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(. १९६.) अर्थ-गणी के० आचार्य तेना सकल के० समग्र गुणरूप रत्ननी पिटक के० पेटी एट द्वादशांगीरूप जे गणीनी पेटी तेनो सार के० प्राधान्यपणुं ते जेणे ला के० जाण्यु छे एहवा समस्त द्वादशांगीना जाणने पण परम सार के प्रधान रहस्य परम सार ते एज शुद्ध नय परिणमनरूप कयुं छे ए द्वादशांगीना जाणने पण निश्चय नयज सार कल्यं छे तो बीजानी शी वात एम श्री ओघनियुक्तिमध्ये कयु छे. यत:-" परमरहस्समिसीणं, समतगणिपिडगझरियसाराणं । परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंवमाणाणं ॥१॥” इति. तो एह विण के० ए निश्चयनय समज्या विना दुःख के० पाप ते नवि मिटे के न टले तथा कोइक प्रतमा एह विण न घटे एम लख्यु छे ते नवि घटे के० दुःख ओछु न थाय माटे बेहुनो भावार्थ एकज छे ए सर्व वचन प्रथम अंगे घटे के श्री आचारांग सूत्रमा घटमान छे युक्त छे 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ जे सव्वं जाणइ से एगं जाणड' इत्यादि पाठगत् ॥११॥
शुद्ध नय ध्यान तेहने सदा परिणमे, जेहने शुद्ध व्यवहार हीयडे रमे ॥ मलिन वस्त्रे यथा राग कुंकुमतणो, हीन व्यवहार चित्त एहथी नवि गुणो ॥ १२ ॥
अर्थ-एटलीवार शुद्धनयनी मुख्यतायें बात कही हवे कोइक एम सांभलीने एकांत . निश्चयनयज अंगीकार करे अने व्यवहारनय लेखामां गणेज नहीं तेने शिक्षा करे छे जे पूर्वोक्त प्रकारे शुद्धनयतुं जे ध्यान तेतो ते माणीने सदा निरंतर परिणमे जे माणीने शुद्ध व्यवहार संयमानुष्ठान प्रवृत्तिरूप हीयडे रमे के० हृदयने विषे रमे तेना उपर दृष्टांत कहे छे जेम मेला वस्त्रने विषे कंकुनो अथवा केसरनो रंग न लागे तेमज हीणा व्यवहारवंतनाचितने नवि गुणो के० गुण न होय एटले व्यवहार विना निश्चय परिणमे नहीं ॥ १२ ॥ - जेह व्यवहार सेढी प्रथम छांडता, एक ए आदरे - आप मत मांडतां । तास उतावले नवि टले आपदा, क्षुधित इच्छायें उंबर न पाचे कदा ॥ १३ ॥
अर्थ-जे पाणी व्यवहार श्रेणीरूप जे अनुक्रम ते तो प्रथम छांडे छे तथा एक ए आदरे के एकलो ए निश्चय नयज आदरे छे आप मत मांडता के० पोतानुं मत दृढ करवां एक भवस्थिति उपर दृढ थया छे पण उधम करता नथी तो तेनी उतावळे आपदा टले नहीं एटले एकलो निश्चय पोकारवाथी संसार परिभ्रमणरूप आपदा टले नहीं जेम क्षुषित के. भूख्यानी इच्छायें वरना फल कदापि न पाके एटले उंबरफल ते जलसेवादिक क्रियाये पाके पण इच्छा मात्र न पाके. इतिभावः ॥ १३ ॥