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समयसार पद्यानुवाद
अध्यात्मनवनीत मैं सुखी करता दुःखी करता हूँ जगत में अन्य को। यह मान्यता अज्ञान है क्यों ज्ञानियों को मान्य हो ?||२५३।। हैं सुखी होते दुखी होते कर्म से सब जीव जब । तूकर्म दे सकता न जब सुख-दुःख दे किस भाँति तब ।।२५४।। हैं सुखी होते दुखी होते कर्म से सब जीव जब । दुष्कर्म दे सकते न जब दुःख-दर्द दें किस भाँति तब? ।।२५५।। हैं सुखी होते दुखी होते कर्म से सब जीव जब । सत्कर्मदेसकतेन जब सुख-शांति देंकिस भाँति तब? ॥२५६।। जो मरें या जो दुखी हों वे सब करम के उदय से। 'मैं दुखी करता-मारता' - यह बात क्यों मिथ्या न
जो ना मरे या दुखी ना हो सब करम के उदय से। 'नादुखी करता मारता' - यह बात क्यों मिथ्या न हो।।२५८।। मैं सुखी करता दुखी करता हूँ जगत में अन्य को। यह मान्यता ही मूढमति शुभ-अशुभ का बंधन करे ।।२५९।। 'मैं सुखी करता दुखी करता' यही अध्यवसान सब । पुण्य एवं पाप के बंधक कहे हैं सूत्र में ।।२६०।। 'मैं मारता मैं बचाता हूँ' यही अध्यवसान सब । पाप एवं पुण्य के बंधक कहे हैं सूत्र में ।।२६१।। मारो न मारो जीव को हो बंध अध्यवसान से। यह बंध का संक्षेप है तुम जान लो परमार्थ से ।।२६२।। इस ही तरह चोरी असत्य कुशील एवं ग्रंथ में। जो हुए अध्यवसान हों वे पाप का बंधन करें ।।२६३।। इस ही तरह अचौर्य सत्य सुशील और अग्रन्थ में जो हुए अध्यवसान हों वे पुण्य का बंधन करें।।२६४।। ये भाव अध्यवसान होते वस्तु के अवलम्ब से।
परवस्तु से ना बंध हो हो बंध अध्यवसान से ।।२६५।। मैं सुखी करता दुखी करता बाँधता या छोड़ता। यह मान्यता है मूढ़मति मिथ्या निरर्थक जानना ।।२६६।। जिय बँधे अध्यवसान से शिवपथ-गमन से छूटते । गहराई से सोचो जरा पर में तुम्हारा क्या चले ? ॥२६७।। यह जीव अध्यवसान से तिर्यंच नारक देव नर। अर पुण्य एवं पाप सब पर्यायमय निज को करे ।।२६८।। वह जीव और अजीव एवं धर्म और अधर्ममय । अर लोक और अलोक इन सबमय स्वयं निज को करे ।।२६९।। ये और इनसे अन्य अध्यवसान जिनके हैं नहीं। वे मुनीजन शुभ-अशुभ कर्मों से न कबहूँ लिप्त हों ।।२७०।। व्यवसाय बुद्धी मती अध्यवसान अर विज्ञान भी। एकार्थवाचक हैं सभी ये भाव चित परिणाम भी ।।२७१।। इस तरह ही परमार्थ से कर नास्ति इस व्यवहार की। निश्चयनयाश्रित श्रमणजन प्राप्ती करें निर्वाण की ।।२७२।। व्रत-समिति-गुप्ति-शील-तपआदिकसभीजिनवरकथित। करते हुए भी अभव्यजन अज्ञानि मिथ्यादृष्टि हैं ।।२७३।। मोक्ष के श्रद्धान बिन सब शास्त्र पढ़कर भी अभवि। को पाठ गुण करता नहीं है ज्ञान के श्रद्धान बिन ।।२७४।। अभव्यजन श्रद्धा करें रुचि धरें अर रच-पच रहें। जो धर्म भोग निमित्त हैं न कर्मक्षय में निमित्त जो ।।२७५।। जीवादि का श्रद्धान दर्शन शास्त्र-अध्ययन ज्ञान है। चारित्र है षट्काय रक्षा - यह कथन व्यवहार है ।।२७६।। निज आतमा ही ज्ञान है दर्शन चरित भी आतमा । अर योग संवर और प्रत्याख्यान भी है आतमा ।।२७७।। ज्यों लालिमामय स्वयं परिणत नहीं होता फटिकमणि ।