Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 38
________________ अध्यात्मनवनीत निःशंक हों सद्वृष्टि बस इसलिए ही निर्भय रहें। वे सप्त भय से मुक्त हैं इसलिए ही नि:शंक हैं।।२२८।। जो कर्मबंधन मोह कर्ता चार पाये छेदते । वे आतमा निःशंक सम्यग्दृष्टि हैं - यह जानना ।।२२९।। सब धर्म एवं कर्मफल की ना करें आकांक्षा। वे आतमा निकांक्ष सम्यग्दृष्टि हैं - यह जानना ।।२३०।। जो नहीं करते जुगुप्सा सब वस्तुधर्मों के प्रति । वे आतमा ही निर्जुगुप्सक समकिती हैं जानना ।।२३१।। सर्व भावों के प्रति सदृष्टि हैं असंमूढ़ हैं। अमूढदृष्टि समकिती वे आतमा ही जानना ।।२३२।। जो सिद्धभक्ति युक्त हैं सब धर्म का गोपन करें। वे आतमा गोपनकरी सद्वृष्टि हैं यह जानना ।।२३३।। उन्मार्गगत निजभाव को लावें स्वयं सन्मार्ग में। वे आतमा थितिकरण सम्यग्दृष्टि हैं यह जानना ।।२३४।। मुक्तिमगगत साधुत्रय प्रति रखें वत्सल भाव जो। वे आतमा वत्सली सम्यग्दृष्टि हैं यह जानना ।।२३५।। सद्ज्ञानरथ आरूढ़ हो जो भ्रमे मनरथ मार्ग में। वे प्रभावक जिनमार्ग के सदृष्टि उनको जानना ।।२३६।। बंध अधिकार ज्यों तेल मर्दन कर पुरुष रेणु बहुल स्थान में। व्यायाम करता शस्त्र से बहुविध बहुत उत्साह से ।।२३७।। तरु ताड़ कदली बांस आदिक वनस्पति छेदन करे। सचित्त और अचित्त द्रव्यों का बहुत भेदन करे ।।२३८।। बहुविध बहुत उपकरण से उपघात करते पुरुष को। परमार्थ से चिन्तन करो रजबंध किस कारण हुआ।।२३९।। समयसार पद्यानुवाद चिकनाई ही रजबंध का कारण कहा जिनराज ने। पर कायचेष्टादिक नहीं यह जान लो परमार्थ से ।।२४०।। बहुभाँति चेष्टारत तथा रागादि को करते हुए। सबकर्मरज से लिप्त होते हैं जगत में अज्ञजन ।।२४१।। ज्यों तेल मर्दन रहित जन रेणू बहुल स्थान में। व्यायाम करता शस्त्र से बहुविध बहुत उत्साह से ।।२४२।। तरु ताल कदली बाँस आदिक वनस्पति छेदन करे। सचित्त और अचित्त द्रव्यों का बहुत भेदन करे ।।२४३।। बहुविध बहुत उपकरण से उपघात करते पुरुष को। परमार्थ से चिन्तन करो रजबंध क्यों कर ना हुआ ? ||२४४।। चिकनाई ही रजबंध का कारण कहा जिनराज ने। पर काय चेष्टादिक नहीं यह जान लो परमार्थ से ।।२४५।। बहुभाँति चेष्टारत तथा रागादि ना करते हुए। बस कर्मरज से लिप्त होते नहीं जग में विज्ञजन ।।२४६।। मैं मारता हूँ अन्य को या मुझे मारें अन्यजन । यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन! ।।२४७।। निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही। तुम मार कैसे सकोगे जब आयु दे सकते नहीं।।२४८।। निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही। वे मरण कैसे करें तब जब आयु हर सकते नहीं ।।२४९।। मैं हूँ बचाता अन्य को मुझको बचावे अन्यजन । यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन!।।२५०।। सब आयु से जीवित रहें - यह बात जिनवर ने कही। जीवित रखोगे किसतरह जब आयु दे सकते नहीं ।।२५१।। सब आयु से जीवित रहें यह बात जिनवर ने कही। कैसे बचावें वे तुझे जब आयु दे सकते नहीं?।।२५२।।

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