Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 46
________________ ८४ अध्यात्मनवनीत नवतत्त्व की संतति तज बस एक यह अपनाइये । इस आतमा का दर्श दर्शन आतमा ही चाहिए || ६ || ( दोहा ) शुद्धयाश्रित आतमा, प्रगटे ज्योतिस्वरूप । नवतत्त्वों में व्याप्त पर, तजे न एकस्वरूप ।।७।। ( रोला ) शुद्ध कनक ज्यों छुपा हुआ है बानभेद में । नवतत्त्वों में छुपी हुई त्यों आत्मज्योति है ।। एकरूप उद्योतमान पर से विविक्त वह । अरे भव्यजन ! पद-पद पर तुम उसको जानों ॥८ ॥ निक्षेपों के चक्र विलय नय नहीं जनमते । अर प्रमाण के भाव अस्त हो जाते भाई ।। अधिक कहें क्या द्वैतभाव भी भासित ना हो। शुद्ध आतमा का अनुभव होने पर भाई ||९॥ ( हरिगीत ) परभाव से जो भिन्न है अर आदि - अन्त विमुक्त है । संकल्प और विकल्प के जंजाल से भी मुक्त है । जो एक है परिपूर्ण है - ऐसे निजात्मस्वभाव को । करके प्रकाशित प्रगट होता है यहाँ यह शुद्धनय ।।१०।। पावें न जिसमें प्रतिष्ठा बस तैरते हैं बाह्य में । ये बद्धस्पृष्टादि सब जिसके न अन्तरभाव में ।। जो है प्रकाशित चतुर्दिक उस एक आत्मस्वभाव का। हे जगतजन ! तुम नित्य ही निर्मोह हो अनुभव करो ।। ११ । । ( रोला ) अपने बल से मोह नाशकर भूत भविष्यत् । वर्तमान के कर्मबंध से भिन्न लखे बुध ॥ समयसार कलश पद्यानुवाद तो निज अनुभवगम्य आतमा सदा विराजित । विरहित कर्मकलंकपंक से देव शाश्वत ।। १२ ।। शुद्धनयातम आतम की अनुभूति कही जो । वह ही है ज्ञानानुभूति तुम यही जानकर ।। आतम में आतम को निश्चल थापित करके । सर्व ओर से एक ज्ञानघन आतम निरखो ।।१३।। खारेपन से भरी हुई ज्यों नमक डली है। ज्ञानभाव से भरा हुआ त्यों निज आतम है ।। अन्तर-बाहर प्रगट तेजमय सहज अनाकुल । जो अखण्ड चिन्मय चिद्घन वह हमें प्राप्त हो ।। १४ ।। ( हरिगीत ) है कामना यदि सिद्धि की ना चित्त को भरमाइये । यह ज्ञान का घनपिण्ड चिन्मय आतमा अपनाइये ।। बस साध्य - साधक भाव से इस एक को ही ध्याइये । अर आप भी पर्याय में परमातमा बन जाइये ।। १५ ।। मेचक कहा है आतमा दृग ज्ञान अर आचरण से । यह एक निज परमातमा बस है अमेचक स्वयं से ।। परमाण से मेचक- अमेचक एक ही क्षण में अहा । यह अलौकिक मर्मभेदी वाक्य जिनवर ने कहा ।। १६ ।। आता है एक यद्यपि किन्तु नयव्यवहार से । त्रैरूपता धारण करे सद्ज्ञानदर्शनचरण से ।। बस इसलिए मेचक कहा है आतमा जिनमार्ग में । अर इसे जाने बिन जगतजन ना लगें सन्मार्ग में ।। १७ ।। आतमा मेचक कहा है यद्यपि व्यवहार से । किन्तु वह मेचक नहीं है अमेचक परमार्थ से ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112