब ।।५९।। पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या नष्ट जो हो गई हैं। असद्भावी वे सभी पर्याय ज्ञानप्रत्यक्ष हैं।।६।। पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या हो गई हैं नष्ट जो। फिर ज्ञान की क्या दिव्यता यदि ज्ञात होवें नहीं वो? ||६१।। अरहंत-भासित ग्रथित-गणधर सूत्र से ही श्रमणजन । परमार्थ का साधन करें अध्ययन करो हे भव्यजन!।।६२।। डोरा सहित सुइ नहीं खोती गिरे चाहे वन-भवन । संसार-सागर पार हों जिनसूत्र के ज्ञायक श्रमण ।।६३।। कुन्दकुन्दशतक पद्यानुवाद तत्त्वार्थ को जो जानते प्रत्यक्ष या जिनशास्त्र से। द्रगमोह क्षय हो इसलिए स्वाध्याय करना चाहिए।।६४।। जिन-आगमों से सिद्ध हो सब अर्थ गुण-पर्यय सहित । जिन-आगमों से ही श्रमणजन जानकर साधे स्वहित ।।६५।। स्वाध्याय से जो जानकर निज अर्थ में एकाग्र हैं। भूतार्थ से वे ही श्रमण स्वाध्याय ही बस श्रेष्ठ है।।।६६।। जो श्रमण आगमहीन हैं वे स्व-पर को नहिं जानते। वे कर्मक्षय कैसे करें जो स्व-पर को नहिं जानते ।।६७।। व्रत सहित पूजा आदि सब जिनधर्म में सत्कर्म हैं। दृगमोह-क्षोभ विहीन निज परिणाम आतमधर्म हैं।।६८।। चारित्र ही बस धर्म है वह धर्म समताभाव है। दृगमोह-क्षोभ विहीन निज परिणाम समताभाव है ।।६९।। प्राप्त करते मोक्षसुख शुद्धोपयोगी आतमा । पर प्राप्त करते स्वर्गसुख हि शुभोपयोगी आतमा ।।७।। शुद्धोपयोगी श्रमण हैं शुभोपयोगी भी श्रमण । शुद्धोपयोगी निराम्रव हैं आस्रवी हैं शेष सब ।।७१।। कांच-कंचन बन्धु-अरि सुख-दुःख प्रशंसा-निन्द में। शुद्धोपयोगी श्रमण का समभाव जीवन-मरण में ।।७२।। भावलिंगी सुखी होते द्रव्यलिंगी दुःख लहें। गुण-दोष को पहिचान कर सब भाव से मुनि पद गहें ।।७३।। मिथ्यात्व का परित्याग कर हो नग्न पहले भाव से । आज्ञा यही जिनदेव की फिर नग्न होवे द्रव्य से ।।७४।। जिनभावना से रहित मुनि भव में भ्रमें चिरकाल तक। होंनगन पर हों बोधि-विरहित दुःख लहें चिरकाल तक।।७५।। वस्त्रादि सब परित्याग कोड़ाकोड़ि वर्षों तप करें। पर भाव बिन ना सिद्धि हो सत्यार्थ यह जिनवर कहें ।।७६।।

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