Book Title: 125 150 350 Gathaona Stavano
Author(s): Danvijay
Publisher: Khambat Amarchand Premchand Jainshala
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अर्थ-वली समभाषी के० स्याद्वाद वचनना भाषी होय अथवा समभाषी के० गरीबने तथा मातवरने रागद्वेषरहितपणे देशना आपे क्या गीतार्थ होय नाणी के० सम्यक्ज्ञानी होय आगम माहेथी एहवा गीतार्थ लहिये के० पामीयें छैयें वली आगमअरथी के० पोतार्नु आत्मस्वरूप साघवाने उजमाल थया वया शुभमति के० भली मतिना धणी एटले जेमां कुमति कदाग्रह होय नहीं वली सज्जन के० उत्तम गुणवंत भली शिखामणना आपनारा एहवा गीतार्थ विना इहां सर्व पद संबोधने बोलावीये हे आत्मार्थि हे शुभमति हे सज्जन तमे कहो के ते एहवा गुरुगीतार्य पुरुष विना केम रहीयें के० शी रीते रही शकीयें ॥२१
लोचन आलंबन जिनशासन, गीतारथ छे मेढीरे। ते विण मुनि चढती संयमनी, आरोहे केम सेढीरे ॥श्रीजिन०२२॥
अर्थ-वली गीतार्थ ते ज्ञानरूप लोचनना आफ्नारा माटे गीतार्थने जिनशासनने विषे लोचन कहिये तथा दुर्गतिने विषे पडता माणीने आधार थाय माटे गीतार्थने जिनशासनने विषे आलंबन कहीयें वली गीतार्थ ते मेढी वरावर छे एटले जे खेतर खलाना वचमां स्तंभ रोपीने अन्न उपर फेरवे छे तेने मेढी कहीयें उपलक्षणथी स्तंभभूत कहीयें जेहने आधारें घरमालप्रमुख रहे छे तथा यान कहीये जेहने आधारे महाअटवीनो विहामणो मार्ग होय तोपण पार पामीयें. यत:-"मेढी बालवणं खंभ, दिछी जाणं मुउत्तम । गीयत्वं गुरुगुणाइणं, सम्म जाणमु गोयमा ॥ ॥" माटे ते गीतार्थ विना मुनिराज ते संयमनी सेढी के. श्रेणी केम आरोहे एटले केम चढे अने उत्तरोचर शुभाध्यवसाय केम वधे ए संयमश्रेणीनो अधिकार ते संयमश्रेणीनुं स्तवन अमारा गुरु श्रीउत्तमविजयजीकृत छे तेथी विस्तारें जाणवू तथा पंचसंग्रहयी जाणवु ॥ २२
गीतारथनें मारग पूछी, छांडी में उन्मादोरे।। पाले किरिया ते तुज भक्ति. पामे जगजश वाधारे ॥श्रीजिन०२३।।
अर्थ-ते गीतार्थनें मार्ग पुछीने उन्माद जे स्वेच्छाचारीतुं मदोन्मत्तपणुं ते छांड, ए रीते तमारी आणासहित चाले तेज चमारी भक्ति जाणवी वे तमारी भक्ति करीने जे क्रिया पाले एटले ए भाव के तमारी ए आज्ञा छे जे ज्ञानसहित क्रिया पाले ते प्राणी जगतनेविषे जशवाद पामे ॥ २३ ॥
॥ ढाल ठी॥ ॥ रामुडानी देशी अथवा हितशिक्षा छत्रीशीनी देशी ॥ प्रथम ज्ञान ने पछे अहिंसा, दसवैकालिक साखोरे । ज्ञानवंत ते कारण भजिये, तुज आणा मन राखोरे साहेवसुणजोरे १॥

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