Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 15
________________ X (2) जैन संस्कृत काव्यस्मृति अनुमोदित वर्णाश्रम धर्म के पोषक नहीं है। इनमें जातिवाद के प्रति क्रांति निदर्शित है । इनमें आश्रम व्यवस्था भी मान्य नहीं है । समाज - श्रावक और मुनि इन दो वर्णों में विभक्त है- चतुर्विध संघ - मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका को ही समाज माना गया है । इस समाज का विकास श्रावक और मुनि के पारस्परिक सहयोग से होता है । तप, त्याग, संयम और अहिंसा की साधना के द्वारा मानव मात्र समान रूप से आत्मोत्थान करने का अधिकारी है । आत्मोत्थान के लिए किसी परोक्ष शक्ति की सहायता अपेक्षित नहीं है । अपने पुरुषार्थ के द्वारा कोई भी व्यक्ति अपना सर्वाङ्गीण विकास कर सकता है। (3) संस्कृत जैन काव्यों के नायक देव, ऋषि, मुनि नहीं हैं, अपितु राजाओं के साथ सेठ, सार्थवाह, धर्मात्मा व्यक्ति, तीर्थङ्कर, शूरवीर या सामान्य जन आदि हैं । नायक अपने चरित्र का विकास इन्द्रिय दमन और संयम पालन द्वारा स्वयं करता है । आरंभ से ही नायक त्यागी नहीं होता, वह अर्थ और काम दोनों पुरुषार्थों का पूर्णतया उपयोग करता हुआ किसी निमित्त विशेष को प्राप्त कर विरक्त होता है और आत्मसाधना में लग जाता है । जिन काव्यों के नायक तीर्थङ्कर या अन्य पौराणिक महापुरुष हैं, उन काव्यों में तीर्थङ्कर आदि पुण्य पुरुषों की सेवा के लिए स्वर्ग से देवी-देवता आते हैं। पर वे महापुरुष भी अपने चरित्र का उत्थान स्वयं अपने पुरुषार्थ द्वारा ही करते हैं । (4) जैन संस्कृत काव्यों के कथा स्रोत वैदिक पुराणों या अन्य ग्रन्थों से ग्रहण नहीं किये गये हैं, प्रत्युत वे लोक प्रचलित प्राचीन कथाओं एवं जैन परंपरा के पुराणों से संग्रह किये गये हैं । कवियों ने यथावस्तु को जैन धर्म के अनुकूल बनाने के लिए उसे पूर्णतया जैन धर्म के साँचे में ढालने का प्रयास किया है । रामायण महाभारत के कथांश जिन काव्यों के आधार हैं, उनमें भी उक्त कथाएं जैन परम्परा के अनुसार अनुमोदित ही हैं । इनमें बुद्धिसंगत यथार्थवाद द्वारा विकारों का निराकरण करके मानवता की प्रतिष्ठा की गई है । (5) संस्कृत जैन काव्यों के नायक जीवन-मूल्यों, धार्मिक निर्देशों और जीवन तत्त्वों की व्यवस्था तथा प्रसार के लिये "मीडियम" का कार्य करते हैं । वे संसार के दुःखों एवं जन्म-मरण के कष्टों से मुक्त होने के लिए रत्नत्रय का अवलम्बन ग्रहण करते है । संस्कृत काव्यों के ‘“दुष्ट-निग्रह" और " शिष्ट- अनुग्रह " आदर्श के स्थान पर दुःख निवृत्ति ही नायक का लक्ष्य होता है । स्वयं की दुःख निवृत्ति के आदर्श से समाज को दुःख - निवृत्ति का संकेत कराया जाता है । व्यक्ति हित और समाज हित का इतना एकीकरण होता है कि वैयक्तिक जीवन मूल्य ही सामाजिक जीवन मूल्य के रूप में प्रकट होते हैं । संस्कृत जैन काव्यों के इस आंतरिक रचना तन्त्र को रत्नत्रय के त्रिपार्श्व सम त्रिभुज द्वारा प्रकट होना माना जा सकता है । इस जीवन त्रिभुज की तीनों भुजाएँ समान होती हैं और कोण भी त्याग, संयम एवं तप के अनुपात से निर्मित होते हैं । (6) जैन संस्कृत काव्यों के रचना तंत्र में चरित्र का विकास प्राय: लम्बमान ( वरटीकल) रूप में नहीं होता, जबकि अन्य संस्कृत काव्यों में ऐसा ही होता है । (7) संस्कृत के जैन काव्यों में चरित्र का विकास प्रायः अनेक जन्मों के बीच में हुआ है। जैन कवियों ने एक ही व्यक्ति के चरित्र को रचनाक्रम से विकसित रूप में प्रदर्शित करते हुए वर्तमान जन्म में मोक्ष निर्वाण तक पहुँचाया है । प्रायः प्रत्येक काव्य के आधे

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