Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 47
________________ अध्यात्मनवनीत समयसार कलश पद्यानुवाद है प्रगट ज्ञायक ज्योतिमय वह एक है भूतार्थ से। है शुद्ध एकाकार पर से भिन्न है परमार्थ से ।।१८।। मेचक अमेचक आतमा के चिन्तवन से लाभ क्या। बस करो अब तो इन विकल्पों से तुम्हें है साध्य क्या।। हो साध्यसिद्धि एक बस सद्ज्ञानदर्शनचरण से। पथ अन्य कोई है नहीं जिससे बचे संसरण से ।।१९।। त्रैरूपता को प्राप्त है पर ना तजे एकत्व को। यह शुद्ध निर्मल आत्मज्योति प्राप्त है जो स्वयं को ।। अनुभव करें हम सतत ही चैतन्यमय उस ज्योति का। क्योंकि उसके बिना जग में साध्य की हो सिद्धि ना ।।२०।। (रोला) जैसे भी हो स्वत: अन्य के उपदेशों से। भेदज्ञानमूलक अविचल अनुभूति हुई हो।। ज्ञेयों के अगणित प्रतिबिम्बों से वे ज्ञानी । अरे निरन्तर दर्पणवत् रहते अविकारी ।।२१।। (हरिगीत) आजन्म के इस मोह को हे जगतजन तुम छोड़ दो। अर रसिकजन को जोरुचे उस ज्ञान के रस कोचखो।। तादात्म्य पर के साथ जिनका कभी भी होता नहीं। अर स्वयं का ही स्वयं से अन्यत्व भी होता नहीं।।२२।। निजतत्त्व का कौतूहली अर पड़ौसी बन देह का। हे आत्मन् ! जैसे बने अनुभव करो निजतत्त्व का।। जब भिन्न पर से सुशोभित लख स्वयंको तब शीघ्र ही। तुम छोड़ दोगे देह से एकत्व के इस मोह को ।।२३।। लोकमानस रूप से रवितेज अपने तेज से । जो हरें निर्मल करें दशदिश कान्तिमय तनतेज से ।। जो दिव्यध्वनि से भव्यजन के कान में अमृत भरें। उन सहस अठ लक्षण सहित जिन-सूरि को वंदन करें।।२४।। प्राकार से कवलित किया जिस नगर ने आकाश को। अर गोल गहरी खाई से है पी लिया पाताल को।। सब भूमितल को ग्रस लिया उपवनों के सौन्दर्य से। अद्भुत् अनूपम अलग ही है वह नगर संसार से ।।२५।। गंभीर सागर के समान महान मानस मंग हैं। नित्य निर्मल निर्विकारी सुव्यवस्थित अंग हैं।। सहज ही अद्भुत् अनूपम अपूरव लावण्य है। क्षोभ विरहित अर अचल जयवंत जिनवर अंग हैं ।।२६ ।। इस आतमा अर देह का एकत्व बस व्यवहार से। यह शरीराश्रित स्तवन भी इसलिए व्यवहार से ।। परमार्थ से स्तवन है चिद्भाव का ही अनुभवन । परमार्थ से तो भिन्न ही हैं देह अर चैतन्यघन ।।२७।। इस आतमा अर देह के एकत्व को नय युक्ति से। निर्मूल ही जब कर दिया तत्त्वज्ञ मुनिवरदेव ने ।। यदि भावना है भव्य तो फिर क्यों नहीं सद्बोध हो। भावोल्लसित आत्मार्थियों को नियम सेसद्बोध हो।।२८।। परभाव के परित्याग की दृष्टि पुरानी न पड़े। अर जबतलक हे आत्मन् वृत्ति न हो अतिबलवती ।। व्यतिरिक्त जो परभाव से वह आतमा अतिशीघ्र ही। अनुभूति में उतरा अरे चैतन्यमय वह स्वयं ही ।।२९।। सब ओर से चैतन्यमय निजभाव से भरपूर हूँ। मैं स्वयं ही इस लोक में निजभाव का अनुभव करूँ।।

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