Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ ३० बारह भावना अध्यात्मनवनीत गुणभेद से भी भिन्न है पर्याय से भी पार है। जो साधकों की साधना का एक ही आधार है ।।२९।। मैं हूँ वही शुद्धातमा चैतन्य का मार्तण्ड हूँ। आनन्द का रसकन्द हूँ मैं ज्ञान का घनपिण्ड हूँ।। मैं ध्येय हूँ श्रद्धेय हूँ मैं ज्ञेय हूँ मैं ज्ञान हूँ। बए एक ज्ञायकभाव हूँ मैं मैं स्वयं भगवान हूँ।।३०।। यह जानना पहिचानना ही ज्ञान है श्रद्धान है। केवल स्वयं की साधना आराधना ही ध्यान है।। यह ज्ञान यह श्रद्धान बस यह साधना आराधना। बस यही संवरतत्त्व है बस यही संवरभावना ।।३१।। इस सत्य को पहिचानते वे ही विवेकी धन्य हैं। ध्रुवधाम के आराधकों की बात ही कुछ अन्य है।। शुद्धातमा को जानना ही भावना का सार है। ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है।।३२।। ९.निर्जराभावना शुद्धातमा की रुची संवर साधना है निर्जरा। ध्रुवधाम निज भगवान की आराधना है निर्जरा ।। निर्मम दशा है निर्जरा निर्मल दशा है निर्जरा । निज आतमा की ओर बढ़ती भावना है निर्जरा ।।३३।। वैराग्यजननी राग की विध्वंसनी है निर्जरा । है साधकों की संगिनी आनन्दजननी निर्जरा ।। तप-त्याग की सुख-शान्ति की विस्तारनी है निर्जरा। संसार पारावार पार उतारनी है निर्जरा ।।३४।। निज आतमा के भान बिन है निर्जरा किस काम की। निज आतमा के ध्यान बिन है निर्जरा बस नाम की।। है बंध की विध्वंसनी आराधना ध्रुवधाम की। यह निर्जरा बस एक ही आराधकों के काम की ।।३५।। इस सत्य को पहिचानते वे ही विवेकी धन्य हैं। ध्रुवधाम के आराधकों की बात ही कुछ अन्य है।। शुद्धातमा की साधना ही भावना का सार है। ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है।।३६।। १०. लोकभावना निज आतमा के भान बिन षद्रव्यमय इस लोक में। भ्रमरोगवश भव-भव भ्रमण करता रहा त्रैलोक्य में।। करता रहा नित संसरण जगजालमय गति चार में। समभाव बिन सुख रञ्च भी पाया नहीं संसार में ।।३७।। नर नर्क स्वर्ग निगोद में परिभ्रमण ही संसार है। षद्रव्यमय इस लोक में बस आतमा ही सार है।। निज आतमा ही सार है स्वाधीन है सम्पूर्ण है। आराध्य है सत्यार्थ है परमार्थ है परिपूर्ण है।।३८।। निष्काम है निष्क्रोध है निर्मान है निर्मोह है। निर्द्वन्द्व है निर्दण्ड है निर्ग्रन्थ है निर्दोष है।। निर्मूढ़ है नीराग है आलोक है चिल्लोक है। जिसमें झलकते लोक सब वह आतमा ही लोक है ।।३९।। निज आतमा ही लोक है निज आतमा ही सार है। आनन्दजननी भावना का एक ही आधार है।। यह जानना पहिचानना ही भावना का सार है। ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है।।४०।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112