Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 18
________________ बारह भावना २९ अध्यात्मनवनीत हैं भिन्न परिजन भिन्न पुरजन भिन्न ही धन-धाम हैं। हैं भिन्न भगिनी भिन्न जननी भिन्न ही प्रिय वाम है ।।१७।। अनुज-अग्रज सुत-सुता प्रिय सुहृदजन सब भिन्न हैं। ये शुभ अशुभ संयोगजा चिवृत्तियाँ भी अन्य हैं।। स्वोन्मुख चिवृत्तियाँ भी आतमा से अन्य हैं। चैतन्यमय ध्रुव आतमा गुणभेद से भी भिन्न है ।।१८।। गुणभेद से भी भिन्न है आनन्द का रसकन्द है। है संग्रहालय शक्तियों का ज्ञान का घनपिण्ड है।। वह साध्य है आराध्य है आराधना का सार है। ध्रुवधाम की आराधना का एक ही आधार है।।१९।। जो जानते इस सत्य को वे ही विवेकी धन्य हैं। ध्रुवधाम के आराधकों की बात भी कुछ अन्य है।। अन्यत्व को पहिचानना ही भावना का सार है। एकत्व की आराधना आराधना का सार है।।२०।। ६. अशुचिभावना जिस देह को निज जानकर नित रम रहा जिस देह में। जिस देह को निज मानकर रच-पच रहा जिस देह में ।। जिस देह में अनुराग है एकत्व है जिस देह में। क्षण एक भी सोचा कभी क्या-क्या भरा उस देह में ।।२१।। क्या-क्या भरा उस देह में अनुराग है जिस देह में। उस देह का क्या रूप है आतम रहे जिस देह में ।। मलिन मल पल रुधिर कीकस वसा का आवास है। जड़रूप है तन किन्तु इसमें चेतना का वास है।।२२।। चेतना का वास है दुर्गन्धमय इस देह में। शुद्धातमा का वास है इस मलिन कारागेह में।। इस देह के संयोग में जो वस्तु पलभर आयेगी। वह भी मलिन मल-मूत्रमय दुर्गन्धमय हो जायेगी ।।२३।। किन्तु रह इस देह में निर्मल रहा जो आतमा । वह ज्ञेय है श्रद्धेय है बस ध्येय भी वह आतमा ।। उस आतमा की साधना ही भावना का सार है। ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है ।।२४।। ७. आस्रवभावना संयोगजा चिवृत्तियाँ भ्रमकूप आस्रवरूप हैं। दुखरूप हैं दुखकरण हैं अशरण मलिन जड़रूप हैं।। संयोग विरहित आतमा पावन शरण चिद्रूप है। भ्रमरोगहर संतोषकर सुखकरण है सुखरूप है।।२५।। इस भेद से अनभिज्ञता मद मोह मदिरा पान है। इस भेद को पहिचानना ही आत्मा का भान है।। इस भेद की अनभिज्ञता संसार का आधार है। इस भेद की नित भावना ही भवजलधि का पार है ।।२६।। इस भेद से अनभिज्ञ ही रहते सदा बहिरातमा । जो जानते इस भेद को वे ही विवेकी आतमा ।। यह जानकर पहिचानकर निज में जमे जो आतमा। वे भव्यजन बन जायेंगे पर्याय में परमातमा ।।२७।। हैं हेय आस्रवभाव सब श्रद्धेय निज शुद्धातमा। प्रिय ध्येय निश्चय ज्ञेय केवल श्रेय निज शुद्धातमा ।। इस सत्य को पहिचानना ही भावना का सार है। ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है।।२८।। ८. संवरभावना देहदेवल में रहे पर देह से जो भिन्न है। है राग जिसमें किन्तु जो उस राग से भी अन्य है।।

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