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अध्यात्मनवनीत जीव भी जो करे वह उससे अनन्य रहे सदा ।।३५४।। चेष्टा में मगन शिल्पी नित्य ज्यों दुःख भोगता। यह चेष्टा रत जीव भी त्यों नित्य ही दुःख भोगता ।।३५५।। ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है। ज्ञायक नहीं त्यों अन्य का ज्ञायकतो बस ज्ञायक ही है।।३५६।। ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है। दर्शक नहीं त्यों अन्य का दर्शक तो बस दर्शक ही है ।।३५७।। ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है। संयत नहीं त्यों अन्य का संयत तो बस संयत ही है।३५८।। ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है। दर्शन नहीं त्यों अन्य का दर्शन तो बस दर्शन ही है ।।३५९।। यह ज्ञान-दर्शन-चरण विषयक कथन है परमार्थ का। अब सुनो अतिसंक्षेप में तुम कथन नय व्यवहार का ।।३६०।। परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से । बस त्योंहि ज्ञाता जानता परद्रव्य को निजभाव से ।।३६१।। परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से। बस त्योंहि दृष्टा देखता परद्रव्य को निजभाव से ।।३६२।। परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से। बस त्योंहि ज्ञाता त्यागता परद्रव्य को निजभाव से ।।३६३।। परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से। सुदृष्टि त्यों ही श्रद्धता परद्रव्य को निजभाव से ।।३६४।। यह ज्ञान-दर्शन-चरण विषयक कथन है व्यवहार का । अर अन्य पर्यय विषय में भी इसतरह ही जानना ।।३६५।। ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन विषय में। इसलिए यह आतमा क्या कर सके उस विषय में ।।३६६।। ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन कर्म में।
समयसार पद्यानुवाद
इसलिए यह आतमा क्या कर सके उस कर्म में ।।३६७ ।। ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन काय में। इसलिए यह आतमा क्या कर सके उस काय में ।।३६८।। सद्ज्ञान का सम्यक्त्व का उपघात चारित्र का कहा। अन्य पुद्गल द्रव्य का ना घात किंचित् भी कहा ।।३६९।। जीव के जो गुण कहे वे हैं नहीं परद्रव्य में। बस इसलिए सद्वृष्टि को है राग विषयों में नहीं।।३७०।। अनन्य हैं परिणाम जिय के राग-द्वेष-विमोह ये। बस इसलिए शब्दादि विषयों में नहीं रागादि ये ।।३७१।। गुणोत्पादन द्रव्य का कोई अन्य द्रव्य नहीं करे। क्योंकि सब ही द्रव्य निज-निज भाव से उत्पन्न हों।।३७२।। स्तवन निन्दा रूप परिणत पुद्गलों को श्रवण कर। मुझ को कहे यह मान तोष-रु-रोष अज्ञानी करें।।३७३।। शब्दत्व में परिणमित पुद्गल द्रव्य का गुण अन्य है। इसलिए तुम से ना कहा तुष-रुष्ट होते अबुध क्यों?।।३७४।। शुभ या अशभ ये शब्द तुझसे ना कहें कि हमें सुन । अर आतमा भी कर्णगत शब्दों के पीछे ना भगे।।३७५।। शुभ या अशुभ यह रूप तुझ से ना कहे कि हमें लख। यह आतमा भी चक्षुगत वर्षों के पीछे ना भगे ।।३७६।। शुभ या अशुभ यह गंध तुम सूंघो मुझे यह ना कहे। यह आतमा भी घ्राणगत गंधों के पीछे ना भगे ।।३७७।। शुभ या अशुभ यह सरस रस यह ना कहे कि हमें चख । यह आतमा भी जीभगत स्वादों के पीछे ना भगे ।।३७८ ।। शुभ या अशुभ स्पर्श तुझसे ना कहें कि हमें छू । यह आतमा भी कायगत स्पर्शों के पीछे ना भगे ।।३७९।। शुभ या अशुभ गुण ना कहे तुम हमें जानो आत्मन् ।