Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 27
________________ अध्यात्मनवनीत कर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि कर्म कुछ जाने नहीं । बस इसलिए ही कर्म अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।। ५१ ।। धर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि धर्म कुछ जाने नहीं । बस इसलिए ही धर्म अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।। ५२ ।। अधर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि अधर्म कुछ जाने नहीं । बस इसलिए ही अधर्म अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।। ५३ ।। काल ज्ञान नहीं है क्योंकि काल कुछ जाने नहीं । बस इसलिए ही काल अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ॥ ५४ ॥ आकाश ज्ञान नहीं है क्योंकि आकाश कुछ जाने नहीं । बस इसलिए आकाश अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।। ५५ ।। अध्यवसान ज्ञान नहीं है क्योंकि वे अचेतन जिन कहे । इसलिए अध्यवसान अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ॥ ५६ ॥ नित्य जाने जीव बस इसलिए ज्ञायकभाव है । है ज्ञान अव्यतिरिक्त ज्ञायकभाव से यह जानना ।। ५७ ।। ज्ञान ही समदृष्टि संयम सूत्र पूर्वगतांग भी । सधर्म और अधर्म दीक्षा ज्ञान है - यह बुध कहें ।। ५८ ।। इस ज्ञानगुण के बिना जन प्राप्ति न शिवपद की करें। यदि चाहते हो मुक्त होना ज्ञान का आश्रय करो ।। ५९ ।। इस ज्ञान में ही रत रहो सन्तुष्ट नित इसमें रहो । बस तृप्त भी इसमें रहो तो परमसुख को प्राप्त हो ।। ६० ।। परमार्थ है है ज्ञानमय है समय शुद्ध मुनि केवली । इसमें रहें थिर अचल जो निर्वाण पावें वे मुनि ।। ६१ ।। निज आत्मा ही ज्ञान है दर्शन चरित भी आतमा । अर योग संवर और प्रत्याख्यान भी आतमा ।। ६२ ।। निर्ग्रथ है नीराग है निःशल्य है निर्दोष है। निर्मान मद यह आतमा निष्काम है निष्क्रोध है ।। ६३ ।। ४६ शुद्धात्मशतक पद्यानुवाद निर्दण्ड है निर्द्वन्द है यह निरालम्बी आतमा । निर्देह है निर्मूढ है निर्भयी निर्मम आतमा । । ६४ । । ज्ञानी विचारें इसतरह यह चिन्तवन उनका सदा । केवल्यदर्शन - ज्ञान - सुख- शक्तिस्वभावी हूँ सदा । ६५ ।। ज्ञानी विचारें देखे जाने जो सभी को मैं वही । जो ना ग्रहे परभाव को निज भाव को छोड़े नहीं ।। ६६ ।। गुण आठ से हैं अलंकृत अर जन्म-मरण- जरा नहीं । हैं सिद्ध जैसे जीव त्यों भवलीन संसारी वही ।। ६७ ।। शुद्ध अविनाशी अतीन्द्रिय अदेह निर्मल सिद्ध ज्यों । लोकाग्र में जैसे विराजे जीव हैं भवलीन त्यों ।। ६८ ।। कर्म से आबद्ध जिय यह कथन है व्यवहार का । पर कर्म से ना बद्ध जिय यह कथन है परमार्थ का ।। ६९ ।। अबद्ध है या वद्ध है पर यह सभी नयपक्ष हैं। नयपक्ष से अतिक्रान्त जो वह ही समय का सार है ।।७० ।। जिस भाँति प्रज्ञा छैनी से पर से विभक्त किया इसे । उस भाँति प्रज्ञा छैनी से ही अरे ग्रहण करो इसे ।। ७१ ।। इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो चेतता । अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ।। ७२ ।। इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो देखता । अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ।। ७३ ।। इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो जानता । अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ।। ७४ ।। जो सो रहा व्यवहार में वह जागता निज कार्य में जो जागता व्यवहार में वह सो रहा निज कार्य में ।। ७५ ।। व्यवहार से यह आत्मा घट पट रथादिक द्रव्य का । इन्द्रियों का कर्म का नोकर्म का कर्ता कहा ।। ७६ ।। |

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