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अध्यात्मनवनीत पर निरपराधी आतमा भयरहित है नि:शंक है ।।३०३।। साधित अराधित राध अर संसिद्धि सिद्धि एक है। बस राध से जो रहित है वह आतमा अपराध है।।३०४।। अपराध है जो आतमा वह आतमा नि:शंक है। 'मैं शुद्ध हूँ' - यह जानता आराधना में रत रहे ।।३०५।। प्रतिक्रमण अर प्रतिसरण परिहार निवृत्ति धारणा। निन्दा गरहा और शुद्धि अष्टविध विषकुम्भ हैं।।३०६।। अप्रतिक्रमण अप्रतिसरण अर अपरिहार अधारणा। अनिन्दा अनिवृत्त्यशुद्धि अगर्दा अमृतकुंभ है।।३०७।।
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार है जगत में कटकादि गहनों से सुवर्ण अनन्य ज्यों। जिन गुणों में जो द्रव्य उपजे उनसे जान अनन्य त्यों ।।३०८।। जीव और अजीव के परिणाम जो जिनवर कहे। वे जीव और अजीव जानों अनन्य उन परिणाम से ।।३०९।। ना करे पैदा किसी को बस इसलिए कारण नहीं। किसी से ना हो अत: यह आतमा कारज नहीं।।३१०।। कर्म आश्रय होय कर्ता कर्ता आश्रय कर्म भी। यह नियम अन्यप्रकार से सिद्धि न कर्ता-कर्म की ।।३११।। उत्पन्न होता नष्ट होता जीव प्रकृति निमित्त से। उत्पन्न होती नष्ट होती प्रकृति जीव निमित्त से ।।३१२।। यों परस्पर निमित्त से हो बंध जीव रु कर्म का। बस इसतरह ही उभय से संसार की उत्पत्ति हो ।।३१३।। जबतक न छोड़े आतमा प्रकृति निमित्तक परिणमन । तबतक रहे अज्ञानि मिथ्यादृष्टि एवं असंयत ।।३१४।। जब अनन्ता कर्म का फल छोड़ दे यह आतमा।
समयसार पद्यानुवाद तब मुक्त होता बंध से सदृष्टि ज्ञानी संयमी ।।३१५।। प्रकृतिस्वभावस्थित अज्ञजन ही नित्य भोगें कर्मफल । पर नहीं भोगें विज्ञजन वे जानते हैं कर्मफल ।।३१६।। गुड़-दूध पीता हुआ भी निर्विष न होता सर्प ज्यों। त्यों भलीभाँति शास्त्र पढ़कर अभवि प्रकृति न तजे ।।३१७।। निर्वेद से सम्पन्न ज्ञानी मधुर-कड़वे नेक विध । वे जानते हैं कर्मफल को हैं अवेदक इसलिए ।।३१८।। ज्ञानी करे-भोगे नहीं बस सभी विध-विध करम को। वह जानता है कर्मफल बंध पुण्य एवं पाप को ।।३१९।। ज्यों दृष्टि त्यों ही ज्ञान जग में है अकारक अवेदक। जाने करम के बंध उदय मोक्ष एवं निर्जरा ।।३२०।। जगत-जन यों कहें विष्णु करे सुर-नरलोक को। रक्षा करूँ षट्काय की यदि श्रमण भी माने यही ।।३२१।। तो ना श्रमण अर लोक के सिद्धान्त में अन्तर रहा। सम मान्यता में विष्णु एवं आतमा कर्ता रहा ।।३२२।। इसतरह कर्तृत्व से नित ग्रसित लोक रु श्रमण को। मोक्ष दोनों को दिखाई नहीं देता है मुझे ।।३२३।। अतत्वविद् व्यवहार ग्रह परद्रव्य को अपना कहें। पर तत्वविद् जाने कि पर परमाणु भी मेरा नहीं।।३२४।। ग्राम जनपद राष्ट्र मेरा कहे कोई जिसतरह । किन्तु वे उसके नहीं हैं मोह से ही वह कहे ।।३२५।। इसतरह जो 'परद्रव्य मेरा' - जानकर अपना करे। संशय नहीं वह ज्ञानि मिथ्यादृष्टि ही है जानना ।।३२६।। 'मेरे नहीं ये' - जानकर तत्त्वज्ञ ऐसा मानते । है अज्ञता कर्तृत्वबुद्धि लोक एवं श्रमण की ।।३२७।। मिथ्यात्व नामक प्रकृति मिथ्यात्वी करे यदि जीव को।