________________
अध्यात्मनवनीत क्योंकि प्रायोगिक तथा वैनसिक स्वयं गुण जीव
क
.
इसलिए यह शुद्धातमा पर जीव और अजीव से। कुछ भी ग्रहण करता नहीं कुछ भी नहीं है छोड़ता ।।४०७।। ग्रहण कर मुनिलिंग या गृहिलिंग विविध प्रकार के। यह लिंग ही है मुक्तिमग यह कहें कतिपय मूढजन ।।४०८।। पर मुक्तिमग ना लिंग क्योंकि लिंग तज अरिहंत जिन। निज आत्म अरु सद्-ज्ञान-दर्शन-चरित का सेवन करें।।४०९।। बस इसलिए गृहिलिंग या मुनिलिंग ना मग मुक्ति का। जिनवर कहें बस ज्ञान-दर्शन-चरित ही मग मुक्ति का ।।४१०।। बस इसलिए अनगार या सागार लिंग को त्यागकर । जुड़ जा स्वयं के ज्ञान-दर्शन-चरणमय शिवपंथ में ।।४११।। मोक्षपथ में थाप निज को चेतकर निज ध्यान धर । निज में ही नित्य विहार कर परद्रव्य में न विहार कर ।।४१२।। ग्रहण कर मुनिलिंग या गृहिलिंग विविध प्रकार के। उनमें करें ममता न जाने वे समय के सार को।।४१३।। व्यवहार से ये लिंग दोनों कहे मुक्तीमार्ग में। परमार्थ से तो नहीं कोई लिंग मुक्तीमार्ग में ॥४१४।। पढ़ समयप्राभृत ग्रंथ यह तत्त्वार्थ से जो जानकर। निज अर्थ में एकाग्र हों वे परमसुख हो प्राप्त हों॥४१५।। पंचविंशति पंचदश श्री वीर के निर्वाण दिन । पूरा हुआ इस ग्रन्थ का शुभ पद्यमय अनुवाद यह ।।४१६।।
समयसार कलश पद्यानुवाद
जीवाजीवाधिकार
(दोहा) निज अनुभूति से प्रगट, चित्स्वभाव चिद्रूप। सकलज्ञेय ज्ञायक नमौं, समयसार सद्रूप ।।१।।
(सोरठा) देखे पर से भिन्न, अगणित गुणमय आतमा। अनेकान्तमयमूर्ति, सदा प्रकाशित ही रहे ।।२।
(रोला) यद्यपि मैं तो शुद्धमात्र चैतन्यमूर्ति हूँ।
फिर भी परिणति मलिन हुई है मोहोदय से ।। परमविशुद्धि को पावे वह परिणति मेरी।
समयसार की आत्मख्याति नामक व्याख्या से ।।३।। उभयनयों में जो विरोध है उसके नाशक ।
स्याद्वादमय जिनवचनों में जो रमते हैं।। मोह वमन कर अनय-अखण्डित परमज्योतिमय।
स्वयं शीघ्र ही समयसार में वे रमते हैं।।४।। ज्यों दुर्बल को लाठी है हस्तावलम्ब त्यों।
उपयोगी व्यवहार सभी को अपरमपद में ।। पर उपयोगी नहीं रंच भी उन लोगों को। जो रमते हैं परम-अर्थ चिन्मय चिद्घन में ।।५।।
(हरिगीत) नियत है जो स्वयं के एकत्व में नय शुद्ध से। वह ज्ञान का घनपिण्ड पूरण पृथक् है परद्रव्य से।।