Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 42
________________ अध्यात्मनवनीत फिर तो अचेतन प्रकृति ही कर्तापने को प्राप्त हो ।।३२८।। अथवा करे यह जीव पुद्गल दरव के मिथ्यात्व को। मिथ्यात्वमय पुद्गल दरव ही सिद्ध होगा जीव ना ।।३२९।। यदि जीव प्रकृति उभय मिल मिथ्यात्वमय पुद्गल करे। फल भोगना होगा उभय को उभयकृत मिथ्यात्व का ।।३३०।। यदि जीव प्रकृति ना करें मिथ्यात्वमय पुद्गल दरव । मिथ्यात्वमय पुद्गलसहज,क्या नहींयह मिथ्या कहो?||३३१।। कर्म अज्ञानी करे अर कर्म ही ज्ञानी करे । जिय को सुलावे कर्म ही अर कर्म ही जाग्रत करे ।।३३२।। कर्म करते सुखी एवं दुखी करते कर्म ही। मिथ्यात्वमय कर्महि करे अर असंयमी भी कर्म ही ।।३३३।। कर्म ही जिय भ्रमाते हैं ऊर्ध्व-अध-तिरलोक में। जो कुछ जगत में शुभ-अशुभ वह कर्म ही करते रहें।।३३४।। कर्म करते कर्म देते कर्म हरते हैं सदा । यह सत्य है तो सिद्ध होंगे अकारक सब आतमा ।।३३५।। नरवेद है महिलाभिलाषी नार चाहे पुरुष को। परम्परा आचार्यों से बात यह श्रुतपूर्व है।।३३६।। अब्रह्मचारी नहीं कोई हमारे उपदेश में। क्योंकि ऐसा कहा है कि कर्म चाहे कर्म को ।।३३७।। जो मारता है अन्य को या मारा जावे अन्य से। परघात नामक कर्म की ही प्रकृति का यह काम है ।।३३८।। परघात करता नहीं कोई हमारे उपदेश में। क्योंकि ऐसा कहा है कि कर्म मारे कर्म को ।।३३९।। सांख्य के उपदेश सम जो श्रमण प्रतिपादन करें। कर्ता प्रकृति उनके यहाँ पर है अकारक आतमा ।।३४०।। या मानते हो यह कि मेरा आतमा निज को करे । समयसार पद्यानुवाद तो यह तुम्हारा मानना मिथ्यास्वभावी जानना ।।३४१।। क्योंकि आतम नित्य है एवं असंख्य-प्रदेशमय । ना उसे इससे हीन अथवा अधिक करना शक्य है ।।३४२।। विस्तार से भी जीव का जीवत्व लोकप्रमाण है। ना होय हीनाधिक कभी कैसे करे जिय द्रव्य को ।।३४३।। यदी माने रहे ज्ञायकभाव ज्ञानस्वभाव में। तो भी आतम स्वयं अपने आतमा को ना करे ।।३४४।। यह आतमा हो नष्ट कुछ पर्याय से कुछ से नहीं। जो भोगता वह करे अथवा अन्य यह एकान्त ना ।।३४५।। यह आतमा हो नष्ट कुछ पर्याय से कुछ से नहीं। जो करे भोगे वही अथवा अन्य यह एकान्त ना ।।३४६।। जो करे, भोगे नहीं वह; सिद्धान्त यह जिस जीव का। वह जीव मिथ्यादृष्टि आर्हतमत विरोधी जानना ।।३४७।। कोई करे कोई भरे यह मान्यता जिस जीव की। वह जीव मिथ्यादृष्टि आर्हतमत विरोधी जानना ।।३४८।। ज्यों शिल्पि कर्म करे परन्तु कर्ममय वह ना बने। त्यों जीव कर्म करे परन्तु कर्ममय वह ना बने ।।३४९।। ज्यों शिल्पि करणों से करे पर करणमय वह ना बने । त्यों जीव करणों से करे पर करणमय वह ना बने ।।३५०।। ज्यों शिल्पि करणों को ग्रहे पर करणमय वह ना बने। त्यों जीव करणों को ग्रहे पर करणमय वह ना बने ।।३५१।। ज्यों शिल्पि भोगे कर्मफल तन्मय परन्तु होय ना। त्यों जीव भोगे कर्मफल तन्मय परन्तु होय ना ।।३५२।। संक्षेप में व्यवहार का यह कथन दर्शाया गया। अब सुनो परिणाम विषयक कथन जो परमार्थ का ।।३५३।। शिल्पी करे जो चेष्टा उससे अनन्य रहे सदा।

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