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महामहोपाध्याय श्री यनोविजयजी कृत. ते कारण लज्जादिकथी पण, शील धरे जे प्राणीजी। धन्य तेह कृतपुण्य कृतारथ, महानिसीधे वाणोजी ॥ ए व्यवहारने मन धारो, निश्चयनय मत दाख्युंजी। प्रथम अंगमां वितिगिच्छाए, भाव वरण नवि भाख्युंजी ॥८॥ व्याख्या-तह कारणे लनादिकयी पण जे नरनारी गील पा छे, तेह धन्य कृतपुन्य एवी वाणी महानिशीथमाह के.-"धन्ने णं से पुरित कयत्ये महाशुभारे, लेणं लोगल. लाए बि सीढं पालड़ ! पन्ने गं मा कयत्या कयलक्खणा महापात्रा, जेणं लोग लजाए बि सीलं पाठेइ ।" इत्यादि वचनात् । ए महानिशीथमांह कयुत व्यवहारनये मनमा धारो. निश्चयनयनो मतवी प्रथम अंगमाईज कया है-भाप्यो छ ज विचिकित्सा के मननी असमाधी ते छत्ता भावचरण के० भाव धारित्र भास्युं नयी. ठकाणे ठेकाणे नयना अर्य प्रमाण है. ॥ ८३॥
॥ ढाल आठमी ॥
॥ चौपाइनी देशी है. ॥ अवर एक भाये आचार, दया मात्र शुद्धज व्यवहार । जे बोले तेहज उत्थापे, शुद्ध करुं हुं मुख इम जपे ।। ८४ ॥ व्याख्या-अबर के बीजो कुमति एक बली भाषे के० कहे हे जे दया मात्र के केवल दया वेज शृद्ध व्यवहार जाणवो. एई जे मुखे वोले तहज उत्याप छे. पकाय भृत लोके कोण योगे दया याय? वली हुँ शुद्ध करुं हुं एम ते मुखे जपे छे. ।। ८४ ।।
जिनपूजादिक शुभ व्यापार, ते माने आरंत अपार ।
नवि जाणे उतरतां नई, मुनिने जीवदया क्यां गइ ।। ८५ ॥ व्याख्या-जिनपूजादिक जे शुभ के भला व्यागर, तहने कुमनि अपार आरंभ करी मान है. नवि जाणेन एम मुनिने नई क. नही उतरतां जीवदया क्यं गह? नयजाए उतर वा "जत्य जल तत्य वर्ण" इत्यादि रीत पकायनो वध संभव. ॥ ८५ ॥
जो उतरतां मुनिने नदी, विधि जोगे नवि हिंसा वदी। तो विधि जोगे जिन पूजना, शिव कारण मत भूलो जना ॥८॥