Book Title: Acharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Author(s): Shaivya Jha
Publisher: Anupam Prakashan

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Page 15
________________ प्रथम अध्याय द्विवेदी युग की पृष्ठभूमि एवं परिस्थितियाँ अवतरणिका : साहित्येतिहास मे किसी युग-विशेष का नामकरण सामान्यतः प्रवृत्ति- विशेष के आधार पर होता है, परन्तु कभी-कभी किसी व्यक्ति के नाम पर भी युग का नामकरण कर दिया जाता है । व्यक्ति के नाम पर किसी काल का नामकरण तभी सार्थक होता है, जबकि उस व्यक्ति विशेष ने अपने समसामयिक साहित्य को व्यापक रूप से प्रभावित किया हो । हिन्दी के साहित्यिक इतिहास का काल-विभाजन करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सं० १९०० से अबतक को सम्पूर्ण साहित्यिक परम्परा को आधुनिक काल के अन्तर्गत परिगणित किया है । 'आधुनिक' शब्द हमारे युग की प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करता है; क्योंकि आधुनिक युग में जीवन और कला के विभिन्न क्षेत्रो में अभूतपूर्व युग परिवर्तन दिखाई पड़ता है । अभिव्यक्ति की नूतन प्रविधियों एव कला जगत् की नवीनताओं की इस व्याप्ति के कारण आचार्य शुक्ल एवं अन्यान्य विद्वानों ने सं० १६०० से प्रारम्भ होनेवाले इस काल को 'आधुनिक काल' नाम दिया । शुक्लजी ने आधुनिक काल में अन्तर्विभाग भी किये हैं । उन्होने २५-२५ वर्षो का उत्थान माना है और प्रथम उत्थान, द्वितीय उत्थान, तृतीय उत्थान आदि कहते चले गये हैं । इन्हीं उत्थानों को व्यक्ति विशेष की प्रमुखता के आधार पर क्रमश: भारतेन्दु-युग, द्विवेदी-युग आदि की संज्ञा दी जाती है । जहाँतक द्विवेदी युग का सन्दर्भ है, इस कालखण्ड की स्थूल सीमा सन् १९०० से १९३० ई० तक मानी गई है । काल की किसी विशेष अवधि को द्विवेदी युग कहकर सम्बोधित करने का स्पष्ट अर्थ यही है कि उक्त युग - विशेष की साहित्यिक गतिविधियों का नेतृत्व द्विवेदी नामधारी किसी साहित्यसेवी के जिम्मे था । वास्तव मे, सन् १९०० से १९२० ई० की, सम्पूर्ण हिन्दी - जगत् में होनेवाली गतिविधियाँ आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में संचालित होती थीं। इस तथ्य को सभी आलोचक विद्वानों ने एकमत होकर स्वीकार किया है कि द्विवेदीजी ने अपनी नमनानविक हिन्दी साहित्य को दिशाबोध कराने एवं भाषा का स्वरूप गढ़ने में नेता- जैसा कार्य किया है । श्रीबालकृष्ण राव ने लिखा है :

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