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अध्यात्मनवनीत
नवतत्त्व की संतति तज बस एक यह अपनाइये । इस आतमा का दर्श दर्शन आतमा ही चाहिए || ६ || ( दोहा )
शुद्धयाश्रित आतमा, प्रगटे ज्योतिस्वरूप । नवतत्त्वों में व्याप्त पर, तजे न एकस्वरूप ।।७।। ( रोला )
शुद्ध कनक ज्यों छुपा हुआ है बानभेद में ।
नवतत्त्वों में छुपी हुई त्यों आत्मज्योति है ।। एकरूप उद्योतमान पर से विविक्त वह ।
अरे भव्यजन ! पद-पद पर तुम उसको जानों ॥८ ॥ निक्षेपों के चक्र विलय नय नहीं जनमते ।
अर प्रमाण के भाव अस्त हो जाते भाई ।। अधिक कहें क्या द्वैतभाव भी भासित ना हो।
शुद्ध आतमा का अनुभव होने पर भाई ||९॥ ( हरिगीत )
परभाव से जो भिन्न है अर आदि - अन्त विमुक्त है । संकल्प और विकल्प के जंजाल से भी मुक्त है । जो एक है परिपूर्ण है - ऐसे निजात्मस्वभाव को । करके प्रकाशित प्रगट होता है यहाँ यह शुद्धनय ।।१०।। पावें न जिसमें प्रतिष्ठा बस तैरते हैं बाह्य में । ये बद्धस्पृष्टादि सब जिसके न अन्तरभाव में ।। जो है प्रकाशित चतुर्दिक उस एक आत्मस्वभाव का। हे जगतजन ! तुम नित्य ही निर्मोह हो अनुभव करो ।। ११ । । ( रोला ) अपने बल से मोह नाशकर भूत भविष्यत् । वर्तमान के कर्मबंध से भिन्न लखे बुध ॥
समयसार कलश पद्यानुवाद
तो निज अनुभवगम्य आतमा सदा विराजित ।
विरहित कर्मकलंकपंक से देव शाश्वत ।। १२ ।। शुद्धनयातम आतम की अनुभूति कही जो ।
वह ही है ज्ञानानुभूति तुम यही जानकर ।। आतम में आतम को निश्चल थापित करके ।
सर्व ओर से एक ज्ञानघन आतम निरखो ।।१३।। खारेपन से भरी हुई ज्यों नमक डली है।
ज्ञानभाव से भरा हुआ त्यों निज आतम है ।। अन्तर-बाहर प्रगट तेजमय सहज अनाकुल ।
जो अखण्ड चिन्मय चिद्घन वह हमें प्राप्त हो ।। १४ ।। ( हरिगीत )
है कामना यदि सिद्धि की ना चित्त को भरमाइये । यह ज्ञान का घनपिण्ड चिन्मय आतमा अपनाइये ।। बस साध्य - साधक भाव से इस एक को ही ध्याइये । अर आप भी पर्याय में परमातमा बन जाइये ।। १५ ।। मेचक कहा है आतमा दृग ज्ञान अर आचरण से । यह एक निज परमातमा बस है अमेचक स्वयं से ।। परमाण से मेचक- अमेचक एक ही क्षण में अहा । यह अलौकिक मर्मभेदी वाक्य जिनवर ने कहा ।। १६ ।। आता है एक यद्यपि किन्तु नयव्यवहार से । त्रैरूपता धारण करे सद्ज्ञानदर्शनचरण से ।। बस इसलिए मेचक कहा है आतमा जिनमार्ग में । अर इसे जाने बिन जगतजन ना लगें सन्मार्ग में ।। १७ ।। आतमा मेचक कहा है यद्यपि व्यवहार से । किन्तु वह मेचक नहीं है अमेचक परमार्थ से ।।