Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 34
________________ अध्यात्मनवनीत ज्ञानमय परिणाम से परिणाम हों सब ज्ञानमय । बस इसलिए सद्ज्ञानियों के भाव हों सद्ज्ञानमय ।।१२८।। अज्ञानमय परिणाम से परिणाम हों अज्ञानमय । बस इसलिए अज्ञानियों के भाव हों अज्ञानमय ।।१२९।। स्वर्णनिर्मित कुण्डलादि स्वर्णमय ही हों सदा। लोहनिर्मित कटक आदि लोहमय ही हों सदा ।।१३०।। इस ही तरह अज्ञानियों के भाव हों अज्ञानमय । इस ही तरह सब भाव हों सद्ज्ञानियों के ज्ञानमय ।।१३१।। निजतत्त्व का अज्ञान ही बस उदय है अज्ञान का। निजतत्त्व का अश्रद्धान ही बस उदय है मिथ्यात्व का ।।१३२।। अविरमण का सद्भाव ही बस असंयम का उदय है। उपयोग की यह कलुषिता ही कषायों का उदय है ।।१३३।। शुभ अशुभ चेष्टा में तथा निवृत्ति में या प्रवृत्ति में। जो चित्त का उत्साह है वह ही उदय है योग का ।।१३४।। इनके निमित्त के योग से जड़ वर्गणाएँ कर्म की। परिणमित हों ज्ञान-आवरणादि बसुविध कर्म में ।।१३५।। इस तरह बसुविध कर्म से आबद्ध जिय जब हो तभी। अज्ञानमय निजभाव का हो हेतु जिय जिनवर कही ।।१३६।। यदि कर्ममय परिणाम पुद्गल द्रव्य का जिय साथ हो। तो जीव भी जड़कर्मवत् कर्मत्व को ही प्राप्त हो ।।१३७।। किन्तु जब जियभाव बिन ही एक पुद्गल द्रव्य का। यह कर्ममय परिणाम है तो जीव जड़मय क्यों बने? ||१३८।। इस जीव के रागादि पुद्गलकर्म में भी हों यदी। तो जीववत जड़कर्म भी रागादिमय हो जावेंगे ।।१३९।। किन्तु जब जड़कर्म बिन ही जीव के रागादि हों। तब कर्मजड़ पुद्गलमयी रागादिमय कैसे बनें ।।१४०।। समयसार पद्यानुवाद कर्म से आबद्ध जिय यह कथन है व्यवहार का। पर कर्म से ना बद्ध जिय यह कथन है परमार्थ का ।।१४१ ।। अबद्ध है या बद्ध है जिय यह सभी नयपक्ष हैं। नयपक्ष से अतिक्रान्त जो वह ही समय का सार है।।१४२।। दोनों नयों को जानते पर ना ग्रहे नयपक्ष को। नयपक्ष से परिहीन पर निज समय से प्रतिबद्ध वे ।।१४३।। विरहित सभी नयपक्ष से जो सो समय का सार है। है वही सम्यग्ज्ञान एवं वही समकित सार है।।१४४।। पुण्य-पाप अधिकार सुशील है शुभ कर्म और अशुभ करम कुशील है। संसार के हैं हेतु वे कैसे कहें कि सुशील हैं ? ||१४५।। ज्यों लोह बेड़ी बाँधती त्यों स्वर्ण की भी बाँधती। इस भाँति ही शुभ-अशुभ दोनों कर्म बेड़ी बांधती ।।१४६।। दुःशील के संसर्ग से स्वाधीनता का नाश हो। दुःशील से संसर्ग एवं राग को तुम मत करो ।।१४७।। जगतजन जिसतरह कुत्सितशील जन को जानकर। उस पुरुष से संसर्ग एवं राग करना त्यागते ।।१४८।। बस उसतरह ही कर्म कुत्सित शील हैं - यह जानकर । निजभावरत जन कर्म से संसर्ग को हैं त्यागते ।।१४९।। विरक्त शिव रमणी वरें अनुरक्त बांधे कर्म को। जिनदेव का उपदेश यह मत कर्म में अनुरक्त हो ।।१५०।। परमार्थ है है ज्ञानमय है समय शुध मुनि केवली। इसमें रहें थिर अचल जो निर्वाण पावें वे मुनी ।।१५१।। परमार्थ से हों दूर पर तप करें व्रत धारण करें। सब बालतप हैं बालव्रत वृषभादि सब जिनवर कहें।।१५२।।

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