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________________ ८० अध्यात्मनवनीत यह आतमा भी बुद्धिगत सुगुणों के पीछे ना भगे ।। ३८० ।। शुभ या अशुभ द्रव्य ना कहे तुम हमें जानो आत्मन् । यह आतमा भी बुद्धिगत द्रव्यों के पीछे ना भगे । । ३८१ ।। यह जानकर भी मूढ़जन ना ग्रहें उपशमभाव को । मंगलमती को ना ग्रहें पर के ग्रहण का मन करें ।। ३८२ ।। शुभ-अशुभ कर्म अनेकविध हैं जो किए गतकाल में । उनसे निवर्तन जो करे वह आतमा प्रतिक्रमण है ।।३८३ ।। बंधेंगे जिस भाव से शुभ-अशुभ कर्म भविष्य में । उससे निवर्तन जो करे वह जीव है आलोचना । । ३८४ । । शुभ-अशुभ भाव अनेकविध हो रहे सम्प्रति काल में । इस दोष का ज्ञाता रहे वह जीव है आलोचना ।। ३८५ ।। जो करें नित प्रतिक्रमण एवं करें नित आलोचना । जो करें प्रत्याख्यान नित चारित्र हैं वे आतमा ।। ३८६ ।। जो कर्मफल को वेदते निजरूप माने करमफल । हैं बाँधते वे जीव दुख के बीज वसुविध करम को ।। ३८७ । । जो कर्मफल को वेदते माने करमफल मैं किया । हैं बाँधते वे जीव दुख के बीज वसुविध करम को ।। ३८८ ।। जो कर्मफल को वेदते हों सुखी अथवा दुखी हों । हैं बाँधते वे जीव दुख के बीज वसुविध करम को ।। ३८९ ।। शास्त्र ज्ञान नहीं है क्योंकि शास्त्र कुछ जाने नहीं । बस इसलिए ही शास्त्र अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।। ३९० ।। शब्द ज्ञान नहीं है क्योंकि शब्द कुछ जाने नहीं । बस इसलिए ही शब्द अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।। ३९१ ।। रूप ज्ञान नहीं है क्योंकि रूप कुछ जाने नहीं । बस इसलिए ही रूप अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहे । । ३९२ ।। वर्ण ज्ञान नहीं है क्योंकि वर्ण कुछ जाने नहीं । समयसार पद्यानुवाद ८१ बस इसलिए ही वर्ण अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।। ३९३ ।। गंध ज्ञान नहीं है क्योंकि गंध कुछ जाने नहीं । बस इसलिए ही गंध अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।। ३९४ ।। रस नहीं है ज्ञान क्योंकि कुछ भी रस जाने नहीं । बस इसलिए ही अन्य रस अरु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।। ३९५ ।। स्पर्श ज्ञान नहीं है क्योंकि स्पर्श कुछ जाने नहीं । बस इसलिए स्पर्श अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।। ३९६ ।। कर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि कर्म कुछ जाने नहीं । बस इसलिए ही कर्म अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।। ३९७ ।। धर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि धर्म कुछ जाने नहीं । बस इसलिए ही धर्म अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।। ३९८ । । अधर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि अधर्म कुछ जाने नहीं । बस इसलिए ही अधर्म अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।। ३९९ ।। काल ज्ञान नहीं है क्योंकि काल कुछ जाने नहीं बस इसलिए ही काल अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें । । ४०० ।। आकाश ज्ञान नहीं है क्योंकि आकाश कुछ जाने नहीं बस इसलिए आकाश अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ॥ ४०१ ॥ अध्यवसान ज्ञान नहीं है क्योंकि वे अचेतन जिन कहे इसलिए अध्यवसान अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।। ४०२ ।। नित्य जाने जीव बस इसलिए ज्ञायकभाव है । है ज्ञान अव्यतिरिक्त ज्ञायकभाव से यह जानना ।। ४०३ ।। ज्ञान ही समदृष्टि संयम सूत्र पूर्वगतांग भी । सधर्म और अधर्म दीक्षा ज्ञान हैं - यह बुध कहें ।। ४०४ । । आहार पुद्गलमयी है बस इसलिए है मूर्तिक । ना अहारक इसलिए ही यह अमूर्तिक आतमा । । ४०५ ।। परद्रव्य का ना ग्रहण हो ना त्याग हो इस जीव के ।
SR No.008335
Book TitleAdhyatma Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Ritual, & Vidhi
File Size333 KB
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