Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 24
________________ अध्यात्मनवनीत नारकी तिर्यंच आदिक देह से सब नग्न हैं। सच्चे श्रमण तो हैं वही जो भाव से भी नग्न हैं ।।७७।। जन्मते शिशुवत् अकिंचन नहीं तिल-तुष हाथ में। किंचित् परिग्रह साथ हो तो श्रमण जाँय निगोद में ।।७८।। जो आर्त होते जोड़ते रखते रखाते यत्न से। वे पाप मोहितमती हैं वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं।।७९।। राग करते नारियों से दूसरों को दोष दें। सद्ज्ञान-दर्शन रहित हैं वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं ।।८।। श्रावकों में शिष्यगण में नेह रखते श्रमण जो। हीन विनयाचार से वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं।।८१।। पार्श्वस्थ से भी हीन जो विश्वस्त महिला वर्ग में। रत ज्ञान-दर्शन-चरण दें वे नहीं पथ अपवर्ग में ।।८।। धर्म से हो लिंग केवल लिंग से न धर्म हो। समभाव को पहिचानिये द्रव्यलिंग से क्या कार्य हो ।।८३।। विरक्त शिवरमणी वरें अनुरक्त बाँधे कर्म को। जिनदेव का उपदेश यह मत कर्म में अनुरक्त हो ।।८४।। परमार्थ से हैं बाह्य वे जो मोक्षमग नहीं जानते। अज्ञान से भवगमन-कारण पुण्य को हैं चाहते ।।८५।। सुशील है शुभकर्म और अशुभ करम कुशील है। संसार के हैं हेतु वे कैसे कहें कि सुशील हैं ?||८६।। ज्यों लोह बेड़ी बाँधती त्यों स्वर्ण की भी बाँधती। इस भाँति ही शुभ-अशुभ दोनों कर्म बेड़ी बाँधती ।।८७।। दुःशील के संसर्ग से स्वाधीनता का नाश हो। दुःशील से संसर्ग एवं राग को तुम मत करो ।।८८।। पुण्य-पाप में अन्तर नहीं है - जो न मानें बात ये। संसार-सागर में भ्रमें मद-मोह से आच्छन्न वे ।।८९।। कुन्दकुन्दशतक पद्यानुवाद इन्द्रियसुख सुख नहीं दुख है विषम बाधा सहित है। है बंध का कारण दुखद परतंत्र है विच्छिन्न है ।।१०।। शुभ-अशुभ रचना वचन वा रागादिभाव निवारिके। जो करें आतम ध्यान नर उनके नियम से नियम है ।।११।। सद्ज्ञान-दर्शन-चरित ही है 'नियम' जानो नियम से। विपरीत का परिहार होता 'सार' इस शुभ वचन से ।।१२।। जैनशासन में कहा है मार्ग एवं मार्गफल । है मार्ग मोक्ष-उपाय एवं मोक्ष ही है मार्गफल ।।१३।। हैं जीव नाना कर्म नाना लब्धि नानाविध कही। अतएव वर्जित वाद है निज-पर समय के साथ भी ।।१४।। ज्यों निधी पाकर निज वतन में गुप्त रह जन भोगते । त्यों ज्ञानिजन भी ज्ञाननिधि परसंग तज के भोगते ।।९५।। यदि कोई ईर्ष्याभाव से निन्दा करे जिनमार्ग की। छोड़ो न भक्ती वचन सुन इस वीतरागी मार्ग की।।९६।। जो थाप निज को मुक्तिपथ भक्ती निवृत्ती की करें। वे जीव निज असहाय गुण सम्पन्न आतम को वरें ।।९७।। मुक्तिगत नरश्रेष्ठ की भक्ति करें गुणभेद से। वह परमभक्ति कही है जिनसूत्र में व्यवहार से ।।१८।। द्रव्य गुण पर्याय से जो जानते अरहंत को। वे जानते निज आतमा दृगमोह उनका नाश हो ।।९९।। सर्व ही अरहंत ने विधि नष्ट कीने जिस विधी। सबको बताई वही विधि हो नमन उनको सब विधी ।।१००।। है ज्ञान दर्शन शुद्धता निज शुद्धता श्रामण्य है। हो शुद्ध को निर्वाण शत-शत बार उनको नमन है ।।१०१।।

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