Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 13
________________ अध्यात्मनवनीत श्री महावीर पूजन संतप्त-मानस शान्त हों जिनके गुणों के गान में। वे वर्द्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में ।। ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। (अर्घ्य) इस अर्घ्य का क्या मूल्य है अनअर्घ्य पद के सामने। उस परम-पद को पा लिया, हे पतित पावन आपने ।। संतप्त-मानस शान्त हों जिनके गुणों के गान में। वे वर्द्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में ।। ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अय निर्वपामीति स्वाहा। (सोरठा) (पंचकल्याणक अर्घ्य ) सित छटवीं आषाढ़, माँ त्रिशला के गर्भ में। अंतिम गर्भावास, यही जान प्रणमूं प्रभो।। ॐ ह्रीं श्री आषाढशुक्लाषष्ठयां गर्भमंगलमंडिताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अय निर्वपामीति स्वाहा। तेरस दिन सित चैत, अन्तिम जन्म लियोप्रभू। नृप सिद्धार्थ निकेत, इन्द्र आय उत्सव कियो।। ॐ ह्रीं श्री चैत्रशुक्लात्रयोदशम्यां जन्ममंगलमंडिताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। दशवीं मंगसिर कृष्ण, वर्द्धमान दीक्षा धरी। कर्म-कालिमा नष्ट करने आत्मरथी बने।। ॐ ह्रीं श्री मार्गशीर्षकृष्णादशम्यां तपमंगलमंडिताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। सित दशवीं बैसाख, पायो केवलज्ञान जिन । अष्ट द्रव्यमय अर्घ्य, प्रभुपद पूजा करें हम।। ॐ ह्रीं श्री बैसाखशुक्लादशम्यां ज्ञानमंगलमंडिताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। कार्तिकमावस श्याम, पायोप्रभु निर्वाण तुम। पावा तीरथधाम, दीपावली मनाँय हम ।। ॐ ह्रीं श्री कार्तिककृष्णाअमावस्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (दोहा) यद्यपि युद्ध नहीं कियो, नाहिं रखे असि-तीर। परम अहिंसक आचरण, तदपि बने महावीर ।।१।। (पद्धरी छन्द) हे मोह-महादल-दलन वीर, दुद्धर-तप संयम धरण धीर । तुम हो अनन्त आनन्दकन्द, तुम रहित सर्व जग दंद-फंद ।।२।। अघकरन करन-मनहरन-हार,सुखकरन हरन भवदुख अपार । सिद्धार्थ तनय तन रहित देव, सुर-नर-किन्नर सब करत सेव ।।३।। मतिज्ञान रहित सन्मति जिनेश, तुम राग-द्वेष जीते अशेष । शुभ-अशुभ राग की आग त्याग, हो गये स्वयं तुम वीतराग ।।४।। षट् द्रव्य और उनके विशेष, तुम जानत हो प्रभुवर अशेष । सर्वज्ञ-वीतरागी जिनेश, जो तुम को पहिचाने विशेष ।।५।। वे पहिचानें अपना स्वभाव, वे करें मोह-रिपु का अभाव। वे प्रगट करें निज-पर विवेक, वे ध्यावें निज शुद्धात्म एक ।।६।। निज आतम में ही रहें लीन, चारित्रमोह को करें क्षीन । उनका हो जावे क्षीण राग, वे भी हो जावें वीतराग ।।७।। जो हुए आज तक अरीहंत, सबने अपनाया यही पंथ । उपदेश दिया इस ही प्रकार, हो सबको मेरा नमस्कार ।।८।। जो तुमको नहिं जाने जिनेश, वे पावेंभव-भव भ्रमण-क्लेश। वे माँगे तुमसे धन-समाज, वैभव पुत्रादिक राज-काज ।।९।। जिनको तुम त्यागे तुच्छ जान, वे उन्हें मानते हैं महान । उनमें ही निशदिन रहें लीन, वे पुण्य-पाप में ही प्रवीन ।।१०।। प्रभु पुण्य-पाप से पार आप, बिन पहिचाने पावे संताप । संतापहरण सुखकरण सार, शुद्धात्मस्वरूपी समयसार ।।११।।

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