________________
अध्यात्मनवनीत परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें। बहुभाँति पुद्गल कर्म को ज्ञानी पुरुष जाना करें ।।७६।। परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें । बहुभाँति निज परिणाम सब ज्ञानी पुरुष जाना करें ।।७७।। परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें। पुद्गल करम का नंतफल ज्ञानी पुरुष जाना करें ।।७८।। परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें। इस ही तरह पुद्गल दरव निजभाव से ही परिणमें ।।७९।। जीव के परिणाम से जड़कर्म पुद्गल परिणमें। पुद्गल करम के निमित्त से यह आतमा भी परिणमें ।।८।। आतम करे ना कर्मगुण ना कर्म आतमगुण करे। पर परस्पर परिणमन में दोनों परस्पर निमित्त हैं।।८१।। बस इसलिए यह आतमा निजभाव का कर्ता कहा। अन्य सब पुद्गलकरमकृत भाव का कर्ता नहीं।।८२।। हे भव्यजन ! तुम जान लो परमार्थ से यह आतमा। निजभाव को करता तथा निजभाव को ही भोगता ।।८३।। अनेक विध पुद्गल करम को करे भोगे आतमा। व्यवहारनय का कथन है यह जान लो भव्यात्मा ।।८४।। पुद्गल करम को करे भोगे जगत में यदि आतमा। द्विक्रिया अव्यतिरिक्त हों संमत न जो जिनधर्म में ।।८५।। यदि आतमा जड़भाव चेतनभाव दोनों को करे। तो आतमा द्विक्रियावादी मिथ्यादृष्टि अवतरे ।।८६।। मिथ्यात्व-अविरति-जोग-मोहाज्ञान और कषाय हैं। ये सभी जीवाजीव हैं ये सभी द्विविधप्रकार हैं।।८७।। मिथ्यात्व आदि अजीव जो वे सभी पुद्गल कर्म हैं। मिथ्यात्व आदि जीव हैं जो वे सभी उपयोग हैं।।८८।।
समयसार पद्यानुवाद
मोहयुत उपयोग के परिणाम तीन अनादि से। जानों उन्हें मिथ्यात्व अविरतभाव अर अज्ञान ये ।।८९।। यद्यपी उपयोग तो नित ही निरंजन शुद्ध है। जिसरूप परिणत हो त्रिविध वह उसी का कर्ता बने ।।१०।। आतम करे जिस भाव को उस भाव का कर्ता बने । बस स्वयं ही उस समय पुद्गल कर्मभावे परिणमें ।।११।। पर को करे निजरूप जो पररूप जो निज को करे। अज्ञानमय वह आतमा पर करम का कर्ता बने ।।१२।। पररूप ना निज को करे पर को करे निज रूप ना। अकर्ता रहे पर करम का सद्ज्ञानमय वह आतमा ।।१३।। त्रिविध यह उपयोग जब 'मैं क्रोध हूँ' इम परिणमें। तब जीव उस उपयोगमय परिणाम का कर्ता बने ।।१४।। त्रिविध यह उपयोग जब 'मैं धर्म हूँ' इम परिणमें। तब जीव उस उपयोगमय परिणाम का कर्ता बने ।।१५।। इसतरह यह मंदबुद्धि स्वयं के अज्ञान से। निज द्रव्य को पर करे अरु परद्रव्य को अपना करे ।।९६।। बस इसतरह कर्ता कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा। जो जानते यह तथ्य वे छोड़ें सकल कर्तापना ।।९७।। व्यवहार से यह आतमा घटपटरथादिक द्रव्य का। इन्द्रियों का कर्म का नोकर्म का कर्ता कहा ।।९८।। परद्रव्यमय हो जाय यदि पर द्रव्य में कुछ भी करे। परद्रव्यमय होता नहीं बस इसलिए कर्ता नहीं ।।९९।। ना घट करे ना पट करे ना अन्य द्रव्यों को करे। कर्ता कहा तरूपपरिणत योग अर उपयोग का ।।१०।। ज्ञानावरण आदिक जु पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं। उनको करे ना आतमा जो जानते वे ज्ञानि हैं।।१०१।।