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२ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदीजी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
“स्वयं अपने को वे महान् साहित्यकार बना पाये हों या न बना पाये हों, इसमें कोई सन्देह नही कि उन्होंने अनेक साहित्यकार बनाये। उनकी प्रेरणा से जाने कितनों ने उस युग मे हिन्दी में लिखना शुरू किया, उनके प्रशिक्षण के कारण जाने कितने मँजे-मॅजाये लेखक बन गये। जिसे हम द्विवेदी युग कहते हैं, उस युग में महान् साहित्य की सृष्टि भले ही न हुई हो, उस युग ने ही महान् साहित्य की सृष्टि के लिए मार्ग प्रशस्त किया ।"
अपने युग की उपलब्धियों के बीच द्विवेदीजी का अपना विशिष्ट महत्त्व था, इतना निःसन्दिग्ध है । डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसी आशय के विचार अभिव्यक्त किये है :
"हम उस युग के अन्यान्य साहित्यिक महारथियों की महिमा को सम्पूर्ण स्वीकार करते हुए भी नि सकोच कह सकते है कि भाषा को युगोचित, उच्छ्वासहीन, स्पष्टवादी और वक्तव्य अर्थ के प्रति ईमानदार बनाकर जो काम द्विवेदीजी कर गये हैं, वही उन्हे हिन्दी साहित्य मे अद्वितीय स्थान का अधिकारी बनाता है । साधारणतः, साहित्य क्षेत्र में भाषा के प्रजापतिगण केवल शैली और भाषा के बल पर इस महत्त्वपूर्ण आसन पर अधिकार नहीं करते, परन्तु द्विवेदीजी एक ऐसे अद्भुत मुहूर्त्त में आये थे और ऐसी प्रकृति और ऐसा संस्कार लेकर आविर्भूत हुए थे कि वे उम आसन पर निर्विवाद भाव से अधिकार कर सके । २
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युग-नेतृत्व का उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य संचालित करने के कारण द्विवेदीजी का समुचित प्रभाव तत्कालीन साहित्यिक विकास पर पड़ा । इस कारण उनकी छतच्छाया मे साहित्य-रचना होने की सम्पूर्ण अवधि को 'द्विवेदी युग' कहना सर्वथा युक्तिसंगत है । इस नामकरण को अधिकांश विद्वानों ने स्वीकृति दी है । परन्तु इस कालखण्ड के लिए कई अन्य संज्ञाओं का भी प्रयोग किया गया है। नागरी प्रचारिणी सभा (वाराणसी) से प्रकाशित 'हिन्दी-साहित्य का बृहत् इतिहास' में सं० १९५० से सं० १९७५ की इस साहित्यिक काल - सीमा को 'परिष्कार - काल' कहा भाषा के स्थिरीकरण एवं सुधार का जो कार्य इस अवधि में हुआ था, प्रस्तुत नाम उसी पर आधृत है । इस ऐतिहासिक कार्य को आचार्य द्विवेदी ने ही गति और सही दिशा का ज्ञान दिया था, अतएव इस कालखण्ड को 'परिष्कार - काल' की अपेक्षा 'द्विवेदी युग' कहना ही अधिक समीचीन प्रतीत होता है । इसी भाँति, डॉ० जितराम पाठक ने तत्कालीन राष्ट्रीय काव्य पर प्रभाव डालनेवाली सामयिक परिस्थितियों पर आधृत संज्ञाओं की कल्पना की है, परन्तु मान्यता सर्वस्वीकृत नाम को ही दी है । यथा :
गया है ।
१. श्रीबालकृष्ण राव : सम्पादकीय, 'माध्यम', मई, १९६४ ई०, पृ० ६ । २. डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी : 'विचार और वितर्क, पृ० ८४ ।