Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 21
________________ कुन्दकुन्दशतक पद्यानुवाद ( हरिगीत ) सुर-असुर - इन्द्र- नरेन्द्र-वंदित कर्ममल निर्मलकरन । वृषतीर्थ के करतार श्री वर्द्धमान जिन शत-शत नमन । । १ । । अरहंत सिद्धाचार्य पाठक साधु हैं परमेष्ठि पण । सब आतमा की अवस्थाएँ आतमा ही है शरण ॥२॥ सम्यक् सुदर्शन ज्ञान तप समभाव सम्यक् आचरण । सब आतमा की अवस्थाएँ आतमा ही है शरण || ३ || निर्ग्रन्थ है नीराग है निःशल्य है निर्दोष है। निर्मान -मद यह आतमा निष्काम है निष्क्रोध है ||४|| निर्दण्ड है निर्द्वन्द्व है यह निरालम्बी आतमा । निर्देह है निर्मूढ है निर्भयी निर्मम आतमा ।।५।। मैं एक दर्शन - ज्ञानमय नित शुद्ध हूँ रूपी नहीं । ये अन्य सब परद्रव्य किंचित् मात्र भी मेरे नहीं ॥ ६ ॥ चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है। जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है ।।७।। जिस भाँति प्रज्ञाछैनी से पर से विभक्त किया इसे । उस भाँति प्रज्ञाछैनी से ही अरे ग्रहण करो इसे ॥ ८ ॥ जो जानता मैं शुद्ध हूँ वह शुद्धता को प्राप्त हो । जो जानता अविशुद्ध वह अविशुद्धता को प्राप्त हो । । ९ । । यह आत्म ज्ञानप्रमाण है अर ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है । हैं ज्ञेय लोकालोक इस विधि सर्वगत यह ज्ञान है ।। १० ।। चारित्र दर्शन ज्ञान को सब साधुजन सेवें सदा । ये तीन ही हैं आतमा बस कहे निश्चयनय सदा ।। ११ ।। कुन्दकुन्दशतक पद्यानुवाद 'यह नृपति है' - यह जानकर अर्थार्थिजन श्रद्धा करें। अनुचरण उसका ही करें अति प्रीति से सेवा करें ।। १२ ।। यदि मोक्ष की है कामना तो जीवनृप को जानिये । अति प्रीति से अनुचरण करिये प्रीति से पहिचानिये ।। १३ ।। जो भव्यजन संसार सागर पार होना चाहते । वे कर्मईंधन - दहन निज शुद्धात्मा को ध्यावते ।।१४।। मोक्षपथ में थाप निज को चेतकर निज ध्यान धर । निज में ही नित्य विहार कर परद्रव्य में न विहार कर ।। १५ ।। जीवादि का श्रद्धान सम्यक् ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । ३५ रागादि का परिहार चारित यही मुक्तिमार्ग है ।। १६ ।। तत्त्वरुचि सम्यक्त्व है तत्ग्रहण सम्यग्ज्ञान है । जिनदेव ने ऐसा कहा परिहार ही चारित्र है ।।१७।। जानना ही ज्ञान है अरु देखना दर्शन कहा। पुण्य-पाप का परिहार चारित्र यही जिनवर ने कहा ।। १८ ।। दर्शन रहित यदि वेष हो चारित्र विरहित ज्ञान हो । संयम रहित तप निरर्थक आकाश-कुसुम समान हो । । १९ । । दर्शन सहित हो वेश चारित्र शुद्ध सम्यग्ज्ञान हो । संयम सहित तप अल्प भी हो तदपि सुफल महान हो ॥ २० ॥ परमार्थ से हो दूर पर तप करें व्रत धारण करें । सब बालतप है बालव्रत वृषभादि सब जिनवर कहें ।। २१ ।। व्रत नियम सब धारण करें तप शील भी पालन करें। पर दूर हों परमार्थ से ना मुक्ति की प्राप्ती करें ।। २२ ।। जो शक्य हो वह करें और अशक्य की श्रद्धा करें। श्रद्धान ही सम्यक्त्व है इस भाँति सब जिनवर कहें ।। २३ ।। जीवादि का श्रद्धान ही व्यवहार से सम्यक्त्व है । पर नियतनय से आत्म का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है ।। २४ ।।

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