Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 31
________________ ५४ समयसार पद्यानुवाद अध्यात्मनवनीत ना राग है ना द्वेष है ना मोह है इस जीव के। प्रत्यय नहीं है कर्म ना नोकर्म ना इस जीव के ।।५१।। ना वर्ग है ना वर्गणा अर कोई स्पर्धक नहीं। अर नहीं हैं अनुभाग के अध्यात्म के स्थान भी।।५२।। योग के स्थान नहिं अर बंध के स्थान ना। उदय के स्थान नहिं अर मार्गणा स्थान ना ।।५३।। थितिबंध के स्थान नहिं संक्लेश के स्थान ना। संयमलब्धि के स्थान ना सुविशुद्धि के स्थान ना ।।५४।। जीव के स्थान नहिं गुणथान के स्थान ना। क्योंकि ये सब भाव पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं ।।५५।। वर्णादि को व्यवहार से ही कहा जाता जीव के। परमार्थ से ये भाव भी होते नहीं हैं जीव के ।।५६।। दूध-पानी की तरह सम्बन्ध इनका जानना। उपयोगमय इस जीव के परमार्थ से ये हैं नहीं ।।५७।। पथिक लुटते देखकर पथ लुट रहा जग-जन कहें। पर पथ तो लुटता है नहीं बस पथिक ही लुटते रहें ।।५८।। उस ही तरह रंग देखकर जड़कर्म अर नोकर्म का। जिनवर कहें व्यवहार से यह वर्ण है इस जीव का ।।५९।। इस ही तरह रस गंध तन संस्थान आदिक जीव के। व्यवहार से हैं - कहें वे जो जानते परमार्थ को।।६०।। जो जीव हैं संसार में वर्णादि उनके ही कहें। जो मुक्त हैं संसार से वर्णादि उनके हैं नहीं।।१।। वर्णादिमय ही जीव हैं तुम यदी मानो इसतरह । तब जीव और अजीव में अन्तर करोगे किसतरह ?||६२।। मानो उन्हें वर्णादिमय जो जीव हैं संसार में। तब जीव संसारी सभी वर्णादिमय हो जायेंगे ।।३।। यदि लक्षणों की एकता से जीव हों पुद्गल सभी। बस इसतरह तो सिद्ध होंगे सिद्ध भी पुद्गलमयी ।।६४।। एकेन्द्रियादिक प्रकृति हैं जो नाम नामक कर्म की। पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म-वादर आदि सब ।।५।। इनकी अपेक्षा कहे जाते जीव के स्थान जो। कैसे कहें - 'वे जीव हैं' - जब प्रकृतियाँ पुद्गलमयी ।।६६।। पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म वादर आदि सब । जड़ देह की है जीव संज्ञा सूत्र में व्यवहार से ।।६७।। मोहन-करम के उदय से गुणथान जो जिनवर कहे। वे जीव कैसे हो सकें जो नित अचेतन ही कहें।।६८।। कर्ताकर्म अधिकार आतमा अर आस्रवों में भेद जब जाने नहीं। हैं अज्ञ तबतक जीव सब क्रोधादि में वर्तन करें ।।६९।। क्रोधादि में वर्तन करें तब कर्म का संचय करें। हो कर्मबंधन इसतरह इस जीव को जिनवर कहें।।७।। आतमा अर आस्रवों में भेद जाने जीव जब । जिनदेव ने ऐसा कहा कि नहीं होवे बंध तब ।।७१।। इन आस्रवों की अशुचिता विपरीतता को जानकर। आतम करे उनसे निवर्तन दुःख कारण मानकर ।।७२।। मैं एक हूँ मैं शुद्ध निर्मम ज्ञान दर्शन पूर्ण हूँ। थित लीन निज में ही रहूँ सब आस्रवों का क्षय करूँ ।।७३।। ये सभी जीवनिबद्ध अध्रुव शरणहीन अनित्य हैं। दुःखरूप दुखफल जानकर इनसे निवर्तन बुध करें।।७४।। करम के परिणाम को नोकरम के परिणाम को। जो ना करे बस मात्र जाने प्राप्त हों सद्ज्ञान को ।।७५।।

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