Book Title: Acharang Churni
Author(s): Jindasgani Mahattar, 
Publisher: Rushabhdevji Keshrimalji Shwetambar Samstha

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Page 296
________________ श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णिः ॥२९४ ॥ तरमासज्ज सम्मं ठावति अप्पागं, पाओवगमण मियाणि, तंजहा-अयं वाततरे सिता (३५) अयमिति जो बुच्चति अंततरो अंततरी वा आयतरो, पढिज्जइ आयरे द्रढग्गाह्तरे धम्मे मरणधम्मे इंगिणिमरणाओ आयतरे उत्तमतरे जो विवेकं करेति, नणु जो एवं अणुपालते तहेव एत्थवि पव्वज्जा सिक्खावय० जाव संलेहितुं णिवज्जति, सो पुण सवगायनिरोधेवि गातं हत्थपादं जतिवि से चरिमट्ठाण डियस्स उत्तावितेहिं मुच्छा उप्पज्जति मरणं समुग्धातो वा तहवि ततो ठाणाओ णवि उन्भमे, दव्वद्वाणं स एव अवगासो, भावट्ठाणं स एगो मरणमिग्गहो, ईसितमेव उज्जमे, एयस्स पादवेण उवमा कीरति पाओवगमणं, जहा पायवो अच्छिन्नोषि ण चलति किं छिन्नपातो ?, सो डज्झमाणे वा छिण्णमाणे वा विसमपडितो वा मित्तिकाउंण ततो ठाणाओ चलति, अण्णहा ठाणं ण करेइ, एवं एसोऽवि पातववत् पडितो निच्चलो निष्कंदो चिट्ठति, कत्थ पुण सो चिट्ठति ? -गामे अहवा रणे, कहं पुण गामेति ?, जति जाणइ एस गामो अचिरेण डंहिति, मम असमत्ते चैव पाओवगमणा, ताहे गामे ठाति, इहरा तु सति परकमे अरण्णे चैव करेति, अचिरं पडिलेहित्ता अचिरं णाम ठाणं, अहवा अचिरं कालं, कालकतं अचिरं, तं पडिलेहित्ता पमज्जेत्ता विहरे चिट्ठ माहणे विहरेत्ति अच्छति णिसण्णे वा णिवण्णो वा चिठ्ठति, उट्ठीयतो अच्छति, काउस्सग्गे ठिओ वा, माहत्ति वा समणेत्ति वा एगहूं, णिच्चले निप्पडीकम्मो णिक्खिवति जं जहिं जहा अंगं, अचित्तं तु समासज्ज (३७) अचित्तं अचेयणं किंचि अवकुंभणं जा कुडे वा कटुं वा तं आसज्ज समासज्ज, यदुक्तं भवति-प्राप्य, तत्थवि किर कीरति अवद्वंभितं पाओवगमणं संमं, जो तित्रत्थ० पाओवगमणं, एवं कतरस्स ?, अहवा अयं थंडिलं, सो थंडिल्ले णिसण्णो अवद्वंभो वा अविलंवितो वा वोसिरे सङ्घसो कार्य सव्वेहिं पगारेहिं सव्वसो सङ्घसत्था पणामए देहे परीसहाण णामए देहिं किंचि परायतं एतं सरीर आततरादि ॥२९४॥

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