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समयसार पद्यानुवाद
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अध्यात्मनवनीत व्रत नियम सब धारण करें तप शील भी पालन करें। पर दूर हों परमार्थ से ना मुक्ति की प्राप्ति करें ।।१५३।। परमार्थ से हैं बाह्य वे जो मोक्षमग नहीं जानते। अज्ञान से भवगमन-कारण पुण्य हो हैं चाहते ।।१५४।। जीवादि का श्रद्धान सम्यक ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। रागादि का परिहार चारित - यही मुक्तिमार्ग है।।१५५।। विद्वानगण भूतार्थ तज वर्तन करें व्यवहार में। पर कर्मक्षय तो कहा है परमार्थ-आश्रित संत के ।।१५६।। ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से । सम्यक्त्व भी त्यों नष्ट हो मिथ्यात्व मल के लेप से ।।१५७।। ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से। सद्ज्ञान भी त्यों नष्ट हो अज्ञानमल के लेप से ।।१५८।। ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से। चारित्र भी त्यों नष्ट होय कषायमल के लेप से ।।१५९।। सर्वदर्शी सर्वज्ञानी कर्मरज आछन्न हो। संसार को सम्प्राप्त कर सबको न जाने सर्वतः ।।१६०।। सम्यक्त्व प्रतिबन्धक करम मिथ्यात्व जिनवर ने कहा। उसके उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है सदा ।।१६१।। सद्ज्ञान प्रतिबन्धक करम अज्ञान जिनवर ने कहा। उसके उदय से जीव अज्ञानी बने - यह जानना ।।१६२।। चारित्र प्रतिबन्धक करम जिन ने कषायों को कहा। उसके उदय से जीव चारित्रहीन हो यह जानना ।।१६३।।
आस्रव अधिकार मिथ्यात्व अविरति योग और कषाय चेतन-अचेतन । चितरूप जो हैं वे सभी चैतन्य के परिणाम हैं ।।१६४।।
ज्ञानावरण आदिक अचेतन कर्म के कारण बने। उनका भी तो कारण बने रागादि कारक जीव यह ।।१६५।। है नहीं आस्रव बंध क्योंकि आस्रवों का रोध है। सदृष्टि उनको जानता जो कर्म पूर्वनिबद्ध हैं ।।१६६।। जीवकृत रागादि ही बंधक कहे हैं सूत्र में। रागादि से जो रहित वह ज्ञायक अबंधक जानना ।।१६७।। पक्वफल जिसतरह गिरकर नहीं जुड़ता वृक्ष से बस उसतरह ही कर्म खिरकर नहीं जुड़ते जीव से ।।१६८।। जो बंधे थे भूत में वे कर्म पृथ्वीपिण्ड सम । वे सभी कर्म शरीर से हैं बद्ध सम्यग्ज्ञानि के ।।१६९।। प्रतिसमय विध-विध कर्म को सब ज्ञान-दर्शन गुणों से। बाँधे चतुर्विध प्रत्यय ही ज्ञानी अबंधक इसलिए ।।१७०।। ज्ञानगुण का परिणमन जब हो जघन्यहि रूप में। अन्यत्व में परिणमे तब इसलिए ही बंधक कहा ।।१७१।। ज्ञान-दर्शन-चरित गुण जब जघनभाव से परिणमे । तब विविध पुद्गल कर्म से इसलोक में ज्ञानी बँधे ।।१७२।। सद्वृष्टियों के पूर्वबद्ध जो कर्मप्रत्यय सत्व में। उपयोग के अनुसार वे ही कर्म का बंधन करें।।१७३।। अनभोग्य हो उपभोग्य हों वे सभी प्रत्यय जिसतरह । ज्ञान-आवरणादि बसुविध कर्म बाँधे उसतरह ।।१७४।। बालबनिता की तरह वे सत्व में अनभोग्य हैं। पर तरुणवनिता की तरह उपभोग्य होकर बाँधते ।।१७५।। बस इसलिए सदृष्टियों को अबंधक जिन ने कहा। क्योंकि आस्रवभाव बिन प्रत्यय न बंधन कर सके।।१७६।। रागादि आस्रवभाव जो सदृष्टियों के वे नहीं। इसलिए आस्रवभाव बिन प्रत्यय न हेतु बंध के ।।१७७।।