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शुद्धात्मशतक पद्यानुवाद
अध्यात्मनवनीत परद्रव्यमय हो जाय यदि परद्रव्य में कुछ भी करे। परद्रव्यमय होता नहीं बस इसलिए कर्ता नहीं ।।७७।। ना घट करे ना पट करे ना अन्य द्रव्यों को करे। कर्ता कहा तरूप परिणत योग अर उपयोग का ।।७८।। ज्ञानावरण आदिक जु पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं। उनको करे ना आतमा जो जानते वे ज्ञानि हैं।।७९।। निजकृत शुभाशुभ भाव का कर्ता कहा है आतमा। वे भाव उसके कर्म हैं वेदक है उनका आतमा ।।८।। जब संक्रमण ना करे कोई द्रव्य पर-गुण-द्रव्य में। तब करे कैसे परिणमन इक द्रव्य पर-गुण-द्रव्य में ।।८१।। कुछ भी करे ना जीव पुद्गल द्रव्य के गुण-द्रव्य में। जब उभय का कर्ता नहीं तब किसतरह कर्ता कहें? ।।८२।। बंध का जो हेतु उस परिणाम को लख जीव में। करम कीने जीव ने बस कह दिया उपचार से ।।८३।। रण में लड़े भट पर कहे जग युद्ध राजा ने किया। बस उसतरह द्रवकर्म आतम ने किये व्यवहार से ।।८४।। ग्रहे बांधे परिणमावे करे या पैदा करे। पुद्गल दरव को आतमा व्यवहारनय का कथन है ।।८५।। गुण-दोष उत्पादक कहा ज्यों भूप को व्यवहार से। त्यों जीव पुद्गल द्रव्य का कर्ता कहा व्यवहार से ।।८६।। जो भाव आतम करे वह उस कर्म का कर्ता बने । ज्ञानियों के ज्ञानमय अज्ञानि के अज्ञानमय ।।८७।। ज्ञानमय परिणाम से परिणाम हों सब ज्ञानमय । बस इसलिए सद्ज्ञानियों के भाव हों सब ज्ञानमय ।।८८।। अज्ञानमय परिणाम से परिणाम हों अज्ञानमय । बस इसलिए अज्ञानियों के भाव हों अज्ञानमय ।।८९।।
हे भव्यजन तुम जान लो परमार्थ से यह आतमा। निजभाव को करता तथा निजभाव को ही भोगता ।।१०।। इसलिए यह शुद्धातमा पर जीव और अजीव से। कुछ भी ग्रहण करता नहीं कुछ भी नहीं है छोड़ता ।।९१।। चतुर्गति से मुक्त हो यदि चाहते हो सुख सदा। तो करो निर्मल भाव से निज आतमा की भावना ।।१२।। स्वानुभूति गम्य है जो नियत थिर निजभाव ही। अपद पद सब छोड़ ग्रह वह नित्य एक स्वभाव ही ।।१३।। ज्ञायकस्वभावी चेतनामय जीव जिनवर ने कहा। तुम जानना उस जीव को ही कर्म क्षय का हेतु भी ।।१४।। रागादि विरहित आतमा रत आतमा ही धर्म है। भव तरण-तारण धर्म यह जिनवर कथन का मर्म है ।।९५।। ज्ञान दर्शन मय निजातम को सदा जो ध्यावते । अत्यल्प काल स्वकाल में वे सर्वकर्म विमुक्त हों ।।१६।। पर का नहीं ना मेरे पर मैं एक ही ज्ञानात्मा। जो ध्यान में इस भाँति ध्यावे है वही शुद्धात्मा ।।९७।। इसतरह मैं आतमा को ज्ञानमय दर्शनमयी। ध्रुव अचल अवलंबन रहित इन्द्रियरहित शुध मानता ।।९८।। अरि-मित्रजनधन-धान्य सुख-दुख देह कुछ भी ध्रुव नहीं। इस जीव के ध्रुव एक ही उपयोगमय यह आतमा ।।९९।। यह जान जो शुद्धात्मा ध्यावें सदा परमातमा । दुठ मोह की दुर्ग्रन्थि का भेदन करें वे आतमा ।।१०।। निर्वाण पाया इसी मग से श्रमण जिन जिनदेव ने। निर्वाण अर निर्वाणमग को नमन बारंबार हो ।।१०१।।