Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 20
________________ अध्यात्मनवनीत बारह भावना भोगसामग्री मिले अनिवार्य है पर याचना। है व्यर्थ ही इन कल्पतरु चिन्तामणी की चाहना ।।४६।। धर्म ही वह कल्पतरु है नहीं जिसमें याचना। धर्म ही चिन्तामणी है नहीं जिसमें चाहना ।। धर्मतरु से याचना बिन पूर्ण होती कामना । धर्म चिन्तामणी है शुद्धातमा की साधना ।।४७।। शुद्धातमा की साधना अध्यात्म का आधार है। शुद्धातमा की भावना ही भावना का सार है।। वैराग्यजननी भावना का एक ही आधार है। ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है।।४८।। ११. बोधिदुर्लभभावना इन्द्रियों के भोग एवं भोगने की भावना। हैं सुलभ सब दुर्लभ नहीं है इन सभी का पावना ।। है महादुर्लभ आत्मा को जानना पहिचानना। है महादुर्लभ आत्मा की साधना आराधना ।।४१।। नर देह उत्तम देश पूरण आयु शुभ आजीविका। दुर्वासना की मंदता परिवार की अनुकूलता।। सत् सज्जनों की संगति सद्धर्म की आराधना। है उत्तरोत्तर महादुर्लभ आतमा की साधना ।।४२।। जब मैं स्वयं ही ज्ञेय हूँ जब मैं स्वयं ही ज्ञान हैं। जब मैं स्वयं ही ध्येय हूँ जब मैं स्वयं ही ध्यान हूँ।। जब मैं स्वयं आराध्य हूँ जब मैं स्वयं आराधना। जब मैं स्वयं ही साध्य हूँ जब मैं स्वयं ही साधना ।।४३।। जब जानना पहिचानना निज साधना आराधना। ही बोधि है तो सुलभ ही है बोधि की आराधना ।। निज तत्त्व को पहिचानना ही भावना का सार है। ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है।।४४।। १२. धर्मभावना निज आतमा को जानना पहिचानना ही धर्म है। निज आतमा की साधना आराधना ही धर्म है।। शुद्धातमा की साधना आराधना का मर्म है। निज आतमा की ओर बढ़ती भावना ही धर्म है।।४५।। कामधेनु कल्पतरु संकटहरण बस नाम के। रतन चिन्तामणी भी हैं चाह बिन किस काम के।। आचार्य भगवन्तों का मात्र यही आदेश है, यही उपदेश है, यही सन्देश है कि सम्पूर्ण जगत से दृष्टि हटाकर एकमात्र अपने आत्मा की साधना करो, आराधना करो; उसे ही जानो, पहिचानो; उसी में जम जावो, उसमें ही रम जावो, उसमें ही समा जावो, इससे ही अतीन्द्रियानन्द की प्राप्ति होगी - परमसुखी होने का एकमात्र यही उपाय है। पर को छोड़ने के लिए, पर से छूटने के लिए इससे भिन्न कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि पर तो छूटे हुए ही हैं। वे तेरे कभी हुए ही नहीं हैं; तूने ही उन्हें अज्ञानवश अपना मान रखा था, अपना जान रखा था और उनसे राग कर व्यर्थ ही दुःखी हो रहा था। तू अपने में मगन हुआ तो वे छूटे हुए ही हैं। - बारहभावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ७०-७१

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