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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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ॐ
PHLIGNORAGACASHASANSKAL SCIENCE
श्री वीतरागाय नमः। .. रस्वखमरानंद
अथवा वेतन कर्म कुछ।
अथवा
ओबाला. संवो मोतीलाल मास्टर
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ॐनाकSEKASHLES
सम्पादक श्रीमान् जैनधर्मभूषण-ब्रह्मचारी शीतलप्रसादी।
सम्पादक 'जैनमित्र'-सूरत ।
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प्रकाशकमूलचन्द किसनदास कापड़िया-स्थरत
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प्रथमावृत्ति ]
वीर सं० २४४९
[प्रति १०००.
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लागत मूल्य ०-३.० पझरनमा
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मुद्रक:मूलचन्द किसनदास कापड़िया, जैनविजय " प्रि. प्रेस, खपाटिया चकला - सूरत ।
प्रकाशक
मूलचन्द किसनदास कापड़िया दि० जैन पुस्तकालय चन्दावाडी-सूरत [
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भूमिका ।
जैन मित्र साप्ताहिक पत्र वर्ष १३ अंक १ वीर सं० २४३८ मिती कार्तिक खुदी २ से प्रारंभ होकर जैन मित्र वर्ष १७ अंक २० वीर सं० २४४२ मिती भादौ वदी २ तक हमने पाठकों को चेतन और कर्मके युद्धका दृश्य दिखानेके लिये यह लेख दियाथा | इसमें गुणस्थान अपेक्षा कर्मोंके विजयका वर्णन वीर मध्यात्म रसके साथ किया गया है। जैन तत्वके मरमी इस कथ नसे बहुत लाभ उठाएंगे। श्रीमती पंडिता चंदाबाईजी आराकी उदारता व अनेक तत्त्व प्रेमियोंकी प्रेरणासे यह निवन्ध पुस्तकाकार स्वल्पमूल्यसे प्रकाशित किये गये हैं। पाठकोंको सूचना है कि वे इसे वारंवार पढ़ें तथा इसका प्रचार करें कह भूल हो तो उदार विद्वान् क्षमा करके पत्रद्वारा सुचित करें ।
मिती कार्तिक सुदी ११ वीर सं० २२४९
ता. ३१-१०-२२
निवेदक
व्र० शीतलप्रसाद
आ० सम्पादक, जैनमित्र - सूरत
।
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विषय-सूची ।
नं०
१ - क्षयोपशम और विशुद्धल विष.... २-देशनालब्धि....
३ - प्रायोग्यलवित्र....
....
४- अधःकरण अपूर्वकरणलब्धि १ - अनिवृत्तिकरणलब्धि और सम्यक्त
६- प्रथमोपशमसम्यक्त
...
७- सासादान गुणस्थान... ८- पुनः प्रथमोपशम सम्यक्त ९ - मिश्र गुणस्थान १० - मिश्र गुणस्थान से पतन ११- अविरत सम्यक्त गुणस्थान १२- क्षयोपशम सम्यक्त १३ - देशविरत गुणस्थान.....
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१४- मुनिपद धारण
१६ - प्रमत्तविरत गुणस्थान १७- अप्रमत्त विरत गुणस्थान १८- अपूर्वकारण उपशमश्रेणी
१९- अनिवृत्तिकारण
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नं. ०
विषय
१०- सूक्ष्म सांपराय
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२१ - उपशांत मोह गुणस्थान २२ - उपशम श्रेणी से पतनं २३ - पुनः देशनालव्धि
****
३९- सूक्ष्म सांपराय ३६ - क्षीण मोह गुणस्थान
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२४ - पुनः उपशम सम्यक्त २५ क्षयोपशम क्षम्यक्त २६ - श्री महावीर भगवानका दर्शन
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२७- क्षायिक सम्यक्त २८ - पुनः देशविरत गुणस्थान .... २९- अप्रमत्त }} ३० - अप्रमत्त प्रमत्त गमनागमन.... ३१ - प्रमत्त गुणस्थानकी बहार ३२ - सातिशय अप्रमत्त ३३- अपूर्वकरण क्षपक श्रेणी ३४ - अनिवृत्तिकरण
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३७ - सयोग केवली मरहंत' ३८ - अयोग केवलीसे सिद्ध परमात्मा
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कारणों
योद्धभो
शुद्धाशुद्धि |
धर्म पद्धति से गिरा
कञ्चित्
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लंगोटकी
अज्ञा
प्रमत्त
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२१ आशक्त
स्थान विचय
१५ वारह.
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किसी दशा
दूसरे
शुद्ध
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घरकी
परदेश
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अनन्ता
करणों
योद्धाओं
गिरा
किञ्चित
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लंगोटको
भाज्ञा
प्रमत्त विरत
छठी
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संस्थान विचय
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संतू स्वरूपी
परंकाल अस्तित्व
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सेवा
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अशुद्ध
शुद्ध
यहाँ "उसीवक्त आदि" पहले फिर भेजता है
आदि पढ़ना चाहिये १ लाइन आगे पीछे उलंट
'गई है।
साहकर
आत्म
१६ उदय
बदल
९ नौकर्म
६ चेनत .
२५
साम्यक्ती
९
१९ चेतनके
ज्ञानरूपी
१० उज्जल
अंगों में
वीरागता
( ७ )
4
सम्हलकर
आत्मा
सत् स्वरूपको परकालनास्तित्त्व
सेना
हो रहा है
निम्न
फुटनोट देखो नं० २९
सम्यक्ती
हृदय
व दल
नोकर्म
चेतन
अज्ञानरूपी
चेतनकी
उज्वल
अंगों के
वीतरागता
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ट० ला० अशुद्ध .७० १९ सम्म ७१ .११ मिलाने
३ चलता है
८ जो , १४ वरणी. १७. विचार
२ मोह....वैरी ८. ४ अन्त
९ ठहरा ८१ ५ निश्चग , १३ तरहा.
शुद्ध सम्यक्त मिलने, चलाता है जो आनन्द ज्ञानावरणी अवीचार मोह वैरीके जीवनेके लिये अनन्त ठहर निश्चय तरह
..
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३३५.A.
HARTI
नमः श्रीवतिरागाय । ফুজ্জ্বল।
अनन्त कालसे महाभयानक मोहनगरमें परतंत्रतारूपी वैदके महान दुःखौंको गोगनेवाला आत्मा यकायक ज्ञानी आकाशगामी किसी दयावान शक्तिशाली विद्याधरती दृष्टमें आनाता है उसे परतंत्रताके महान गरी परुणागनक कष्ट में माकुलित देख वह विद्याघर कहता है, " रे आत्मन् ! तू क्यों मानेको भूल गया है ? क्या तुझको मालूम नहीं कि, तू स्वतंत्र स्वभावी है ? तू निश्चयसे तीन लोकका धनी, अनंत ज्ञान, दर्शन, वीय, सुखमई है ! तेरे रगने योग्य मोक्षानगरनिवासिनी शिवलिया है ? जिस गोह रानाकी पुत्री कुमति कुलटाके मालों में तू मोहित हो रहा है उसने तेरी हे चेतन 1 देख कैसी दुर्दशा कर रखी है। तेरी सम्:ति हर ली है । तुझे कदमें डाल रक्खा है। तू ऐसा बावला है कि उसके दिखाये हुए प्रमात्मक रूपों मोहित हो उसके क्षणिक मोहमें तु अपनी सपंथा दुशा कर कहा है । मैं तेरै फाटसे भाकुलित हुआ हूं। मेरे चित्तमें तेरे ऊपर बड़ी ही करुणा आई है । मैं तुझको इस नगरसे छुड़ा सक्ता हूं। और तुझे तेरी मनोहरी सच्ची प्रेमपात्रा शिरतियासे मिला सकता हूं। तू कुछ शंका न कर, मोहकी सेनाको विध्वंस करने के लिये तथा तेरे पाससे अलग रखने के लिये मेरे पास बहुत फोन है। मैं तुझको पूर्ण सहायता..
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स्वसमरानन्द ! दंगा। तू अब यह निश्चय कर कि तू अनन्त गुणी परम सिद्धकी जातिवाला है । पिंजरे में बन्द सिंहके समान अपनी शक्तिको क्यों खो रहा है ! वृथा झूठा मोह छोड़ । भवन्धन तोड़।" विद्याधरके यह वचन सुन वह चुप हो रहा भोर कुछ उत्तर न दे सका । विद्याधरने विचार किया अभी चलना चाहिये। एक दफेकी रस्सीकी रगड़से पत्थरमें चिन्ह नहीं बनते, इसलिये पुनः पुनः सम्बोधकर इस विचारे दीन मानवका कल्याणकर इसके दुःखोंको मिटाना चाहिये। विद्याधर जाता है । वह परतंत्र मात्मा एक अचम्भेमें आनाता है परन्तु कुछ समझता नहीं । तथापि नो अशुभ परिणतिरूपी सखी पाकर उसको बातों में उलझाती थी उससे चित्तमें अरुचि आती जाती है तथा शुभ परिणतिरूपी सखी नो कभी २ इस आत्माको देख जाया करती है उसके दर्शन पा लेनेसे यह चित्तमें हर्षित होता है और पुनः उसफे देखनेकी कामना करता है । वास्तवमें इस भवपिंजरमें पड़े पक्षीके छूटने के लिये अब काललब्धि मागई है । इसके तीन कर्मों का क्षयोपशम हुआ है । यह अन मनकी प्रौढ़ विचारशक्तिमें ज.ग रहा है। क्षयोपशमलब्धि देवीने इसपर दया की है। उसीकी प्रेरणासे विद्याधरका आगमन हुआ है । साथ ही विशुद्धिलब्धि देवी अब अशुभ परिणतिरूपी सखीको पुनः पुनः उसके पास जानेसे रोक रही है और शुभ परिणतिको पुनः पुनः मेजकर उसकी प्रीति शुभ परिणतिसे वृद्धि करा रही है। धन्य है यह आत्मा, अब इसके सुधारका समय भागया है । भर इसके दुःखोंका अन्त आ गया है। अब यह शीघ्र ही अपने अनंत
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(३)
स्वसंमरानन्द । बलोंकी श्रनाकर परमज्ञानी विद्याधर मित्रकी सहायतासे मोह शतसे युद्ध करनेको तयार हो मायगा और मोहकी सेनाका विस फरनेफा उपाय करेगा। धन्य हैं वे प्राणी जो इस युद्धमें परिणमन करते हैं। उनके पतरंगमें अध्यात्मिक वीररसका उत्साह आता है, और अब वह अपने गुणघाती किसी शत्रुका पराजय करते हैं तो उनके इपंकी सीमा नहीं रहती ! वे अपने भापमें परमोत्कृष्ट आत्मवीरताके रसका स्वाद ले स्वसमरानन्दके मामोदमें तृप्त रहने हुए दिन प्रतिदिन अपनी शक्तिको बढ़ाते चले जाते हैं और शिवनगरमें पहुँचने के विनोंको हटाते जाते हैं।
ज्ञानी विद्याधर थोड़े दिनोंक पश्चात ही संसार मसीभूत मात्माकी दुश्वमई भवस्थाको विचारकर अपने मासनको त्यागता है, भोर मोहनगरमें माकार माफ श मार्गसे उस आत्माको देखता है । वह मात्मा इस समय एक कोने में बैठा हुमा अचम्भेके साथ उसी विद्याधरको याद कर करके विचार रहा है कि वह कौन था जो मुझको कुछ सुनाकर चला गया, फई दिन हुए इससे यद्यपि मुझे उसकी बात याद नहीं है तथापि उन वचनोंकी मिठता और कोमलता भमतक मेरे मनको सुहावनी मालम हो रही है। वह अवश्य मेरा कोई हितू ही होगा। अब मैं उसके मनोहर शब्दोंको फिर कब सुन ! यह विभावपरिणतिसे परेशान आत्मा ऐसा मनन कर रहा था, कि यकायक वह विद्याधर चोक उठ', " हे मात्मन् ! क्या मिन्ता कर रहा है ? क्या तुझे अभीतक अपने रुपकी खबर नहीं है ! तू चैतन्यपदका पारी ममल' अटूट भसं
!
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खसमरानन्द ।ख्यात् प्रदेशी, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, सम्यक्त, चारित्र, स्वस्वं. रूप तन्मयत्व आदि अनेकानेक गुणोंका भण्डार परम रूपवान है । तेरी शक्ति अनन्त अपार है । जो तू अपने पदकी रुचि मात्र करे तो तेरा यह कारावास अन्तपनेको प्राप्त हो जावे। देस; प्यारे मित्र ! मोह और उसकी कुपुत्री कुमतिने तुझे ऐसा वावला बना दिया है, तेरी ज्ञान दृष्टिपर मोहनी धूल डाल दी है कि तू जहां कनक है वहां पीली मिट्टी देख रहा है। जहां अगर-बन है वहां तू बबूलवन कल्पना कर रहा है, जहां भचल अभिराम आनन्दधाम है वहां तू नर्कका मुकाम मान रहा है । जहां विपश्चा समुद्र है वहां तू अमृतसागर जान रहा है । जहाँ अमृतसागर है वहां तू विषधर कल्पना कर रहा है। नो तुझे अनंत कालतक मुंख देनेवाला है उसे तू दुःखदाई नान रहा है । विषयवासनामें पड़कर आज तक किसी जीवने तृप्तता नहीं पाई । हे मित्र ! मेरी ओर देख " ये वचन क्या थे, मानो प्यासके लिये जलरूप थे, भूखेके लिये अन्नरूप थे। सुनते ही ऊपर देखता है परन्तु फिर भी वही आश्चर्य की बात है क्योंकि उसकी समझमें उस विद्याधरका कथन फिर भी नहीं आया। परन्तु इसकी रुचि देखकर वह विद्याधर समझ गया कि इसके परिणामोंने अपने हितकी तरफ ध्यान दिया है और फिर उसको कहता है, " हे मित्र! तू कमर कप्स, मोहसे लह, भय न कर, हम तेरी हर प्रकारसे सहायता करनेको उद्यत हैं । " अब यह समझता है और कहता है, "हे मित्र ! तुम्हारे वचन मुझे बहुत ही इष्ट मालूम पड़ते हैं । कृपाकर ऐसे ही बचनोंका समागम मुझे नित्य प्रदान
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(५) वसमरानन्द । करें।" विद्याधर अपने उद्देश्यकी पूर्ति समझ कहता है, "है मित्र ! धवष्टाओ नहीं, हम नित्य तुमको धर्मामृत पानं करानेके लिये भाएंगे," और तुम्हें युद्ध करने योग्य बल. प्रदान करेंगे । धन्य है यह आत्मा ! इसको अब देशनालब्धिकी प्राप्ति हुई है। जिनवाणी अपना असर करती जाती है । अंतरंगमें अशुभ कोका कडुवा रस बदलता जाता है । शुभ कर्मों का मिष्ठरस अधिक मीठा होता जाता है । यह मांत्मा अवश्य एक न एकदिन मोह शत्रुसें युद्ध ठान उसको परास्तकर शिवनगरीका राज्य करेगा । धन्य है यह युद्ध जिसमें हिंसाका लेश नहीं है, नो दयामय प्राणिसरक्षक है और जो अपनी क्रियामें परम मनोहर है। जो इस युद्धमें परिणमन करते हैं, वे अपने भाप ही भात्माकी सत्य सुखदाई भूमिकामें नयानन्दोंसे अतीत स्वसमरानन्दको लब्धकर परम आल्हादित रहते हैं।
' भन्य है परोपकारी विद्याधर जिसके नित्य धर्मरसके दिये हुए रुचिमई भोजनसे संसारी आत्माके शरीरमें पुष्टता और साहसकी वृद्धि हो रही है । क्रम २ से अव ऐसी अवस्था हो गई है कि, यह अपने अनंत बलको समझकर होशियार हो गया है और मोहकी सेनासे युद्ध करने के लिये तय्यार हो गया है। देशनालबिसे सीखे हुए विशुद्ध परिणामरूपी तीरोंको निर्भय होकर चलाने लगा है। मोह रानाकी नियत की हुई आठ प्रफारकी सेना संसारी आत्माके आठों ओर चल किये हुए है । इसने शुभ भावनाके मननरूप अनेक योद्धाओंको अपने मित्र ज्ञानी
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विद्याधरको पूर्ण कृपासे प्राप्त कर लिया है। वे योदा उन कर्माकी सेनाके ऊपर अपने तीरोंको छोड़ २ कर विहुल कर रहे हैं। इस घमसान युद्ध में आयु कर्मकी सेना जो बड़ी ही चतुर है इसके तीरोंसे बच जाती है, सदा ही इसके पीछे रहती हुई इसको उस स्थानसे निकलने नहीं देती है। शेष कर्मोंके योदाओंकी स्थिति कमजोर होती जाती है। जो कभी उनकी स्थिति ७० कोड़ाकोड़ी .सागर थी वह स्थिति घटते २ अंत:कोड़ाकोड़ी सागर मात्र रह गई है। इन माठ प्रकाकी सेनामें : कर्मोकी सेना बड़ी ही तीव्र है जिसको घातिया कहते हैं। इनका स्वभाव यद्यपि युद्धमें बाणोंकी चोटके पाने से पहले पत्थर तथा हड्डीके समान कठोर था, परन्तु वह खभाव वाणोंकी लगातार चोटोंके पानेसे भन लकडी तथा वेलके समान नरम हो गया है । तथा अघातिया कमौकी सेनामें जिन योद्धाओंका स्वभाव इतना अशुभरूप था कि उनके द्वारा पहुंचाई हुई चोटें विष और हालाहलके समान दुरा असर करती थीं उनका स्वभाव इस आत्माकी भावरूपी फौनोंकी चोटोंसे भव दीला पड़कर नीम और कांजीके समान हल्का होता चला जाता है तथा अघातिया कोंमें जिन योद्धाओंकी सेनाओंका स्वभाव पहिलेहीसे कुछ शुभ था वे योद्धा इस साहसी मात्माके वीरत्त्वको देख अधिक शुभ होते जाते हैं, अर्थात् गुड़, खांडके समान निनका स्वभाव था वह अब बदलकर अमृत और शर्करारूप होता जाता है । मोहराना अपनी सेनाके योद्धाओंको समय २ खिरते देखकर चाहता है कि अधिक बलवान और स्थितिवाले कोको भेजूं, परन्तु वे इस वीरके पराक्रमसे घबड़ाकर कायर हो
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(७) स्वसमरानन्द । रहे हैं । इसलिये लाचार हो वह वैसे ही कर्मके योद्धाओंको भेजता है, जिनकी स्थिति अंतःकोड़ाफोड़ी सागर है । साहसी मास्माकी विशुद्ध भावरूपी सेनाके योद्धाभोंके बलको बढ़ते देखकर जो नवीन मोह की फौन है वह अंतर्मुहूर्त तक अंतःकोडाकोड़ी साग. रकी स्थितिमें पल्पका संख्यातवां भाग घटती स्थितिको धरनेवाली 'ही समय २ में भाती है। फिर दूसरे अंतर्मुहूर्त तक उस अंत स्थितिम पल्यका संख्यातवां भाग घटनी स्थितिवाले कर्मोकी सेना समय २ माया करती है। इस तरह करते २ सात या आठसौ सागर स्थिति घटनेवाले कर्मोकी सेना भव आ जाती है तब एक प्रकृतिबंधापसरण होता है। इस प्रकार ३४ प्रतिबंधापसरणों के द्वारा घटती १ स्थितिवाले कर्मयोद्धा पाते हैं और अधिक स्पितिवाले कर्मयोद्धागोंकि मानेका साहस नहीं होता है । विशुद्ध भावधारी मात्माका ऐसा ही इस समय प्रभाव है। अब यह प्रायोग्य सन्धिका पूर्ण स्वामी हो गया है, इसने कर्म-शत्रुओंका बहुत चल क्षीण कर दिया है । धन्य हैं वे आत्मा को इस प्रकार शास्त्राभ्यासके द्वारा वस्तु स्वरूपका पुनः २ मननकर तथा सम्यक् मार्गकी भावनाकर अपने परिणामोंसे अनादि कालसे लग्न कर्म शत्रुभोंको पराजय करनेके लिये उद्यमवंत रहते हैं। भपना सुधा समूह अपने निकट है उसकी प्राप्तिमें जो रुचिवान होते हैं में संसारातीत अविनाशी निनरूपी समाधिमें तन्मय रहनेका हुल्लाप्त करते हुए निमघट कुरुक्षेत्रमें स्वसमरानंदका भोग भोगते नित्य आस्त्रयपर विनयपताका फहराते हुए आनंदित रहते हैं और भवके संकटोंसे बचनेका पक्का उपाय कर लेते हैं।
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स्वसमरानन्द।
(८)
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शुद्ध निधेष नयसे आनन्दकन्द शुद्ध युद्ध परमस्वरूपी आत्मा व्यवहार नयसे मोहनृपकी प्रबल सेनाके अधिपति आठ फमोके द्वारा घिरा हुधा अपने मित्र विद्याधरके द्वारा प्राप्त विशुद्ध मंद कपायरूपी सेनाओंके द्वारा उनका बल गंदार उनको भगा. नेका पुरा २ साहस कररहा है। यह भव्य है, शिवरमणीके नरपनेको प्राप्त होनेवाला है । मन इसको प्रायोग्य लब्धा स्वामित्व प्राप्त हो गया है। जिस पक्षकी विजय होती जाती है उस पक्षके योद्धाओं का उत्साह और साहस पड़ता जाता है। इस वीरात्माके विशुद्ध परिणामोंमें इस तरह उत्साहरूपी तरंगोंकी वृद्धि है कि समय २ उनमें अनंतगुणी विशुद्धता होती जाती है, अपनी सेनाकी अधोकरण लम्बिने होनेवाली चमत्कारिताको देखकर यह शूरवीर आत्मा एकाएक मोहनी कर्मकी वृहत् सेनाके बड़े दुष्ट और महा अन्यायी पांच सुभटपतियों ( अफसरों) को ललकारता है और उनका सामना करनेको उद्यमीभूत होता है। यह पांच सुभट सम्पूर्ण जगतको भवके चकरोंमें नचानेवाले हैं। इन्हीकी दुष्टतासे अनंतानंत जीव इस सप्तारमें अनादिकालसे पर्यायमें लुब्ध होकर मालित हो रहे हैं। इन दुष्टोंकी संगति जबतक नहीं छूटती तबतक कोई जीव इस जगतमें किसी कर्मशत्रुका न तो क्षय करसक्ता है न उनके बलको दवा सक्ता है । जीवोंको भव २ की आकुलतामयी उराधियोंमें परेशान, अज्ञान और हैरान रखकर उसको एकतानके गान अमलान सुखथानमें स्ववितानका निशान स्थिर रखकर आत्मरस
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(९) स्वसमरानन्द ! मलस्थानमें स्नान तो क्या एक डुबकी मात्र ठहरानको न करने देनेवाले यह पांच भात्म री हैं । पांचोंमें प्रधान मिथ्यात्म सेनापति है, और अन्य चार अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, उस प्रधानके अनुगामी मित्र हैं। इन पांच अफसरों के नाधीन कर्मवर्गणा नामके अनगिन्ती योद्धा युद्धके सन्मुख हो रहे हैं। और अपने तीक्ष्ण उदयरूप बाणों को लगातार उस वीर मात्माफे विशुद्ध परिणामरूपी सुमटोंपर छोड़ रहे हैं परन्तु ये हुमट तत्त्वविचारकी अत्यंत कठिन ढालसे उन बाणों की चोटोंसे बिलकुल बच जाते हैं। और यह सुभट अपने वाणोंको इस चतुरतासे चलाते हैं कि उन पांचों सेनाके सिपाहियोंकी स्थिति कम होती जाती है, तथा उनका रस भी मंद पड़ता जाता है । फेवल इन पांच सेनाओंहीका बल क्षीण नहीं हो रहा है, किन्तु सर्व विपक्षियोंकी सेनाकी कुटिलता और स्थिरता निर्मल होती जाती है।
एक मध्य अन्तर्मुहूर्ततक युद्ध करके इस वीरने अपना बहुवसा काम बना लिया है। अब इसके विशुद्ध भावोंकी सेनामें सपूर्व ही जोश, उत्साह और साहस है । सत्य है इस समय इसके योद्धाओंने अपूर्वकरणलब्धिका चल पाया है। अब ऐसी अपूर्वता इसके विशुद्ध परिणामोंमें है कि इसके नीचे के समयका के ई अन्य आत्मा किसी भी उपायसे इसके परिणामोंकी बराबरी नहीं कर सका है, जब कि ऐसी बात इससे पहले अधोकरणमें सम्भव थी। अब समय २ अपूर्व २ अनंतगुणी विशुद्धताकी वृद्धिको धरनेवाले सुभट अपने वाणोंको, तलवारोंको
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स्वसमरानन्द।
(१०) नरछियोंको इतनी तेजीसे चला रहे हैं कि पांचों सेना के सिपाही घवड़ा गए हैं, करीब २ हिम्मत छूटती जाती है, समय १ भमते झरते जाते हैं तथापि समय १ अपने सदृश अनंत कर्म वर्गणाभोंको बुला लेते हैं। इसीसे अभी सन्मुखता त्यागते नहीं। धन्य है यह वीर भात्मा-परम धीरताके साथ युद्धकर रहा है मौर इस बातपर कमर कप्त की है कि किसी तरह इन पा को यदि क्षय न कर सका तो निर्बल कर भगा तो भवश्य देना। नातक कोई पुरुष किसी इष्ट और साध्य कार्यके लिये भपने एक मन, वचन, कायसे उद्यत नहीं होता और संकटोंकी भागतिमे भाकुलित नहीं होता तबतक कार्यका सिट होना कठिन क्या असाध्य ही होता है । जिसको जैनागमके अदभुत रहस्य से परिचय हो गया है वह जीव जिनत्व प्राप्त करनेको तत्पर हो जाता है। नैसे द्रव्यका लोभी देश प्रदेश नाकर दुःख उठानेकी कोई चिन्ता न करके किसी भी रीतिसे द्रव्यको उपार्जन करता है व विधाका लोभी दूर निकट क्षेत्रका विचार न कर विद्याफा लाम हो वहीं भवेक कष्ट उठाकर जाता है और विद्याका काम करता है। इसी तरह मात्मीक सुधाके स्वादका लोलुपी जहां व निस उपायसे यह तृप्तिकर परम मिष्ट स्वाद मिले उसी जगह जा उसी उपायको कर निस तिस प्रकार सुधासंवेदका उद्यम करता है ऐसे ही यह वीर भात्मा परमदयालु विद्याधरके प्रतापसे निज मनुभृतितियाकी प्राप्तिका लोलुपी होकर अपने सारे उपयोग और शक्तिको इसी अर्थ कगा रहा है और इस अनुभूति-तियाके संवेदके विरोधी शत्रुओंसे भी जानसे युद्ध करता हुआ रंचमात्र
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स्वममरानन्द |
भी खेद न मान स्वसमरानंदके विशाल सुखमें कलोलें लेता हुआ अपने भाशाके पुष्पोंकी मालाकी सुगंधी ले लेकर संतोषित हो रहा है ।
(११)
(५)
परमदयालु विद्याधरकी प्रेरणासे जागृत हुआ वह वीर आत्मा मोह शत्रुसे युद्ध करनेके काय में खूब दिल खोलकर तन्मय हो रहा है। अपूर्वकरणकी लब्धिके पीछे मब इसने अनिवृप्तिकरणकी कब्धि प्राप्त करली है। अब इसके फौनके सर्व सिपाही बदल गए हैं। एक विलक्षण जातिकी परम बलवान सेना इसके पास समयर आ रही है । यह सेना बड़ी बलिष्ठ है । - इस प्रकारकी सेना उन्हीं सुभटोंको प्राप्त होती है जो उन पांचों दुष्टोंको बिलकुल दवा ही देवेंगे । यह मोह शत्रु बड़ा क्रूर है | इसने अनंते जीवोंको कैदमें डाल रखा है। परम कृपालु विषाधरकी कृपा से यदि कोई एक व दो मादि अनेक आत्माएं भी सुचेत हों, इससे युद्ध करने लग जाय और अनिवृत्तिकरणविकी शक्तिका लाभ करें तो सर्व ही जीव एकसी ही बलवान परिणामरूपी सेनाको समय २ पाते हुए एक साथ ही इन पांचों दुष्ट सुमोको एक अंतर्तके भीतर ही दबा देते हैं । इस वीर आत्मा के युद्धके प्रतापसे जो मोह शत्रुकी शत्रुता द्वारा १४३ ( तीर्थंकर, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, सम्यक्त मोहनी, मिश्र मोहनी सिवाय ) कर्म प्रकृति वीरोंकी सेना अनादिकाल से उस आत्माको घेरे हुए दुःखी किये हुये थी उनमें के बहुतसे वीरोंको इसने प्रायोग्यलब्धि प्राप्त करनेपर ३४ बंधापसरणोंके द्वारा ऐसा
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स्वसमरानन्द । कमनोर कर दिया है कि वे अपनी नई सेना मेमनेसे रुक गए हैं, तथा इन पांचोंका तो वह इस समय इस धीरवीरने बहुत ही कमजोर कर दिया है, इसकी सेनाको तितर चितर कर दिया है सो इसकी सर्व कर्मवर्गणारूपी सेना कुछ भागे व कुछ पीछे चली जारही है, इसके सामनेसे हट रही है। उधर उत्त उत्साहीके उत्साहका पार नहीं है, अत्यन्त विशुद्ध सम्यक्त शक्तिके प्रादुर्भाव करनेको समर्थ परिणामरूपी योद्धाओंने अपने तीक्ष्ण बाणोंसे उन पांचों सुभटोंको ऐसा परेशान कर दिया है कि, वे इस समय घबडा गये हैं और अपनी सेनाको तितर-बितर देखकर यही विचार करते हैं कि अब हमारा बल ठहरनेका नहीं, हमारी सेना विखर गई है। उचित है कि. हम एक अंतर्महूर्त ठहरकर अपनी सेनाको सम्हाल लेवें, फिर इसको कहां जाने देंगे, तुरंत इसके बलको नाश कर डालेंगे। थोड़ी देर इसको क्षणिक आनन्द मना लेने दो । अभी तो मेरे साथी वहुतसे वीर इसको दुखी कर रहे हैं। यह हमारे क्षेत्रसे बाहर तो जाने हीका नहीं है। ऐसा विचार यह पांचों दब जाते हैं अर्थात् उपशगरूप होकर एक अंतर्महूर्तके लिये अपने किसी प्रकार के बलको इस आत्मामें दिखलाते नहीं । इन पांचोंका दबना कि इस वीर आत्माको प्रथमोपशम सम्यक्तकी अपूर्व शक्तिका लाभ होना । अश! हा !! अब तो उसके हर्षकी सीमा नहीं, इसने अनादि कालके बड़े भारी योद्धाओं को दबा दिया है । उसी समय विद्याधर आता है और कहता है " शाबास, शाबाप्त ! अब तेरा संसार निकट है, तू शीन ही मोक्ष नगरका राजा होगा और वहांके अतीन्द्रिय सुखका
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(१३) स्वसमरानन्द। विलास भोगेगा। अपनी स्वस्वरूपलब्धिके लाभकी भाशाने इस भात्माके अंतरंगमें परम संतोष, परम शांत भाव भर दिया है। इस समय यह भी अपनी सेनाको विश्राम देता हुभा अपने अनंत शक्तिशाली स्वरूपका अनुभवकर जगतके आनन्दोंसे दूरवर्ती परम सुखको भोगता हुआ स्वसमरानन्दके अद्भुत विलासमें विश्वास घर परम सम्यक्त भावका लखाव कर रहा है।
परमानंदविलास, सुखनिवास, सद्भुणाभास, परमात्म प्रकाशमईके अनुपम चिद्धासके लाभका उत्साही यह अनादि मिथ्यादृष्टी.. आत्मा अनिवृत्ति करणलचिके प्रभावसे प्रथमोपशम सम्यक्तकी अपूर्व. शक्तिको प्राप्तकर समय १ अद्भुत विशुद्धता पा रहा है। यद्यपि अनादिके पीछे पड़े हुए मोहके भेद विवक्षासे. १५३ शत्रुओंमें से तथा अभेद विवक्षासे ११७ शत्रुओं से (क्योंकि सादिक २० में, ४, तथा ५ बंधन और ५ संघात, ५ शरीरोंमें गर्मित हैं इसलिये २६ कम हुई) अम केवल १०३ शत्रुओंकी सेना ही इसको आकुलता पहुंचा रही है। तथापि यह वीर इस समय इस भानन्दमें मस्त है कि मैं अब अधिकसे अधिक मईपुद्गल परावर्तनकालमें ही अवश्य शिवनगरमें जाकर निवास करूंगा और स्वसुधा-समूहका स्वाद अनंत कालतक भोगूंगा । इस समय मिथ्यात १, एकेन्द्रियनातिर, टेन्द्रियनाति३, तेन्द्रियनाति ४, चौन्द्रिय नाति५, स्थावर, आताप७, सूक्ष्म (, अपर्याप्त९, साधारण १०, अनन्तानुबन्धी क्रोध ११, अनन्तानुवन्धीमान १२, अनन्तानुबंधिमाया १३, अनन्तानुधिलोभ १४, इस प्रकार ११७ मेसें १५ शव दवे
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स्वसमरानन्द। बैठे हैं तथा नई सेना भी माना बन्द हो गई है। इन १४ की तो नई सेना आती ही नहीं; इसके सिवाय हुंडक संस्थान, नपुंसफवेदर, नरकगति३, नरकगत्यानुपूर्वी४, नरकायु५, असंप्राप्तस्फाटिकसंहनन, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा८, प्रचा प्रचलाए, दुर्भग १०, दुस्वर११, अनादेय१२, न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान १३, स्वातिस०१४, कुनकस०१५, वामनसं०१६, बजनाराचसंहनन१७, नाराचसं०१८, महनाराचसं०१९, कीलितसं०९०, मप्रशस्तिविहायोगति२१, स्त्रीवेदर२, नीचगोत्र २३, विर्यगति२४,तिर्यगत्यानुपूर्वी२५, तिर्यचायु२६, उद्योत२९-ऐसे २७ शत्रुओंकी सेनाका माना और भी बन्द हो गया है। इस उपशम सम्यक्तकी अवस्था मनुष्यायु और देवायुकी सेना भी नवीन मानेसे रुक गई है । केवल ७४ प्रकृति ही अपनी नई सेना भेजती है । तथापि इस आनंदमईको इस समय किसीकी 'परवाह नहीं है । यद्यपि कुछ शत्रु दवे बैठे हैं, कुछ पुराने ही अपना नोर कर रहे हैं; तथापि इसकी रणभूमिमेंसे १४३ प्रकृति मई शत्रुओं में से किसीकी सत्ताका नाश नहीं हुमा है । ऐसा होने पर भी इस समय इसके साहसका पार नहीं है । इनके उत्साहकी थाह नहीं है । यह अपने बलको समय २ सावधान किये हुवे मनुपम रुचिके स्वादमें तृप्त हो रहा है। उधर वे शत्रु इसको अंतर्मुहूर्तके लिये मगन देखकर इसकी ओर इसके दबानेके लिये नाना विकल्प कर रहे हैं और दांत पीस रहे हैं । तथापि इस निधिके स्वामीको कुछ परवाह नहीं है। यह अपनी स्वरूप
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(११)
स्वसमशनन्द ।
शक्तिके आल्हाद में हर्षित होता हुआ स्वसमरान्दका आनन्द मना रहा है ।
(७)
निज आत्मस्वरूपकी प्रकटताका अभिलाषी सिद्ध समान निज रूपका विश्वासी, वास्तवमें निज शुद्ध ग्रामका वासी आत्मा १ अंतर्मुहूर्त तक अपूर्व ही आनन्दको भोग रहा है । इस समय इसके आनन्दकी जाति भिन्न ही प्रकारकी है । इन्द्रियाधीन सुखकी सीमापर पहुंचे हुए बड़े २ धुरंधर ऐश्वर्यधारी इस सम्यक्त विलासके सुखसे मानंदित मात्मा समयमात्र सुखकी भी बराबरी नहीं कर सकते। असल में देखो तो यह आत्मा इस कालमें भी मोक्ष सुखका ही अनुभव कर रहा है । मानों मुझे मोक्ष प्राप्त ही हो 1 गई अथवा मैंने शिवतियाका लाभ ही कर लिया, ऐसा हर्ष इस वीर साहसी आत्माको हो रहा है । परन्तु खेद है यह इसका आनन्द थोड़ी ही देरके लिये हैं । यह तो इधर स्वस्वभाव कल्लोलमें फेल कर रहा है उधर मिथ्यात्व प्रकृतिने अपनी विक्रियासे इस आत्माको दवाने के लिये अपनी सेना के ३ रूप कर लिये १ ला सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व रूप २ रा सम्यक् मिथ्यात्वरूप और ३ रा मिथ्यात्वरूपा यह सेना एक दूसरे से विकटरूपमें सजती भई । इतने में ३ रा अनन्तानुबन्धी कषाय जो दवा बैठा है, यकायक उठता है और इसको निज सत्ता भूमिमें निद्रिन देखकर अपना ऐसा प्रचल हमला करता है कि उस उपशम सभ्यक्तीका उपयोग जागता है और ज्यों ही अपनी आंख खोलकर उसकी ओर निहारता है कि दवा लिया जाता है । और आनकी आनमें सम्यक्तसे गिरकर साप्ता|
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स्वसमरानन्द । दनकी भूमिकामें आ जाता है। अब यहां इसकी सत्तामै १४१* कर्म प्रकृति सेनाओंके साथ दो कर्म प्रकृति की सेना और मिस जाती है और १४३ कर्म प्रकृति सत्तामें हो जाती है । इसके एक समय पहले तो १०३ शत्रुओं की सेना ही सामना कर रही थी, परन्तु अब ९ प्रतियोंकी सेना जो खाली बैठी थी वह भी रठ खड़ी हुई और इस आत्माको दुःखी करने लगी। इन ९ में हैं तो अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोम और ५ में स्थावर एथेन्द्रिय जाति और विकलत्रय ऐसे ९ प्रकृतियों की सेना माजाती है । और नरकगत्यानुपूर्वी इस गुणस्थानमें दब जाती है, इससे १११ प्रकृतियोंकी सेना अपना जोर दिखलाती है । तथा नई सेनाका आगमन जो इसके पहिले केवल ७४ ही ही का था भा बढ़ता है और ११७ में से १०१ प्ररूतियोंकी सेनाका आना होने लगता है । जो २७ शत्रुओंझी सेना पहिले गिनाई थी उसमेरो हुंडक संस्थान, और नपुंसक वेद निकालकर तथा मनुष्यायु और देवायु जोड़कर शेष सर्व २७ प्रतियोंकी सेनाका मागमन पहलेकी अपेक्षा इप्त गुणस्थानमें बढ़ गया है। इस सासादन अवस्था मात्मा एक गहलतामें आ जाता है, सम्यतभावसे छूट जाता है। तीव्र कपायके आवेशमें उत्कृष्ट . * फुट नोट-इस लेख के गत प्रपन्धोंमें अनादि मिश्यादृष्टीके: १४३ का इंध लिखा था सो १४१ का ही बंध समझना चाहिये। तीर्थर, आहारक शरीर, आहारक बंधन, आहारक संघात, आहारक
आंगोपांग, सम्यक मिथ्यात्व, सम्यक प्रकृति मिथ्यात्व.. इन ७ का बंध नहीं होता।
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(१०) स्विसमरानन्द । आवली प्रमाण और जघन्य १ समय प्रमाण बावना रहकर तुरत मिथ्यात्वकी भूमिकामें आनाता है। हा ! जो आनन्द इस निराकुल आत्माको थोड़ी ही देर पहले था वह सत्र अस्त हो जाता है और यह महा दुखी होकर विषयोंकी चाहकी दाहमें जड़ने लगता है और उनकी ही प्राप्तिके सोचमें तड़फड़ाने लगता है। यदि कोई विषय मिल जाता है तब अन्य विषयों की तृष्णामें विह्वल रहता है।
धन्य हैं वे प्राणी जिन्होंने मिथ्यात्वकी सेनाओंको सत्तासे ही नष्टभ्रष्ट करके भगा दिया है और जो क्षायिक सम्यक्तकी दृष्टिसे निर्भय हो स्वसमरानन्दका अनुभवकर तृप्त रहते हुए अचिन्त्य रहते हैं।
आनंदकंद, अविनाशी, परम निरंजनत्व मनन अभ्यासी आत्मा इस समय मिथ्यात्व भूमिकामें घिरा हुआ हुमा मोहरानाके प्रमल भटोंकी सेना द्वारा चारों ओरसे दुखी और व्याकुल हो रहा है | अभेद विवक्षासे उदय योग्य १२२ पतियों (स्पर्शादिमेंसे ४ लेकर १६ बाद दे तथा ५ बंधन, ५ संघ तको शरीरोंमें ही गर्मित कर १० बाद दे, १४८में से २६ जानेसे १२२ प्रकृति उदय योग्य होती हैं ।) की सेनामें सम्यक्पति, सत्यग्निपात्य, महारक शरीर, आहारक आंगोपांग और तीर्थंकर प्रकृति की सेना अपना बल नहीं दिखला रही है । बड़ी कठिनतासे किसी काल लब्धिक चश परोपकारी सद्गुरुद्वारा इस आत्माने निस अनादि मिथ्यात्वसे जाना पग छुड़ा लिया था, खेद है सीने फिर इसको दवा
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___(१८)
स्वसमरानन्द। दिया। अब यह फिर पहिलेके समान बावला हो रहा है। नितने शत्रुओंकी सेना इसको निराकुल सुखानुभवसे रोक रही है उतने ही शत्रुओंकी सेनाएं बराबर आती रहती हैं और इसको बांधती रहती हैं । इस आत्माकी सत्ता भूमिमें अब सर्व १४५ शत्रुओंकी सेना ही खड़ी है, क्योंकि अभी तक यह न तो छठे गुणस्थान में चढ़ सका है और न इसे केवली श्रुतकेवलीकी निकटता हुई है और न १६ कारण भावनाका ऐसा मनन ही किया है जो इसे तीथकर प्रकृतिकी सेना बंधनमें डाले । बहुत फालतकं इस दीन
आत्माको कर्म शत्रुओंसे अपनी निर्बल दशामें लड़ते हुए और हारते हुवे देखकर परम दयालु सत्यमित्र विद्याधर आते हैं और उसे ललकार कर कहते हैं, " हे आत्मन् किधर गाफिल हो रहा है ! ! देखो, कितने परिश्रमसे तूने मिथ्यात्व और ४ कपायोंको दवाया था ! ! ! परंतु तेरे प्रमादसे वे अब ५ से ७ होगए हैं अब तुझे साहस करनेकी आवश्यक्ता है । मैं तत्त्वज्ञानरूपी मेरे निकटवर्ती मुसाहबको तेरे पाप्त छोड़ता हूं। तृ. इसकी सहायता ले इसकी सम्मतिसे युद्ध कर अवश्य विजयी होगा!" सच है, जो सच्चे मित्र होते हैं वे दुःखीकी भापत्तियोंको मेटने के लिये अपनी शक्तिभर परिश्रम उठा नहीं रखते । तत्वज्ञ.नसे पुनः पुनः हरएक क्रिया में विचारके साथ वर्तनेवाला धीर आत्मा फिर निन पुरुषार्थ सम्हाल बड़ी ही वीरतासे, कर्म-शत्रूओंसे युद्ध करता है: देखते २ प्रायोग्यलब्धिको पा कर्माकी दशाको निर्बल कर देता है और शीघ्र ही तीनों कारणों के द्वारा सातों प्रकृतियोंको फिर दबाकर याने उपशमकर प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टी हो
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(१९) स्वसमरानन्द। जाता है और यहां आकर स्वरूपाचरण चरित्रमें रमन करता है। धन्य है परिणामरूपी संसारकी विचित्रता, जिसने इस आंत्माको आनकी आनमें विषयं सुखकी श्रद्धासे हटाकर अतीन्द्रिय आत्मीक अनुभवकी दशाकी श्रद्धामें लाकर खड़ा कर दिया है। अब यह परम सुखी अपने परिश्रमको सफल लख स्वसमरानन्दका स्वाद ले अमृतानन्दी हो रहा है !!
- अपनी अनुभूति सत्ता भूमिमें सम्यग्दष्टी आत्मा यद्यपि बहुतसे कर्म वर्गणाओंकी सेनासे घिरा हुआ है और इसपर बाणोंकी .वर्षा हो रही है, तथापि चार अनंतानुबंधी कषाय और तीनों मिथ्यात्वके दब जानेसे मोहकी सर्व सेनाका बल घट गया है
और यह शिवपुखका अभिलाषी मोक्षनगरीके राज्य करनेका हुल्लासी अपने शुभाशुभ कर्मोंके उदयमई आक्रमणोंसे कुछ हर्ष विषाद नहीं करता है । सत्य विद्याधरके आज्ञारूप वचनोंमें श्रद्धा घार यह भव्य जीव इस श्रद्धा तन्मय हो रहा है कि मैं शीघ्र ही कर्मशत्रुओंका विजयी होऊंगा । यह साहसी अब अपने भात्माके मनोहर उपवन में जाकर सैर करता है और उसमें प्रफुल्लित होनेवाले स्वगुण वृक्षोंकी शोभा देख परम सुखी होता है। जो सुख नौ ग्रीवकवाले मिथ्यादृष्टी अहमिन्द्रोंको नहीं प्राप्त है, जो सुख. सम्यक्त रहित चक्रवर्तीके भागमें नहीं आता है, उस सुखको भोगनेवाला यह धीर वीर हो रहा है । सत्य है जो कोई निन उपयोग परिणतिको सर्व ज्ञेय पदार्थोसे संकोच 'परमात्माके शुद्ध अनुभवमें जोड़ता है, और थोड़ी देरके लिये थम
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खस मरानन्द ।
(२०)
जाता है उस समय उसको स्वस्वरूपकी अद्भुत बहार नगर आती है। ऐसी दशा में यह आत्मा भी सब्जित हो गया है। अब इसको कर्मशत्रुओंके आने, रहने तथा आक्रमणोंकी कुछ भी परवाह नहीं
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है ! यद्यपि इसने स्वावरूपकी चिन्ता रक्खी है, सात शत्रुओंके बिना सारी मोहकी फौन बलहीन है वे ही शत्रु फिर इसको दवानेका उद्यम करते हैं ।
यह विचारा अंतर्मुहूर्त ही ठहरा था कि यकायक सम्बन्- " मिथ्यात्व नाम दर्शन मोहनीकी दूसरी प्रकृतिके योद्धाओंने इसको दवा दिया, और यह विचारा चौथे गुणस्थानसे गिरकर तीसरे में आ गया है। यहां इसकी बहुत ही बुरी दुर्गति है । मिथ्यात्व सम्यक्त दोनों का मिश्र भाव दही गुड़के स्वादके समान इसके अनुभव में आ रहा है। मिश्र प्रकृतिके बार्णोंके पड़ने से इसकी चेष्टा
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विहल हो रही है । धन्य हैं वे पुरुष जो इस प्रकृतिका विश 'कर क्षायक सम्यक्ती होते हैं । और फिर कभी भी इस शत्रुसे. दवाये नहीं जाते हैं । स्वस्वरूपके अनुभव के स्वादी है, वे ही स्वसमरानन्दका आल्हाद ले परम तृप्ति पाते हैं ।
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परन्तु जिन मालूम होती
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निश्चय नय से शुद्ध चैतन्यता विलासी परमतत्त्व अभ्यासी ज्ञानगुणविकासी आत्मा व्यवहार नयसे कर्मबंधन में पड़ा हुआ मोह शत्रुके द्वारा अनेक प्रकारसे त्रासित किया जा रहा है। कर्म शत्रुओंसे युद्ध करना एक बड़ा ही कठिन कार्य है । जो इस युद्धमें घबड़ाते नहीं किंनु तत्वविचारकी सहायता के - साहसी रहते हैं, वे ही अनादि कालसे संसारी आत्माको दुःखित,
भरोसे पर
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(i)
स्वसमरानंन्द ।
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करनेवाले कर्मो को दूर भगाते हैं । मिश्र गुणस्थानकी भूमिका में 'यह आत्मा आगया है। मिश्र मोहनीका बल मंत्र हो गया है । इस समय (११७- १६-१५-२ आयु ) ७४ कर्म प्रकृतियों की सेना समय २ आकर बढ़ती जाती है। दूसरे में १०१ आंती थीं । अत्र २५ तो दुसरे ही. तक रहीं तथा आयुकर्मका बंध इस मिश्रगुणस्थान में होता "नहीं, इससे दो आयु प्रकृति घटी | परन्तु १०० कर्म शत्रुओं की सेना इस गुणस्थान में इस आत्माको अपने असर से बाधित कर रही है । दूसरे गुणस्थान में जब १११ प्रकतियोंकी सेना दुखी कर रही थी, तब यहाँ अनंतानुबंधी : और एकेंद्रिय द्वेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौन्द्रिय तथा स्थावर ऐसे ९ ककी सेनाएं दब गईं हैं, तथा मरणके अभाव से नर्क सिवाय तीन शेष नुपूर्वी घटानेपर और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति मिलानेपर १०० प्रकृति अपना जोर कर रही हैं। रणभूमिकी सतांमें देखो तो जो सातवें नहीं चढ़ा है, उसके आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग तथा तीर्थकर इन तीनको छोड़ १४१ कर्मप्रकृतिकी सेना अपना चल कर रही हैं। वास्तवमें इस समय भी वह आत्मी बड़ी ही गफलत में है । इसके मिश्र परिणामों की पहचान अत्यंत सूक्ष्म है | एक अंतर्महूर्त ही नहीं बीता था कि यह आत्मा फिर मिध्यात्वके तीव्रोदयसे प्रथम गुणस्थानको भूमिमें आजाता है और पहले की तरह महामोहके बंधन में बंध जाता है । वास्तवमें परिणा
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मोंकी लड़ाई, बड़ी ही कंठिन है । पलक मारनेके भीतर ही इनकी उलटपुलट अवस्था हो जाती है । जो वीर भेदविज्ञानके भयानक शस्त्रको हाथमें रखते हैं वे ही इन शत्रुओं के हमलों से अपनेको
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स्वप्समरानन्द।
बचाकर अपने आत्मीक धनकी लोलुपतामें मगन रह स्वात्मपर्वतसे झरनेवाले स्वानुभव सुधारसका पान करते हुए और परको निनसे हटाते हुए स्वसमरानन्दका अद्भुत आनन्द ले परमसुखी रहते हैं।
हा! आनकी आनमें क्यासे क्या हो गया ? साहसी आत्माकी सेनामें अंधेरा छा गया! दर्शन मोहके भयंकर आक्रमणसे चैतन्य देवकी सर्व सेना विह्वल होगई ! मोहनी धूलकी ऐसी वर्षा हुई कि विशुद्ध परिणामरूपी योद्धाओंकी आखोंमें अंधेरा फैल गया। कषायरूपी प्रदल वैरियोंने आत्मीक धनकी सुधि भुलचा दी। जो आत्मा सम्यक्त मित्रकी सहायतासे निजधनको दृढ़तासे पकड़े हुआ था और उसीके विलासमें रमना अपना सुख समझता था, वही आत्मा उस मित्रके छूटने और मिथ्याद्रोहीके वशमें आजानेसे इन्द्रियोंके विषयोंको ही उपादेय मानने लगा है, विषयोंके लिये अन्यायसे धनोपार्जन करने लगा है, रात्रिदिन भवकी बाधाओंमें पड़कर दुखी होने लगा है, तथापि उनको त्यागता नहीं। परस्वरूपमें आप पनेकी बुद्धिने सारा ही खेल उलटा बना दिया है । बड़ा ही आश्चर्य है । निजरंग भूमिमें निजरूप धर कर नृत्य करनेवाला आत्मा आज पररंग शालामें अपना पर रूप बनाए पर हीकी चेष्टामें उन्मत्त होरहा है। अपनी पिछली अनादिकालकी निकृष्ट अवस्थामें रहने लग गया है। जिस तत्त्वज्ञान और तत्त्वविचार सेनापतियोंकी सहायतासे इसने मोहपर विजय पाई थी उनको भी अपनी सेवासे उन्मुखकर दिया है। यह दशा
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स्वसमरानन्द |
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देख परम दयालु श्री गुरु विद्याधर फिर आते है और जब इसके पासमें आक्रमण किये हुए मोहके योद्धको कुछ गाफिल और . बेखबर पाते हैं तब इस आत्माको फिर सचेत करते हैं । श्री गुरुका इतना ही शब्द कि, हे त्रिलोक धनी ! क्यौरे परघनमें राग करता है । देख तेरा अटूट भंडार तेरे ही निकट है । जरा
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अपनी नजर जगतसे फेर, निजघर में देख, तुझे तेरी निधिका
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: अवश्य निश्रय हो जायगा । इस आत्माको जगाता है और जैसे ही यह सचेत होता है तत्त्वज्ञान और तत्त्वविचार योद्धाओंकी 'सेनाएं विद्याधरकी प्रेरी हुई इसकी सहायता करने लग जाती हैं। यह वीर इन सेनाओं की सहायतासे मोह वैरीकी सातकर्मरूपी सेनाओंके जोरको और स्थितिको कमजोर कर देता है। अंत:कोहाकोड़ी सागर मात्र ही स्थितिकर देता है । और अपने बलको बढाते हुए प्रायोग्य और करणलब्धिके उज्वल परिणामोंके द्वारा दशनमोहनी के तीन और चारित्रमोहनीके ४ अनंतानुबंधी कपाय ऐसे सातों योद्धाओंकी सेनाको ऐसा दबाता है कि वह बिलकुल सामने से हट जाते हैं। उनका इटना कि यह आत्मा फिर सम्यक्त मित्रकी रक्षा में चला जाता है, उपशम सम्यक्तके विशुद्ध परिणामोंका कर्ता भोक्ता हो जाता है और इस दशा में मैं क्रोधादि कषायोंका कर्ता हूं और क्रोधादि कषाय मेरे कर्म हैं, इस बुद्धिको इटा देता है - जो जगत इसका कर्म और इसको रागी, द्वेपी कर रहा था वही जगत् अब इसका तमाशा हो गया है- यह वास्तव में 1. ज्ञाता दृष्टा है सो अब ज्ञाता दृष्टा पनेका काये ही कर रहा
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है | धन्य है यह आत्मा, इस समय इसका कार्य्यं और सिद्धम
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समरानन्द |
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हाराजका कार्य एक हो रहा है । अन्तर केवळ सराग और चीतरागका है ! धन्य हैं वे वीतरागी सिद्ध भगवान जिनका ध्यान सरागी जीव करते वीतरागी हो जाते हैं और अपनी साधक और साध्य दोनों अवस्था में स्वसमरानंदके कारण और कार्यसे द्रवीभूत होता हुआ जो परमामृत रस उसका स्वाद लेते हुए परमतृप्त रहते हैं ।
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उपशम सम्यक्तकी मनोहर भूमिकामें केल करनेवाला अत्मा जय शिवरमणीके प्यारी चिन्ताओं को कर रहा था और उसकी मुहब्बतसे पैदा होनेवाले आनन्दके लाभको ले रहा था, तब उधर मोहराजाके प्रबल सात भट जो आत्मवीरकी सेनासे थकके बैठ गए थे, वारचार मोहराना द्वारा प्रेरित किये जानेपर भी नहीं उठे । अंत तक मोहने इसका उद्यम किया परतु बिलकुल दाल न गली | आरमवीरके विशुद्ध परिणामरूपी योद्धाओंने इस कदर उन सातोंको परेशान किया था कि उनमेंसे छः वो बिलकुल निद्रित ही हो गए । सातवां सेनापति जिसका नाम सम्वतमोहनी प्रकृति था, जागता रहा। मोहकी डपटमें आकर वह उठा और ऐसी गफलत में उस वीरपर आक्रमण किया कि वह अत्मवीर उसको हटा नहीं सका। इसका प्रतिफल यह हुआ कि वह आत्मवीर उपशम सभ्यक्तकी भूमिकासे च्युत होकर क्षयोपशम सम्यक्तकी जमीन में आगया । इसने आते ही आत्मवीरकी सेना के विशुद्ध परिणामरूपी योद्धाओंके अन्दर मलीनता छा दी उनको सकम्प और चलायमान कर दिया । उपशम सम्यक्त की हालत में सर्व
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स्वसमरानन्द ।। योद्धो नीचे मैंल बैठे हुए निर्मल जलके समान उज्जवल थे, अब ऐसे होगए जैसे नीचेको मैलं ऊपर साफ पानी में मिल जानेसे पानीकी हालत मैली हो जाती है । उपशमसम्यक्तमें किसी आयुकर्मका बंध नहीं होता था, अब यहाँ मोहकी प्रेरणांसे आयुकर्मसेनापतिने अपनी सेना युद्धभूमिमें भेजना भी ठान लिया। सच है, निर्बल दशाको देखते ही शत्रुओं का दबाव होता हैं। इस भूमिकामें आनकर आत्मवीर इतना तो सचेत ही रहा कि इसने किसी भी तरह उन छ: बड़े मोहके सैनिकोंकों उठने नहीं दिया। यद्यपि सम्यक्त मोहनीने आकर किसी कदर अपना नशा आत्मवीरकी सेनामें फैलाया तथापि इसकी सेना चौथे गुणस्थानसे नहीं हंटी। मैं निश्चयंसे शुडबुद्ध स्वभाव, ज्ञाता, दृष्टा, अविनाशी हूँ। कर्मसम्बन्ध अनादि होनेपर भी त्यागने योग्य हैं। निज अनुभूति यद्यपि नवीन है, पान्तु ग्रहण करने योग्य है, इस विचारको इस वीरने नहीं त्यागा । तथा सम्यक्त मोहनीके बलने कभी २ सप्त भयोंमें फंसाया; कभी २ संसारीकः भोगोंकी तृष्णाको 'बढ़वाया; कभी २.पर पदार्थोंमें उदासीनताके बदले घृणाको उत्पन्न कराया, कभी २ आत्मज्ञान रहित पुरुषों का धर्मपद्धतिसे आदर सत्कार करवाया, तो भी चौथे गुणस्थानसे कभी इसको धर्मपदंतिसे गिरा नहीं सका और नं इस मामवीरके पुरुषार्थको कम कर सका। यह वीर अपनी भूमिकामें खड़ा हुभा, आगे चलनेकी कोशिशकर रहा है और इस उपाय हैं कि अप्रत्याख्यानांवरणो कषायोंकी सेनाको दबाके पांचवें गुणस्थानमें चढ़े जाऊ । धन्य है. यह वीर ? श्रीगुरु विद्याधरके प्रतापसे यह ऑन स्वसुखकी - भावनामें लीन
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स्वसमरानन्द ।
इन्द्रियजनित बाधासहित पराधीन क्षणिक सुखोंको सन्मानकी दृष्टिसे नहीं देखता है और अपने ज्ञानानंद रससे प्रपूरित शांतिधाराके निर्मल प्रवाहमें केल करता हुआ नगतके प्रपंचोंसे रहित स्वसमरानंदमें तन्मयता करता हुआ उन्मत्त रहता है।
" आत्म वीर निज शिवत्रियाका अभिलाषी, मोहशत्रुसे उदासी, निजगुण विकासी होकर हर तरहसे रिपुदकको संहार व उसके उपशममें प्रयत्नशील होरहा है, इस समय इसकी दृष्टि चार अप्रत्याख्यानावर्णी कषायोंकी तरफ हड़तासे लग रही है क्योंकि उनके रोकनेके कारण यह आत्मा पंचमगुणस्थानमें नहीं जासक्ता। निस संयमकी सहायतासे मोक्षका विशाल आराम स्थान प्राप्त होता है उस संयम मित्रका कुछ भी समागम नहीं होने पाता । धन्य है संयम मित्र जो इसका निरादर करते हैं और इसके विरोधी असंयमकी कदर करते हैं, अनेक कष्ट सहनेपर भी स्वा. मृत सुखका अनुभव नहीं कर सक्ते आत्मवीरको अपने तत्वज्ञान मित्रकी ऐसी प्रवल सहायता है कि जिसके कारण इस वीरके विशुद्ध परिणामोंकी सेना, प्रौढ़ता बढ़ती चली जाती है उनकी साहसभरी बार २ की चोटोंसे चारों अप्रत्याख्यानावर्णी कपार्योका . मुख कुम्हला गया है और वे एक दूसरेकी मुंहकी ओर ताकते हैं कि कोई तो अपना प्रबल बल करै । अप्रत्याख्यानावर्णी क्रोधके निमित्तसे इस मात्मवीरके परिणामोंमें त्यागभावकी ओरसे अरतिपना हो रहा है, अप्र० मानके उदयसे यह आत्मा निन वर्तमान प्रवृत्ति में जो अहंकार है उसको त्यागता नहीं, अप० मायाके
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(२७)
खसमरानन्द ।
फौज दी
कि वे
उदयसे यह आत्मा चित्तकों ऐसा साहसी नहीं करता जो संयम घारे अपनी शक्ति प्रगट करने में हिचकता है, अप्र० लोभके उदयसे यह आत्मा विषयोंके अनुरागको इतना कम नहीं करसक्ता कि जिससे पंचमगुणस्थान में जासके । इस प्रकार अपनी शक्तिकी व्यक्तता में रोके जाने के कारण इस वीरको अब कोष आगया है और इसको तत्त्वज्ञानने ऐसी दृढ़ विशुद्ध परिणामकी है कि जिस सेनाके बलसे इसने ऐसे तीक्ष्ण बाण चलाए चारों योद्धा युद्धस्थल में खड़े न रह सके और भागकर मोहकी सेनाके पड़ाव में दुबक रहे । इन चारोंका साम्हने से हटना कि आत्म वीरको देशसंयमसे भेट होना और पंचमगुणस्थानकी भूमिकामें पहुंच जाना, इस भूमिका में जाते ही इस वीरकी एक मंजिल फतह होती है और यह इस जगह ग्यारह प्रतिमाओंकी दृढ़ सेनाओंको धीरे २ अपने हाथमें करता हुआ कर्म शत्रुओं से भिड़ रहा है, इस भिड़ाव में जो आनन्द इसको होरहा है, वह वचन अगोचर है । जो जीव आलस्य त्याग निजानुभवके रसिक होते हैं वे ऐसे ही स्वसमरानंदकी प्रवृत्ति कर भव आकुलताको विनाश स्वमुखका प्रकाश करते हैं ।
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( १४ )
निन शक्तिके प्रकाश में परमादरसे उद्योग करनेवाला आत्मा अपनी शुद्धिकी बुद्धिमें स्वयंबुद्ध होता हुआ तथा मुक्त - तियाके अर्थ किये हुए घोर समर में अपनी वीरता से अपनी विजयके आनंदको लेता हुआ पंचम गुणस्थान में पहुंच अपने मित्र विद्याधर द्वारा भेजे हुए बारह व्रतरूप बारह दृढ़ योद्धाओं की सहायता से
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स्वसमरानन्द
(२८) -मोहकी सेनाको धीरे १ निर्वल कर रहा है। अहिंसा अणुव्रतसे असहिंसा करानेवाले कपायरूपी भावको, सत्यं अणुव्र से अपत्य बुलानेवाले कषायरूपी भावको, अचौर्य मणुव्रतसे चोरी करानेवाले लोमादि कपायरूपी भावको, ब्रह्मचर्य अणुव्रतसे स्वस्त्री सिवाय अन्य स्त्रियों में रमन करानेवाले कपायरूपी भावको, परिग्रह प्रमाणसे तृष्णा बढ़ानेवाले भावको रोकता है ! दिग्वत, देशवत, अनर्थ दंडवत तथा सामयिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिमाण और अतिथिसविभागवत यह सातों व्रत उन ऊपर कहे पांच अणुव्रतरूपी वीरोंको सहायता देने हैं और कपायोंसे युद्ध करने में मदद प्रदान करते हैं । इस भूमिहामें ठहरनेसे इस आत्म वीरका सामना कानेको जो चौथी भूमिकामें ७७ प्रकृति आती रहती थीं, उनमें से दस प्रकृतियों की सेनाने आना बन्द कर दिया, याने अप्रत्याख्यानावर्णी क्रोध, मान, माया लोभ, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, औदारिक शरीर, औदारिक आंगोपांग, वजवृषभनाराचसंहनन् तथा इसके साथ युद्ध करनेको पहले १.४ प्रकृतियोंकी सेना थी; अब १७ प्रतियोंकी सेनाने युद्ध करनेसे हाथ -रोक लिया अर्थात् अप्रत्याख्यानावर्णी क्रोध, मान, माया, लोभ, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, देवायु, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु, वैक्रियक शरीर, वैक्रियक आंगोपांग, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, तियचगत्यानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय, अयशस्कीर्ति ॥
यद्यपि यह युद्ध करनेवाली सेना ( कम ) इतनी होगई है, तथापि इस समय मोहके युद्धस्थलकी भूमिमें नरकायुके सिवाय सर्व १४७ प्रकृत्तियोंकी से मौजूद है।
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स्वसमरानन्द । आत्मवीरके पाप्त एक बड़ी जीतकी बात यह है कि जब इसके विपक्षी अशुभ कषाय भावोंके वीर कम होते जाते हैं । तब इसके पास एक वैराग्यरससे भरे हुए मदोन्मत्त शुभ भावरूपी वीर बढ़ते जाते हैं। ग्यारह प्रतिमामई उत्तरोत्तर एक एकसे सुंदर
और मनोज्ञ सेनाके बलने इस आत्मवीरको बड़ा बलवान बना. दिया है और यह धीरे २ मोहके चित्तको लुभानेवाले पर द्रव्योंको और पर भावोंको छोड़ता जाता है । यहां तक ब्रह्मचारी हो स्त्री त्यागता, फिर आरम्भ त्यागता, फिर धनादिक व उनकी अनुमति भी त्यागकर क्षुल्लक और ऐलक हो जाता है। इस अनुपमदशामें रहकर यह आत्मवीर मोहके बलको बहुत वीरता
और तेजी के साथ घटाता जाता है और अपनी शक्ति को बढ़ाता जाता है। ज्यों, ज्यों, स्वाधीनता, निर्मयता, निराकुलताकी वृद्धि होती है त्यो त्यो स्वानुभवरसकी धाराका स्वाद बढता जाता है
और यह धीरवीर आपमें अपने शुद्ध स्वरूपका आनन्द लेता हुभा स्वसमरानंदके हितकारी खेदसे कञ्चित भी खेदित होता नहीं।
आत्मवीर स्वविरोधी संप्तारसे विमुख होता हुआ अपने निनानन्दके विकासको प्रदान करनेवाली शिव-तियाकी गाढ़ प्रीतिके कारण मोहकी सेनाको नाश करनेके लिये दृढ़ प्रयत्नशील हो रहा है। पांचवें गुणस्थानके उत्कृष्ट ऐलक पदमें सुशोभित होता हुआ तथा उत्सष्ट श्रावककी मर्यादाको अखंड पालता हुआ
आत्यंत उदासीन रह अपनी वैराग्यमई छटाको ऐसा प्रकाशित कर रहा है कि जिससे दर्शन करके जीवोंको मोह भवके गाढ़ बंधनोंसे
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एकाएक दबक
नामें साहस
भी त्याग,
स्वसमरानन्द । (१०) मुक्त हो जाता है। मोहके प्रबल योद्धारूपी कपायोंके द्वारा त्रासित किये जानेपर भी यह अचल रहता है और प्रत्याख्याना. चरणी चारों कषायोको भी विध्वंस करनेका उपाय करता है। भव-विकारोंसे रहित, निन सत्तावलम्बी, अनुभव-रसके पानेसे बलिष्ठ भावको धारण करने वाला धर्मध्यानकी महान् खड्ग अत्यंत शांतता और धीरताके साथ चलाता है, और वाद-रेत समान कषायोंके चारों योद्धाओंको ऐसा डराता तथा घबड़ा देता है कि वे एकाएक दबके बैठ जाते हैं । उनका उपशम होना कि इस वीरकी शुभ भावकी सेनामें साहस और भानन्दकी ऐमी वृद्धि होती है कि यह वीर झटसे लंगोटकी भी त्याग देता है। लंगोटके त्यागते ही सातवें गुणस्थानमें उल्लंघ जाता है और तर मुनिके रूपमें सर्व परिग्रह-रहित हो आत्म-ध्यानके विचारोंको इतनी मजबूतीसे अपने आपमें और अपनी अज्ञामें कायम रखता है कि छठे गुणस्थानी मुनीकी ऐसी प्रमाद रहित और सावचेतीकी अवस्था नहीं होती। परन्तु इस अवस्थामें इस आत्मवारको नो परमाल्हादकी छठा और उन्मत्तता आती है, उसके रसमें वह इस कदर बलके साथ निमन्न हो जाता है कि इसका कदम सात. में एक अंतर्मुहूर्त ही ठहरने पाता है। प्रमादके माते ही यह छठी भूमिकामें गिर जाता है। तो भी यह साहसहीन नहीं होता । अपनी कमरको दृढ़ बांध कर्मोंसे लड़ता ही है । वास्तवमें निन जीवोंको साध्यकी सिद्धि करनी होती है, वे जीव अपने साधनमें कभी भूल नहीं करते । जिनको किसी अमिट संयोग प्राणप्रियाके दर्शनों की और उसको अर्धाङ्गिणी बनानेझी कामना
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"
(३१) स्वसमरानन्द । होती है वे सदा ही परम दृढ़ताके साथ उद्योगशील रहते हैं। सुधाके स्वादका जो रसिक हो जाता है वह सर्व स्वादोंसे रहित परमानन्दमई स्वसमरानन्द की महिमाका विलाप्त करने में परम संतोषी रहता है।
परम सुखमई राज्यका लोभी होकर यह मात्मवीर मोहके निमित्त कारण बाह्य परिग्रहके भास्को त्याग हलका हो मोह रानाको दिखला रहा है कि अब मैं सर्वथा वेधड़क हो तेरी सेनाके नाश करने में उद्यत हो गया हूं। मैंने वैराग्य-धाराको रखनेवाली तीव्र ध्यानमई खड्ग हाथमें उठाई है और सर्व प्रपंचनालसे छूट गया हूं। इसी लिये वस्त्र भी उतार डाले हैं, क्योंकि एक लंगो. टीका संबंध भी इस मनुष्यके अनेक विकल्प पैदा करता है-ऐसा धीरवीर परमहंस स्वरूप यह वीर निश्चल होकर धर्मध्यानके द्वारा मोहसे लड़नेको तैयार हो गया है । जब यह आत्मा स्वरूप रूपसमुद्रमें गुप्त हो डुबकी लगाता है तब सातवें गुणस्थानमें स्थिर हो जाता है । जब विकल्पमई विचारों में उलझता है तष छठेमें ही ठहरता है । प्रमादके कारण छठे स्थान का नाम प्रमत्तगुणस्थान है। आहार लेते हुए ग्रासका निगलना तथा विहार करते हुए समितिका पालन जब करता है तब उठी भूमिमें रहता है, परन्तु इनकार्यों ही के अंतरालमें जब स्वस्वरूपमें. रमता है तब सातवीं भूमिमें आजाता है । इस प्रकार चढ़ाव उतार करते हुए भी मोहकी सेनाको खूब साहसके साथ दबा रहा है । इस समय प्रत्याख्यानावरणी क्रोध, मान, माया, लोभ सेनापतियोंकी सेनाने
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(३२)
स्वमपरानन्द । तो आना ही बन्द कर दिया । केवल ६३ प्रकृतियोंकी ही कर्म
कौनं आती है तथा इसके साथ युद्ध करनेवाली सेनाओंमें पहिले ....८७ प्रति थीं, अब प्रत्याख्यानावरणी क्रोध, मान, माया, लोमे, तिर्यग्गति तिर्यगायु, उद्योत और नीच गोत्र युद्धस्थलसे चल दिये केवल ७९ प्रकारकी सेना रह गई। परन्तु इस समय मात्मावारके पराक्रम को देख मोहकी ये तीन प्रकारकी सेना युद्धस्थल में आ तो गई, परन्तु आत्मवीरके साथ प्रीति उत्पन्न होने के कारण इसकी .. हानि न करके मदद ही करती हैं। वे तीर्थकर, साहारक अनाहारक प्रकृतियोंकी सेनाएँ हैं । इनको भी . मिलाया जाय तो.. आत्मवीर के सामने. ८१ सेनाएँ खड़ी हैं। यदि मोहकी.. फौगको - देखा जाय तो इस समय नरकायु · और . तियआयुके सिवाय .. १४६: की सत्ता विद्यमान है । छठी श्रेणी में तिर्यगायु · सत्तासे .. भागती है। ऐसी सेनाओं का मुकाबला होते हुए भी यह धीरवीर . नहीं घबड़ाता है । अपनी शान्तता, वीतरागतासे अपने परम मित्र विद्याधर द्वारा भेजे हुए दशधर्म, द्वादश तप, द्वादश भावना
आदि वीरोंकी सेनाके प्रतापसे यह परमसुखकी रुचिशे भारी युद्ध । कर रहा है और इस स्वसमरानंदमें लवलीन हो अतीन्द्रियं । आनन्दकी श्रद्धासे परमामृतका पान करता है।
(१७) मोह-शत्रुसे अत्यन्त साहसके साथ युद्ध करनेवाला चेतनः । वीर छठी श्रेणी में अपने पराक्रमके प्रतापसे जब संज्वलन कपाय : और नौ नोकषायकी सेनाओंको अपने वीतरागमय तीक्षण बाणः । रूपी परिणामोंके. बलसे ऐसा बलहीन बनाता है कि उनका मुखं ।'
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(२३) स्वसमरानन्दः। कुम्हला जाता है, तब यह वीर झटसे सातवीं अप्रमत्त श्रेणीमें मा चमकता है। यद्यपि कई बार मोहसे प्रेरित होने पर, जंग यही तेरह प्रकारकी सेनाएं फिर अपने जोरमें आती हैं तब यह एक श्रेणी नीचे गिर जाता है और फिर अपनी अप्रमत्तताकी सावधानीसे चढ़ जाता है । तथापि अब इस वीरने बहुत ही दृढ़ता पकड़ी है और गिरनेसे हटकर आगेकी श्रेणी में चढ़नेको ही उत्सुक हो रहा है । धन्य है यह आत्मवीर ! इसने अब :सातिशय अप्रमत्तके पथपर पग धरा है. तथा अनंतानुबन्धी क्रोधः मान: माया-लोभकी सेनाओंको ऐसा लज्जामान कर दिया है कि वे अपने नामको छोड़कर अपत्याख्यानादिकी सेनाओं में जा मिल गई हैं तथा दर्शन मोहनीयकी तीनों प्रकारकी सेनाओंको ऐसा दवा दिया है कि वे अब बहुत काल तक अपना सिर न उठाएंगी। इप्त क्रियाके साहसको देख इसके परम मित्र विद्याधरने इसकी सहायको द्वितीयोपशमसम्यक्त नामके योद्धाको भेन दिया है। इसकी मदद के बरसे भव यह अपने विशुद्ध परिणामरूपी दलोंको अधःप्रवृत्तिकरणके चक्रव्यूहमें सनाता है और चारित्रमोहनीयकी २१ प्रकृतियोंको उपशम करने का प्रयत्न करता है । इस अपम. तश्रेणी में इस आत्म-चीरके पास अस्थिर, अशुभ, अयशस्कीर्ति, अरति शोक और असाता-इन छह प्रतियोंकी सेताओंने आना बिलकुल बन्द कर दिया है । इसके विरुद्ध यह एक अचम्भेकी बात देखने में आई है किमोहकी सेनासे चिढ़कर आहारक शरीर और आहारक अंगोपांगकी सेना इसके कार्य में सहाय पहुंचानेकों इसके पास आने लगी हैं।
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स्वसमरानन्द ।
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यद्यपि ये सहकारी हैं तथापि इस सावधान सम्यक्ती वीरको इनका भी विश्वास नहीं । वह इनको भी अपना विरोधी हीं जानता है। आत्म-वीरके ज्ञानकी अपेक्षा अब इसके मुकाबले में १२ प्रकारकी सेनाएं आ रही हैं। छठी श्रेणी में ८१ प्रकारकी सेनाएं.. -मुकाबले में युद्ध कर रहीं थीं । जब आहारक शरीर आ हारक अंगोपांग, निद्रा निद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि - इन ५ ने मुकाबला करना बन्द कर दिया है, केवल ७६ ही सामने खड़ी हैं । यद्यपि मोहके युद्ध-स्थलमें अभीतक १४६ प्रकारकी सेनाएं बैठी हुई हैं। ऐसी हालत होनेपर भी इस साहसीको धर्मध्यानके चारों पांयोंका पूरा १ २ल है। जब आज्ञा विचय, अपायविचय, विपाकविचंय और संस्थानविचय तथा :: स्थान विचय ध्यानके सहकारी पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रुपातीत ध्यानकी तलवारें चमकती हैं तब मोहकी सारी फौज कांप जाती है और इधर आत्म-वीरकी वीतराग परिणतिरूपी सेनाकी आवली में अत्यंत तीक्ष्ण वेग होता है, उत्साहकी उन्मतता बढ़ती जाती है । इसीके जोरसे अब यह उपशम श्रेणी में चढ़ मोहके दलोंको मूर्छित बनानेका प्रयत्न करनेको उद्यमंत्रत हो गया है । .
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धन्य है आत्मज्ञानकी महिमा और तिाकी प्राप्तिकी अभिलाषा ! यह धीरवीर मुनि अनेक परीषहोंको सहता है । अनेक प्रकार देव, मनुष्यं, तिथेच व आकस्मिक घटनाओंद्वारा पीड़ित किये जाने पर भी अपने कर्तव्यसे जरा भी विमुख नहीं होता है । आपमें आप ही आपसे ही आपको आपके लिये
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(१५)
स्वसमरानन्द
अपना रहा है । इसकी चित्त-मग्नता और एकामताका क्या ठि.. काना है । इस अपूर्व अनुभव स्वादमें रमता हुआ यह वीर मोहसे युद्ध करता हुआ भी परम शांत रहता है और स्वसमरानंदका विलास देख परम संतोष माना करता है। . .
. (१८) मात्मरसिक वीर भवनीरके तीरमें धीर हो अपनी गंभीर शक्तिसे धर्मध्यानके चार सरदारोंको अपने चसमें किये हुए उनके द्वारा ऐसा एकाश्मन हो कोसे युद्ध करता है कि अब इसके साम्हने १ संज्वलन और ९ नोकषायकी सेनाओंका इतना बल घट गया है कि वे इसको सातवीं श्रेणीसे नीचे नहीं गिरा सक्त। यह परमात्मतत्त्ववेदी वैराग्य-अमृतके भोजनसे पृष्टताको प्राप्त अपने दलसमूहके संघट्टसे मोहशत्रुकी सत्ताभूमिमें विराजित अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभकी सेनाओंको ऐसा दबा रहा है कि वे सर्व सेनाएं बहुत ही दुःखी हो गई हैं और अपने बंधदलको तोड़कर प्रत्याख्यानावरणादि कषायोंके दलोंमें जा छिपी हैं अर्थात् अपनेको विसंयोजित कर लिया है तथा दर्शनमोहनीकी तीनों प्रतिमई सेनाओंको भी ऐसा दबा देता है कि वे बहुत कालतक उठने के लिये असमर्थ हो जाती हैं । इस क्रियाके किये जानेके पथ्यात् इसका नाम द्वितीयोपशम सम्यकदृष्टि हो जाता है और तर श्रीगुरु विद्याधर आकर इसकी पीठ ठोकते हैं और शाबासी देते हुए उत्तेजित करते हैं कि, हे भव्य ! अब तू मा. हसको न छोड़ और जिन दलोंने तेरे वीतराग चारित्ररूपी पुत्रको कैद कर रक्खा है उन दलोंको निवारण कर अर्थात् चारित्र.
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स्वसमरानन्द
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मोहनीकी २१ प्रकृतिरूपी सेनाओंको दवानेमें प्रयत्न कर । इस प्रकार हिम्मत पा वह वीर चुप नहीं होता, अपने शुद्ध परिणामरूपी फौजोंमें ऐसी उत्तेजना करता है कि वे अधःप्रवृत्तिकरणके समान समय २ अपने में अनंतगुणी शक्ति बढ़ाते हैं। शक्तिके बढ़ते ही यह वीर झटसे आठवीं श्रेणी अपूर्वकरणमें चला जाता है और पृथक्कवितर्कविचार शुक्लध्यानरूपी योडाके बलसे अपूर्व २ छटाको बढ़ाता हुआ चारित्र मोहनीके दलको उपशमा रहा है। इसकी ऐसी तेजीके कारण मोहकी सेनामें देवायुकी फौनोंका भाना बंद होगया । सातवीं श्रेणी में ५९ प्रकृतियोंके नवीन दल आते थे। अब ५५ के ही आते हैं तथा सम्यक्त प्रकृति, भई नाराच, कीलक और असंपाप्तास्फाटिक संहननकी फौजोंने इस आत्मवीरका साम्हना करना छोड़ दिया । इसके पहले ७६ प्रकतिका दल मुकाबले में था। अब केवल ७२ का ही रह गया है । तो भी मोहशत्रुकी युद्ध सत्ता भूमिमें अभी १४२ प्रकृतियोंका दल बैठा हुआ है । यहां अनंतानुवन्धी ४. कषायोंका दल नहीं रहा है। इस प्रकार आत्मवीर और मोहशत्रुका भयानक युद्ध हो रहा है । आत्मवीर शिवतियाके मोहमें फंसा हुभा इस आशामें उछल कूद रहा है कि वह अब शीघ्र ही मुक्त महलमें पहुंचकर अपना मनोरथ सिद्ध कर लेगा । उसे यह नहीं खबर है कि अभी तक मोहकी सेनामोंके सर्वसे प्रबल योन्हर अनंतानुबंधी कषाय और दर्शन मोहनीयकी सात प्रकारकी सेनाभोका संहार नहीं हुभा है और वे इस घातमें हैं कि यह अपने प्रयत्नसे जरा थके कि हम इसको गिरा देवें और कैद कर लें।
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(३७)
स्वसमरानन्द |
तौ भी इस समय यह प्रथम शुरूभ्यानके शुद्ध शुरू - रंग में रंजायमान होता हुआ अपनी अहं बुद्धिमें उन्मत्त होकर सर्व जगतको भुला चुका है और अपनेको ही शुद्ध चिन्मात्र ज्योतिका धारक परमात्मा समझ रहा है। मैं और परमात्मा मिन २ है, इस विकल्पको भी उड़ा दिया है। मैं ध्यान करता हूं ऐसा कर्तापनेका अहंकार भी नहीं रहा है । इस समय यह स्वानुभव रसका भोग भोग रहा है और उसके रसमें ऐसा मगन हो रहा है जैसा एक भ्रमर कमलकी सुगंधमें मुग्ध हो जावे । तथापि इस विकलसे दूरवर्ती है कि मैं स्वानुभव कर रहा हूं । चाहरसे देखो तो इस वीरकी मूर्ति सुमेरु पर्वतके समान निश्चल है। यद्यपि अंतरंग में श्रुतके भावका व श्रुत पदका व योगके आलम्बनका परिवर्तन हो जाता है तो भी इस स्वरूप मगनकी बुद्धिमें कुछ नहीं झलकता । जैसे उन्मत्त पुरुपैके मुखकी और शरीरकी चेष्टा बदलती है, परंतु उसके रंगमें बाधाकारक नहीं होती। आठवें पदमें विरानित ध्यानी आत्मवीरकी ऐसी ही कोई अपूर्व परिणति है । इसकी निराली छटा इसीके अनुभवगोचर है या श्रीसर्वज्ञ परमात्मा के ज्ञानमें प्रतिविम्वित है । यह योद्धा अपने गुरु विद्याधरकी कृपासे आत्मीक सम्पदाका उपभोग करता हुआ मोह शत्रुके मुकाबले में किसी प्रकार न दबता हुआ. स्वसमरानन्दके सुखमें अद्भुत तृप्तिकी उपलब्धि कर रहा है ।
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परमात्मतत्त्व- वेदी,
निजानन्द- अनुरागी, स्वसंवेदन-भागी शिवर मणि - आशक्तधारी निजगुण साहस विस्तारी आत्मवीर आठवें स्वस्वरूपकी मगनतासे ऐसा बलिष्ठ हो गया है कि इसने .
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स्वसमरानन्द । अपने शुद्ध परिणामरूपी सेनामोंके जोरसे मोहशत्रुकी ३६ प्रकारकी सेनाओं नवीन आगमन रोक दिया है और एकाएक
आठवेसे नवमें गुणस्थानमें भागया है। जिन शुन्ह परिणामों के द्वारा चारित्रमोहनीके बलोंको निर्मूल करने के लिये इस वीरने सातवें दरवाजेमें करणलब्धिका प्रारंभ किया था उन शुद्ध परिणामोंकी जो भपूर्व छटा पाठवीं श्रेणी में थी उससे मति विलक्षण महिमा इस समय इन शुद्ध परिणामरूपी दलोंकी हो गई है।
इस अनिवृत्तिकरणमें नितने समय इस मामवीरको ठहरना होता है उतने समयके लिये प्रति समय अद्भुत ही अद्भुत शुद्ध परिणामोंकी सेना विद्याधर गुरुद्वारा प्रेषित की आरही है। इस श्रेणीकी कुछ ऐसी गति है कि जितने वीर, योदा, विद्याधर गुरुकी कृपासे मोह-शत्रुसे युद्ध करते २ एक ही समयमें इसमें मानाते हैं उन सबके लिये एकसी ही शुद्ध परिणामोंकी सेना सहायताके लिये आ जाती है। इन परिणामरूपी योद्धाओंकी आहट पाते ही नीचे लिखी ३६ प्रकारकी सेनाओंको मोह रानाने भेजना बंदकर दिया है। निद्रा, प्रचला, तीर्थकर, निर्माण, प्रशस्त, विहायोगति, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्माणशरीर, आहा. रक शरीर, माहारक अंगोपांग, समचतुल संस्थान, वैक्रियक शरीर, बैंक्रियक अंगोपांग, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, मगुरुलघुत्व, उपघात, परघात, उच्छास, त्रप्स, बादर पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुमग, सुस्वर, मादेय, हास्य, रति, जुगुप्ता, भय ।
अब यहां केवल १२ प्रकृतियोंकी ही सेना मोहद्वारा प्रेषित की जाती है। आठवीं श्रेणीमें जब ७२ प्रकृतियोंकी सेना
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स्वसमरानन्द । मुकाबले में थी अब यहां हास्य, रति, मति शोक, भय, जुगुप्सा इन छह प्रकारकी सेनाओंने अपनी प्रमाद अवस्था कर ली है, केवल १६ ही दल सन्मुख हैं । यद्यपि मोह-राजाके चक्रव्यूहके क्षेत्र में भब भी १९२ दलोंका ही अस्तित्व है। अंतर्मुहूर्तके समयके अंदर ही इस भात्मवीग्ने अपने पराक्रम और शुक्ल ध्यानमई दलोंके प्रतापसे मोहके प्रबल योहा कोध, मान, माया, लोभ और वेदोंकी सेनाओंको विहुल और निर्बल कर दिया है । सम्यग्ज्ञान द्वारा पचनसे प्रेरित वीतराग चारित्ररूपी ध्यानकी ममिको निस समय यह आत्मवीर प्रज्वलित करता है एकाएक कर्मोके दक शिथिलताको प्राप्त हो जाते हैं । जितनी २ ढिलाई कोफे दलोंमें होती है उतनी २ पुष्टता मामवीरकी शुद्ध परिणामरूपी सेनाओंमें होती जाती है। इस समय भात्मवीरकी सेनामोंमें अपूर्व मानन्द है। अपने साहसके उमंगसे डूबी हुई अपनी सेनाको देखकर यह आत्मवीर परमसंतोषित हो रहा है, भव-कीचड़से मानो आपको निकला हुमा मान रहा है, जगतके जंजालोंसे मानो प्रथक हो रहा है। यद्यपि यह वीर निजस्वरूपानुभवमें लीन है और बुद्धिपूर्वक विकल्पोंसे पृथक् है तथापि विकल्पमें ग्रसित तत्त्व- खोनी पुरुषोंके लिये इस आत्मवीरकी अवस्था अनेक प्रकारंसे मनन करनेके योग्य है। वास्तवमें जिन जीवोंको मोहके फंदोंका पत्ता लग जाता है और जो जिन विधिका कुछ भी ठिकाना पा लेते हैं तथा अपने विश्रामपदकी श्रद्धा तन्मय हो जाते हैं वे जीव मोहसे समर करने में किसी प्रकार नहीं हटते और कमर बांधकर जब फर्मदलके भगानेको उद्यत हो जाते हैं तब अपने
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स्वमरानन्द |
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उद्योगके अनुभव में स्वसमरानन्दको पते हुए विशाल आत्मभावके प्रकाश में उद्योतरूप रहते हैं ।
( २० )
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महावीर धीर समरशील उत्साह-गंभीर आत्मराजा, मोहके युद्ध में बिजयको प्राप्त करता हुआ अपनी अटल शक्ति और विद्याधर गुरुकी सहायता से जो आनन्द और उमंग प्राप्त कर रहा है उसका वर्णन करना वाणीसे अगोचर है | भला जिप्स रसिकको आत्म-रस से बने हुए परम अमृतमई व्यञ्जनोंका स्वाद मिल जाता है वह जिव्हाइन्द्रीकी तृष्णाके निशानोंकी क्या परवाह कर सकता है ? उसके स्वाभिमानकी गणना गणनासे भी वाह्य है । उसकी शांतताकी शीतलता चंदनमालतीको भी लजानेवाली है । उसकी धीरताकी अक्षमता पर्वतको भी तिरस्कार करनेवाली है । निज विलासिनी प्रिय अनुभूति सखीकी रुचि इस यात्मानंद आशक्तको अपने कार्यमें परम दृढ़ किये हुए है ! अनिवृत्तिकरणके पदमें यह धीर मोह नृपके परम विशाल कषाय-योद्धाओंकी सेनाका बल प्रति समय अधिक २ घटाता जा रहा है। इसकी शुक्लध्यानरूपी खड्गके चमकने से मोहका सारा बल कम्पित हो रहा है, युद्ध स्थलमें पग जमता नहीं । मोह दलकी असावधानी देख आत्मवीर झटसे १० वीं श्रेणीमें चढ़ जाता है और सूक्ष्मसां परायके स्थल में कषायोंमें से केवल संज्वलनलोभको ही अपने सामने अत्यन्त कृश और दुर्बल भवस्था में खड़ा पाता है । अब मोह नृपने लाचार हो पुरुषवेद, संज्वलनक्रोध, मान, माया, लोभ, ऐसे पांच प्रकारके सेनादलको युद्धस्थलमें भेजना बन्द
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स्वसमरानन्द
कर दिया है, केवल १७ प्रकृतियोंकी नई सेना आती है। तो भी सामना करनेको अभी ६० दलोंकी एकत्रता हो रही है। केवल यहां स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया ऐसे छह दलोंने सामना करना बंदकर दिया है। 'परन्तु मोहके सत्तामय युद्धस्थलमें अभी १४२ प्रतियोंकी सेना मौजूद है। जितनी ९ वी में थी उतनी ही है । मोहको युद्धमें हटाना कोई सुगम कार्य नहीं है। मोहके गोरखधन्धेको काट 'डालना किसी साधारण गरुड़का काम नहीं है । इसके लिये सच्चा श्रद्धानी साहसी वीर पुरुष ही होना चाहिये । निसने तत्त्वामृतसे अपने आत्माको धोना प्रारम्भ किया है, निसने सर्व ओरसे उपयोग हटा एक निजमें ही निजको थामा है, जिसने सम्यकदर्शन, ज्ञान चारित्रके तीनपनेको मिटा दिया है, जिसने निन शक्तिकी लुप्तता हटा डाली है-वही धीरवीरं इस पदमें पहुंचकर स्थिर हो जाता है और रहे सहे अत्यन्त निर्बल लोभकी सेनाको भी भगानेका उद्यम करता है। ऐसे ही उद्योगशीलं मोक्ष पुरुषार्थीको भवविपिननिरोधक स्वसमरानंदका विलास आत्माके अनुभवमें प्राप्त होता है।
. गुणगणसमृद्धि-धारी अनुपम धाम-विहारी चैतन्यपदविस्तारी मुक्तितिया संमोहकारी आत्मवीर मोहके साथ युद्ध करते २ अति दृढ़ हो गया है । यह वीर अपने शुद्धोपयोग योद्धाके बलिष्ठ सिपाहियोंके प्रभावसे संज्वलन-लोभकी सेनाको ऐसा छिन्नभिन्न और दुःखी कर देता है कि वह सारी सेना दबकर
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खसमरानन्द ।
(४२)
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नीचे बैठ जाती है और यह एकाएक ग्यारहवीं श्रेणीमें पहुंच जाता है । अब यहां चारित्रमोहनीयकी सर्व २१ प्रकृतियोंकी सेना उपशांत हो गई है। वीतराग चारित्ररूपी परम मित्रकी अब सहायता प्राप्त हो गई है । उपशांतमोह गुणस्थानके स्वभाव में निश्चल रह वीतराग विज्ञानताका आनन्द अनुभव करना इसका कार्य हो गया है। अब यहां मोहके दबनेसे ज्ञानावर्णीकी १, दर्शनावर्णीकी ४ अंतरारायकी ५, नामकर्ममें यशकीर्ति और उच्चगोत्र ऐसे १६ प्रकृतियों की नवीन सेनाओंका माना बन्द हो गया है, केवल सातावेदनीयकी ही सेना आती है। इसके पहले ६० प्रकृतियों की सेना सामने खड़ी थी, यहां संज्वलन -लोभने विदा ली, केवल ५९ सेनाएं ही मुकाबले में हैं । यद्यपि मोहराजाके युद्ध क्षेत्रमें अब भी १४२ प्रकारकी I सेनाएं डेरा डाले पड़ी हैं । यथाख्यातचारित्रके सम्यक् अनुभव में इस आत्मवीर के शुद्धोपयोगकी अनुपम छटाका वचनातीत आनंद - प्राप्त हो रहा है । इसके आनंदमें मैं सिद्धस्वरूप हूं - यह विकल्प भी स्थान नहीं पाता । अब यह मुक्ति-महलके बहुत करीब हो गया है, अपनी पूर्व अवस्था क्या थी यह भी विकल्प नहीं उठाता । आत्मावीर अपने अंतरंगमें ६ द्रव्यका नाटक देख रहा है, परन्तु आश्चर्य यही है कि उसमें अपने भावको रमाता नहीं । सिवाय निजात्म भूमिके उसका उपयोग कहीं जाता नहीं । उस भूमिमें विराजित निम अनुभूति सखीसे ही हर समय वार्तालाप करना - इसका काम हो गया है । यद्यपि अभी बहुतसी सेनाएं खड़ी हैं तथापि मोहके खास २ योद्धाओंके युद्धसे मुंह मोड़ लेने पर यह
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(४३)
खसमरानन्द ।
बिलकुल बेखटके हो गया है जैसे कोई युद्ध से लड़ते २ थककर विश्राम लेता है और तब आराम में मन हो जाता है। ऐसे ही यह धीरवीर अपने अन्तरंग में अपने आन्तरिक चैनमें डूब गया है । सत्य तो यह है कि जो साहसी होता है वही उद्योगके बलसे मीठे फलोंको चखता है। यह आत्मघन-धनी अपने प्रभा वशाली तेजसे निजमें लय हो स्वसमरानन्दका स्वादभोग अकल और अमन हो रहा हैं ।
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( २२ )
यह आत्माराम ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंच कर और सारे 'मोहके खास योद्धाओं को दबाकर परम शांत और यथाख्यातचारित्रमें मन हो गया है और अपने शुक्लध्यानकी तन्मयतामें लीन हो कर्म - शत्रुओंके बलसे मानो निडर हो गया है। इसको इस वीतराग परिणति में रमते हुए जो आनन्द होता है उसका स्वाद लेते हुए अन्य सर्व स्वद व अन्य सर्व विचार लुप्तरूप हो गये हैं । जैसे कोई विषयान्ध राजा किसी स्त्रीके प्रेममें मुग्ध होता. हुमा रनवासमें बैठा हो और उसके किलेके बारह शत्रुकी सेना डेरा डाले पड़ी हुई हो। उसी तरह इस श्रेणीवालेकी दशा हो रही है । इस वीर आत्माकी ध्यान खड़गकी चोटोंसे मोहनीयकमेकी जो मुख्य २ सेनाएं चपेट खाकर गिर पड़ी थीं और थोड़ी देर याने केवल अन्तर्मुहूर्तके लिये अचेत हो गई थीं, वे एकाएक सचेत होनी शुरू होती हैं । देखते २ ही संज्वलन लोमरूपी योद्धा, जो अभी थोड़ी देर पहले ही अचेत हो गया था, उठता 'है और अपने आक्रमणसे उस बेखबर आत्मबीर को ऐसा दबाता
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(४४)
स्वसमरानन्द । है कि उसकी वह स्वरूपसावधानी टूट जाती है और लाचार हो विचारेको ग्यारहवां स्थान छोड़ना पड़ता है।, दसमें आता है। -वहां कुछ दम लेता ही है कि इसको निल देख संज्वलन क्रोध, मान, माया व नोकषायकी सेनाएं भी घेर लेती हैं और इसको दसवैसे नौवे में, नौवेसे माठवेंमें और आठवेंसे हटाकर सातवमें पटक देती हैं। ज्यों २ यह गिरता है-इसकी ऊंची सावधानी नीची होती जाती है, त्यों २ ही कपायोंकी सेनाएं बल पकड़ती जाती हैं। वास्तवमें जो युद्धमें कड़नेवाले हैं उनके लिये बड़ीमारी सावधानी चाहिये । यह युद्ध परिणामोंका है, इसमें त्रिशुद्धताकी कमी ही असावधानीका कारण है। कुछ आत्मवीरकी प्रमाद अवस्था नहीं।
सातवें गुणस्थानमें ठहरा ही था कि एकाएक अप्रत्याख्यानावरणी और प्रत्याख्यानावरणीकपाय उदयमें आकर उसको दवा देते हैं और यह विचारा गिरकर सातवेसे छठे और छठेसे चौथेमें आ जाता है। देखिये, विशुद्धरूप परिणामोंकी सेनाओंकी निर्ब. लता जो कषायकी सेनाओंसे दबती चली जाती है । ग्यारहवेंका धनी चौथेमें भा गया है। चारित्रकी ममता हट गई है। संयमके छूटनेसे भावोंमें चारित्र हीनता छा गई है। केवल श्रद्धान और स्वरूपाचरण चारित्र ही मौजूद हैं यद्यपि चारित्रका आनन्द विघट गया है तथापि सम्यक्तका आनन्द तो भी इसको दृढ़ बनाये हुए है और फिर आगे चढ़ानेकी उत्सुकता रख रहा है। परन्तु दबते हुए को दबना ही पड़ता है। एकाएक मोहका सर्वसे प्रबल शत्रु मिथ्यात् आता है और अपनी प्रबल सेनाभोंके बलसे ऐसा
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(४५)
स्वस मेरानंन्द !
दबाता है कि आत्मवीर के सारे सहायक योद्धा हट जाते हैं और उसको चौथे से पहलेमें आ जाना पड़ता है। तब मिथ्यात्व भूमिमें पहले के समान आकर संसारी अरुचिवान होकर पूर्णतया मोहके पंजे में दब जाता है और यहां विषयोंकी अन्ध-श्रद्धा चित्तको आकुलित कर लेती है । तब इस विचारेको स्वसमरानन्दका सुख मिलना बन्द हो जाता है। हा कष्ट ! कहाँ अमृतको पान और कहां विषका स्वाद । अचंभा नहीं ।
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(२३)
जो आत्माराम विद्याधर गुरुकी असीम कृपासे एक महामोहके कारागारसे निकल भागा था वह फिर पहले किसी दशा में होकर अतिशय हीनदीन हो गया है। विषयोंकी तृष्णाने उसके चित्तको आकुलित कर दिया है । चित्तमें अनेक प्रकारकी चाहनाएँ उठती हैं, किन्तु पूरी होती नहीं, इस कारण यह आत्माराम अतिशय दुखी हो रहा है । यह यकायक एक उपवनमें जाता है और एक जनरहित शून्य वट वृक्ष की छायामें बैठ जाता है । उस समय अपनी हालतको इससे पहलेकी दशासे मिलान करता है, तो अपनेको मन और तन दोनोंमें अति क्लेशित पाता है । अपने भावोंकी अशुभताको सोच २ कर रह १ जाता है कि इसका कारण क्या है जो मेरेमें ऐसी गन्दगी आ गई है, मेहरी सारी वीरता मुझसे जुदी हो गई है, निर्बलताने दबा लिया है; क्या करूं । किधर जाऊं ? इतना विचार आते ही चट कषायकी तीव्र कृष्णलेश्या एक ऐसा थप्पड़ मारती है कि तुरंत ही किसी इन्द्रीके विषयकी चाह से मोहित हो 'उसी चाहसे तंनमनको. नळाने लग
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स्वसमरानन्द |
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जाता है । यकायक उघरसे परम दयालु विद्याधर गुरु आते हैं और दूसरे इस आत्मकी ऐसी भवम चेष्टा देख सोचते हैं कि अरे क्या हो गया ? यह तो वही है जिसने अपने बलसे मोह - राजा सर्वसे प्रबल कषायरूपी सर्व वीरोंको दवा दिया था और यह ग्यारहवें स्थान पर पहुंचा गया था, केवल तीन ही स्थान तम करना बाकी रहे थे । यदि उन्हें और तय कर लेता तो अवश्य -तीन लोकका नाथ होकर स्वानुभूतिका आनन्द सदा के लिये भोगता। पर कोई आश्चर्य नहीं। जबतक शत्रुका नाश न किया जाय तबतक उसके जोर पकड़ लेनेमें क्या रोक हो सकती है । वास्तचमें अब तो इसकी फिर पहले कीसी बुरी दशा हो रही है; परन्तु यह साहसी और उद्योगी है; अतएव परोपकारता करना चाहिये, भेजता है, देशना आती है और अपना प्रभाव उस पर जमानेके लिए उसी वक्त अपनी पुत्री देशनालव्धिको समझानेके लिये उसीके सामने बैठ अपने इष्टदेव परमशुद्ध परमात्माका मननकर भवातापकी गर्मी मिटाती है और निजस्वरूपके प्रेममें रत हो हृदयमें शांतिधारा बहा उसीके रसको स्वयं पान करती है तथा कुछ रसके छीटे उस दुखी आत्माके ऊपर डालती है। यह उस छींटेको पाकर यकायक चौंकता है, फिर चाहकी दाहसे जलने लग जाता है।. सच है मिथ्यात् बैरी इस जीवका परमशत्रु है। नो साहकर इसका सर्वथा विध्वंश कर डालते हैं, वे ही स्वसमरानन्दको पाकर जगनायक हो जाते हैं ।
(२४)
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परमकल्याणरूपिणी जगदुद्धारकारिणी सुपथ - प्रकाशिनी विद्याधरकी सुपुत्री : "देशनालब्धि" के बारबार परमामृत
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(४-१) खसमरानन्द छिड़कनेसे ग्लोनितचित्तं आत्मारामकी मलीनता हटती है और यकायक जागृत हो अपने वास्तविक स्वरूपको विचारने लग जाता है कि, ओहो ! मैं तो परम शुद्ध सिद्ध सदृश ज्ञानानन्दी मात्मा हूं, मेरी जाति और सिद्ध महारानकी जातिमें कोई अन्तर नहीं, मेरेमें वर्तमानमें जो मलीनता है उसका कारण मेरा कर्म-सेनाओंसे घिरा हुमा रहना है। सच है, वृथा ही इन्द्रिय-जनित सुखोंको सुख कल्पकर आकुल व्याकुल हो रहा हूं। इन दुष्ट इन्द्रियों से किसी भी मात्नाकी तृप्ति नहीं हो सकी। हाः ! देशंना संखी बड़ी हितकारिणी है। यह सत्य कहती है । मैं निस सुखकी चाहना करता हूं वह सुख तो मेरा स्वभाव है। मेरे ही में विद्यमान है। मैं अपने भंडारको भूलकर दुखी हो रहा हूं। आन इस संखीकी कृपासे मेरे चित्तको बड़ा ही माल्हाद हुभा है, ऐसा. विचार उस सखीसे हाथ जोड़ कहता है कि, हे भगिनी तुम इसी प्रकार मुझपर रूपा करके प्रति दिवप्त अपना पुष्ट धर्मामृत-जल मेरेमें सींचा करो, जिससे मेरा निवलपना नावे और साहस पैदा हो, कि मैं फिर उद्यम करके मोहके चुंगलसे हटूं। इस प्रकार इस आत्माराम की चेष्टा देख भायु बिना सातों कर्मोंकी सेनाएं जो इसको धेरै हुए हैं कांप उठती हैं। इतना ही नहीं सेना के कई कायर सिपाही अपने बलको घटा हुआ मानने लगते हैं । भात्मारामका प्रार्थनानुसार देशनालब्धि अपना पुनः पुनः उपकार प्रदर्शित करती है । ज्यों २ इसके ऊपर देनाका असर पड़ता है, • कर्म-सेनाको बल शिथिल और स्थिति संकोचरूप होती जाती है। यहां तक कि ७० "कोड़ाकोड़ी सागरकी स्थिति घटकर: एक
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स्वसमरानन्दः ।
(8.८).
कोड़ाकोड़ी सागर के भीतरकी ही रह जाती है । देशना दिवसे ऐसा शुभ असर होता देख परम दयालु विद्याधरगुरु 'प्रायोग्यलब्धि' को भेजते हैं । इस सखीके बलसे कर्म- सेना और भी,
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अपने जोर और स्थितिको घटा लेती है । आत्माराम अपने
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साहसको बढ़ाता है और इस सखीके पूर्ण बलको पा अनन्तानु बन्धी कोध म० मान, अ० माया अ० लोभ तथा मिध्यात्वं, सम्युक्त मिथ्यात् और सत्यक् प्रकृति मिथ्यात- इन सात योद्धाओं के बलको नाश करनेका दृढ़ संकल्प कर करणलब्धि' की ज्यों ही सहायता पाता है, त्योंही समय २ पर मोहकी सेनाको दबाएं: जाता है और अपने पास विशुद्ध परिणामोंकी सेनामको बहाए: आता है । अंतर्मुहूर्त के इस प्रयत्नसे वह आत्मवीर अति शीघ्र ही इन सातोंको दवा उपशमसम्यक्त की श्रेणीपर चढ़कर अपनी विजयका डंका बजाता और पुनः शिव- रमणीमें आशक्त हो जगत्के क्षणिक सुखोसे बाह्य स्वसमरानन्दका अनुभव लेता हुआ सुखी होता है ।
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श्रमीका साहस जो इसने मोहनृपकी सेनाके
आत्मवीरको मोहनृपके जंजाल से बचनेके लिये जो कष्टउठाना पडते हैं उनका अनुभव उसे ही है । धन्य है इस परि बलको एक दफे दबा लिया था और जो अपने स्थान पर पहुंचनेके निकट ही था, परं उस मोहके तीव्र धोके में आजानेपर यह ऐसा गिरा कि महा मिध्यांत शत्रुके आधीन हो गया, पर इसने तब भी हिम्मत न हारी और इस प्रकार दृढ़ता रखने से म तमें यह सम्यक्ती -
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(४९) स्वसपरानन्द । श्रेणीपर चढ़ ही गया । यह बात देख मोह-नृपके पक्षियोंको बड़ा ही कष्ट हुआ है और वे निप्स तिस प्रकार इस वीरको इस श्रेणीसे डिगाना चाहते हैं, परन्तु इस समय यह धीर होकर अपने स्वरूपको न भुलाकर वहांसे अपना कदम नहीं हटाता है। दर्शनमोहनयि योद्धाके तीन भाधीन चाकर मिथ्यात्व, सम्पग्मिथ्यात्व और सम्यक्त प्रकृति मिथ्यात्व यद्यपि दब गये हैं, परन्तु युद्ध भूमिसे हटे नहीं हैं और मोहनृपसे प्रेरित किये जाने पर तीनों ही इस दावमें लगे हैं कि इसको इस श्रेणीसे च्युत करें । परन्तु इस वीरके अंतरंगमें अपने आत्मशुद्ध बुद्ध पाम तेजस्वी बलकी ऐसी अन्दा विद्यमान है और यह प्रशम, संवेग, अनुकम्प और आस्तिक्य योहा
ओंकी सेनाओंको शत्रुकी विपक्षमें ऐसी दृढ़तासे जमाए है कि इसकी परिणाम रूपी सेना-दलोंके सामने उन तीनोंकी सेना. ओंका कुछ बल नहीं चलता। परन्तु उन तीनोंकी सेनाओंमें से सम्यक्तरकृति-वी सेना बड़ी चतुर है, देखने में बड़ी सरल मालूम होती है । उसने अ.त्मवीरकी सेनामें दाव पाकर ऐसा मेल बदाया कि उसके कम्पमें जाकर सेना दलको मलीन करने लगी, मात्म वीरकी सेनाको शिथिल करने का उपदेश देने लगी : कभीर भोले जीव मोहमें पर अपनी दृढ़ता गमा बैठते हैं। ठीक यही हालत इसकी हुई । अत्मवीर यद्यपि इस श्रेणीसे च्युत नहीं हुआ है तथापि सम्यकप्रकृतिकी सेनाका प्रभाव पड़ जानेसे चल, मलिन, अगादरूप हो जाया करता है । यद्यपि इपको मोक्षके अनुपम आनन्दकी श्रहा है तथापि कभी ९ सशंकित हो जाता
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स्वसमरानन्द ।
(५०) है और फिर एकाएक सम्हल जाता है। कभी २ इन्द्रिय विषयोंकी चाहनाको उपादेय मानने लगता है कि एकाएक सम्हल जाता है। इस तरह १५ मल दोषोंमेंसे कभी किसी न किसीके झपेटमें आ जाता है । अपने मात्मद्रव्यको शक्तिकी अपेक्षासे परमात्मासे भिन्न श्रद्धान रखते हुए भी कभी २ निश्चयसे भी भिन्नता समझ लेता है और तुरंत सम्हल जाता है। अपने स्वरूप समाधिमें रहना ही उपादेय समझता है, परन्त कभी २ पंचपरमेष्टीकी भक्तिको ही एकान्तसे सर्वथा मोक्ष-कारण जान सन्तुष्ट हो जाता है; परन्तु तुरंत ही सम्हल जाता है। इस प्रकारकी मलीन, चलित और अगाढ़ अवस्थाको भोगता हुमा भी अपने सम्यकूश्रद्धानसे मिरता नहीं । मिथ्यात् और मिश्र लाखों ही यत्न करते हैं, परन्तु इसकी थिरताको मिटा नहीं सक्त। ऐसी क्षयोपशम सम्यक्तकी अवस्थामें यह वीर भव सम्बन्धी सुखसे विलक्षण शात्माधीन सुखको ही अपने आपमें अनुभव करता हुमा
और अपने सत् स्वरूपी सर्व अन्य द्रव्य, गुण, पर्यायोंसे पृथक् भावता हुभा जो आनंदका अनुभव करता है वह अनुभव परिग्रही सम्यक्तरहित षटखंडाधिपति चक्रवर्तीको भी नहीं हो सका धन्य है यह वीर जो इस प्रकार साहस कर प्रवक मोह-शत्रुसे युद्धकर अद्भुत स्वसमरानन्दका स्वाद ले रहा है।
___ आन यह आत्मवीर क्षयोपशमसम्यक्तके मनोहर वस्त्रोंसे सुसज्जित हो परमात्म परम पावन महावीर-सम्मति वीर-अतिधीर-वईमान स्वरूप श्री शद्धात्म । के
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(११)
स्वसमरानंन्द ।
सभा में उपस्थित हो चहुं ओर दृष्टि फैलाकर देखता है, तो सभामें परमसौम्य, सहजानन्दरस से भरपूर स्वाभाविक छटामें कल्लोल करनेवाली अनेक विशाल मूर्तियें विराजमान हैं । ज्ञान; दर्शन, सुख, ची, चारित्र, सम्यक्त, क्षमाभाव, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य्यं तत्रूप, अततरूप, एकरूप, अनेकरूप, स्वद्रव्य अस्तित्व, परद्रव्यनास्तित्व, स्वक्षेत्रमस्तित्व, परक्षेत्रनास्तित्व, स्वकाल अस्तित्व, परकाल अस्तित्व, स्वभाव अस्तित्व, परभावनास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि परम शांत गुण परम समताभाव के साथमें एक ही स्थउपर अविशेषताके साथ विराजमान हैं । श्रीजिनेन्द्र महावीर परमात्माके उपयोगरूप देहसे अनुभव स्वरूप परम दिव्यध्वनि अपनी गंभीरता, सत्यता, मनोहरता और वीतरागता से सर्व सभा उपस्थित सभासदको आनंदित करती हुई परमचित्स्वादुरूप अमृतसे तृप्त कर रही है । इस समयकी छटा निराली है । सर्व सभा में एक समता छा रही है | जैसे शरदऋतुके निर्मल बादलोंसे आकाश आच्छादित हो परम शोभा विस्तारता है उसी तरह अनुभव रसकी धाराओंके बरसने से सिवाय इस स्वरसकी शोभाके और कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता । इन धाराओंका ऐसा प्रभाव है कि अनादि संसारताप एकदम शान्त होकर मिट जाता है। विषयभोगकी तृषासे त्रासित व्यक्ति अनेक विषयों में दौड़ २ कर जानेसे केवल खेद ही उठाता * ऐसे है या अधिक तृपाके चलको बढ़ाकर परम खी ।.
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स्वसमरानन्द। जाती है। परन्तु निन रस सुधा समूहको बारम्बार पीनेकी उत्कंठा
और चाहना उमड़ भाती है। यह क्षयोपशमसम्यक्ती जीव परम वीरोत्तम श्री शुद्ध वीरनाथकी सभाके दर्शन कर, केवल दर्शन ही नहीं, उनके स्वरूपके ध्यानमें लौलीन हो अपना जन्म कतार्थ मान रहा है, तो भी कभी २ स्वरूपसे च्युत हो झोका खा विषयानुरागमें चला जाता है-यह इसमें निर्बलता है। अभी इसके युद्धक्षेत्रमें सम्यक्तमोहनी अपनी सेनाको बैठाले हुए है। यह चंचलता उसीकी हुई है। पर यह तुरन्त सम्हलता है और अपने स्वरूपमें आ विराजता है । और श्री मात्मवीरकी निर्वाण लक्ष्मीकी अर्चाके अर्थ और उनके प्रतापसे अपना मोह-अन्धकार मिटाने के लिये ज्ञान-ज्योतिके ज्ञानमय विकल्प स्वरूप अनेक प्रकाशमान भावदीपकोंको प्रज्वलित करता है। और इन्हीके प्रकाशमें शोभित होता हुआ व शोमा विस्तारता हुआ दीपावलीका महान उत्सव मना रहा है। श्रीवीर प्रभुकी झर्चाके अर्थ इसने स्वाभाविक आत्मज्ञानमई मोदक तय्यार किये हैं। जिनको प्रसित करनेसे भाविक जीवोंका क्षुधारूपी रोग सदाके लिये छूट जाता है। इन अनुपम मोदकोंको परम सुन्दर स्फटिक मणिमय निज सत्ताकी रकाबीमें विराजमान कर और तीन रत्नमई परम दीपको स्थापित कर बड़ी ही सार और सुपट भक्तिसे श्री परमात्म प्रभु और उनकी निर्वाण लक्षमीकी पूजन करता है। इस समय और इस क्षण कि जब श्रीमहावीर परमात्माने सर्व परसम्बन्धोंको हटाकर अपनी मुक्तितियासे सम्मेलन कर परम तृप्तताका लाभ किया है-इस नैवेद्य और दीपपूजन
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... . . (५३): . “स्वसंमरानन्द ! ही की मुख्यता है । इस समय युद्ध रुक गया है । इस समय यह सम्यक्ती परम गाढ़ भावसे निज अनुभव रसमें ही मन है.। .. फिर किसकी ताव है जो इसके स्वरूपको चलायमान कर सके। यद्यपि यह स्वस्वरूपावरोही हैं, परन्तु अभी तक मोह.रानाफे . प्रपंचोंसे बाहर नहीं गया है। यह भव्य जीव इस बातको जानता . है । इसीलिये भेदविज्ञानशस्त्रको सम्हाले हुए सदा सावधान. . . रह स्वसमरानन्दके अनुभवका भोग भोग रहा है।., . . . .
(२७) . श्रीवीर मिनेन्द्र परमात्माकी हार्दिक रुचिसे भक्ति और पूजन कर यह क्षयोपशम सम्यक्ती जीव अपनी चौथी श्रेणी में ही अपनी : प्रतीति सम्बन्धी परिणाम रूपी सेवामें चंचलता देख विचारता है
और इस चंचलताका कारणरूप सम्यक्तमोहनीकी सेनाओंका अपने ... ऊपर माक्रमण जान इस कलंकसे अपनेको बचानेके लिये निन . शुद्ध स्वभावमई परमानन्द केवलीकी शरण ग्रहण करता है. और उनके शुद्ध सदगुणमई चरणारविन्दोंमें टकटकी लगा निरखता है । विद्याधर सद्गुरुके प्रतापसे तुरन्त ही करणरूप शुद्ध मावकिी सेनाके दल इस भव्य जीवकी सहायताके लिये प्राप्त हो जाते हैं । यह शुद्ध-भाव दल एकदमसे मोह राजाकी सेनामें घसते हैं । सामने सम्यक्तमोहनीकी सेना और इसके इधर उघरं व पीछे मिथ्यात्त्व मिश्र और अनन्तानुबंधी : कषायोंकी सेना उपस्थित है । करणरूप, सेनाके भावरूप . सिपाही भेद-विज्ञानमई तीक्ष्ण खड़गको लिये हुए सातों प्रकृतिकी सेनाओंको काट रहे हैं । वास्तवमें इन सेनाओंने बहुरूपियका रूप बना लिया है । करण
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किसीके प्राण नहीं लेती, परन्तु इसकी वक्रताको मेट देती है, तब बहु रूपियापना मिट जाता है, सारे पुद्गरकी मोह-माया अलग हो जाती है । तब जीवकी निर्मल भावरूप ही सेना बन जाती है, जो शीघ्र ही मोह-पक्षको त्याग चेतन पक्षमें आ जाती है । इस खड़ग के अनोखे अभ्यास से सातों मकृतिकी सेनाएं शनैः २ अपना रूप छोड़ देती हैं और मोहके युद्ध क्षेत्रमेंसे विदा हो जाती हैं। अब तो इस आत्मवीरने बड़ी भारी विनय कर डाली है । अनादि कालसे आत्माको विहल करनेवाले शत्रुओंका नाम निशान तक भी मिटा दिया है । धन्य है ! अब तो यह वीर क्षायिक सत्यक्तकी उपलब्धिमें परम तृप्त हो रहा है । स्वरूपाचरण चारित्र अविनाभावी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान मित्रोंकी सुसंगतिमें अपने आपको कृतार्थ मानता हुआ निज अनुभूतितिया के स्वरूप - निरखनमें एकाग्र हो रहा है । षट् द्रव्योंकी निज-स्वरूपता - दर्पण में पदार्थके समान प्रतिभासमान हो रही है, जिधर देखता है समता स्वरसता और शांतताका ही ठाठ दीख रहा है। जैसे भांग पीनेवालेको सब हरा ही इरा झलकता है वैसे ही इस स्वरस पानी उन्मत्तको सर्व स्वरस रूप ही प्रकाशमान * । मानो यह सारा लोक अनुभव- इससे भरकर परम शांत - मे और यह उसीमें डूबा हुआ बेखबर
चमकता हुआ स्वरूपा
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रहा ६. क्षोभरहित एक सागर
पड़ा है । सम्यक्तरत्न जिसके मस्तक५९
विपर्यय और कारण विपर्यय रूपी अंधकारको हटा रहा . अपूर्व लाभमें ज्ञान वैराग्य योद्धाओंका सन्मान करता हुआ यह
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आत्मधीर स्वरूप तन्मयतामें मटका हुआ स्वसमरानंदका स्वाद ले स्वपथ अवरोही हो रहा है।
(२८) चतुर्थ शुद्ध गुणस्थानावरोही स्वात्मानुभवी क्षायिकसभ्यग्दृष्टी आत्मवीर संसार स्थित जीवोंके अनादि कालीन तीन शत्रु
और मोह रानाके परम प्रिय और बलिष्ठ योहा सप्त मोह-कर्मपर भमिट, अपूर्व, और निश्चय मोह विध्वंशनी विनयकी उपलब्धिसे अकथनीय मानन्द और मुक्ति-कन्याके अनुपम निर्मल मुख अव. लोकनके उल्लासमें तन्मय हो रहा है और हद साहस पकड़ मोह की मवशेष वृहत् कर्मरूप सेनाके विध्वंस करनेको भेदविज्ञानमई भट खड़गको उठाता है और उसकी निर्मल कान्तिकों चमकाता हुआ अति निर्भयतासे मोह-दलमें प्रवेश करता है। विशुद्ध परिणामरूप सिपाहियोंकी मददसे मानकी मानमें अप्रत्याख्यानावरणी कषायके चार योद्धाओंकी सेनाको ऐसा दुःखित करता है कि वे विह्वल होकर सामना छोड़ भागती हैं और अति दूर ना भयके साथ छिपकर बैठ रहती हैं। इतनेही में देशचारित्र योद्धाकी ११ प्रकारकी सेनाएं जो अपत्यान्यानावरणीफे दलोंके तेनके सामने नहीं मा सकी थीं, अब झूमती हुई व आनंद मनाती हुई व त्यागके सुगन्धित रंगो अपनी मनोहर पोशाकोंसे झलकाती हुई युद्धक्षेत्रमें माके अपने वैराग्यमई शस्त्रीको चलानेके लिये कमर कसके खड़ी हो जाती हैं और विशुद्ध परिणामोद्वारा अविभाग प्रतिच्छेदरूप वाणोंकी वर्षा करने लगती
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(५६) वसमरानन्द । हैं । जिस कारणसे सारी मोहकी सेना शिथिल पड़ जाती है और अशुभ लेश्याका रंग बिलकुल मिटकर शुभ तीन लेश्याओंका बदलता हुआ रंग इस आत्मवीरकी सेनामें प्रकाशमान होने लगता है । इस समय मोह दलमेंसे भय खाके निम्न प्रकृतिरूपी सेनाके दलोंने अपनी सेनामें वृद्धि करना छोड़ दिया है और इतनी सेनाओंने युद्धक्षेत्रके पृष्ट भागको अवलम्बन किया है। यह क्षायिक साम्यक्ती आत्मवीर इस प्रकार श्रावककी क्रियाओंके वाह्य मालम्चनद्वारा अंतरंग स्वरूपाचरण चारित्रमें अधिक २ वृद्धि कर रहा है और कर्मकलंकसे व्यक्ति अपेक्षा आच्छादित होनेपर भी शक्ति अपेक्षा अपनेको शुद्ध निरंजन ज्ञानानंदमय अनुभव कर रहा है । जिप्स शुद्ध अनुभव के प्रतापसे अपनी विशुद्ध परिणामरूपी सेनाओंको ऐसा सुखी और संतोषी बना रहा है कि उनके भीतर शक्ति बढ़ती चली जा रही है और बारंबार अपने विद्याधर गुरुको नमन करके परमोपकारीके गुणों को अपनी कृतज्ञतासे नहीं भूलता हुमा हार्दिक भक्ति और साम्यभावरूपी परम विचारशील मंत्रियोंके प्रभावसे अपने उदयमें परम विश्वास धार परम भानंदित होता हुआ और मुक्तिकन्याका प्रेरित अनुभूति सखीसे आत्मारूपी आराममें केल करता हुआ जब उसके गुणरूपो वृक्षोंकी शोभामें टकटकी लगा देखते २ एकाग्र हो जाता है तब सर्व विरसोंसे पृथक्भूत निन रसके अद्भुत और अनुपम स्वादको पा उन्मत्त हो स्वसमरानन्दमें बेखबर हो जाता है और उस समयके सुख, सत्ता, बोध और चैतन्यके अनुभवमें एकाग्र हो मानो मात्म-समुमें डूबकर बैठ जाता है।
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खसमरानन्द । (५७)
(२९) ___परम कल्याणका इच्छक निजगुणानंदवईक सम्यग्दृष्टी आत्मा मोहमलसे युद्ध ठान उसके बलको दबाते २ पंचमगुणस्थानमें पहुंचकर और उसके योग्य संपूर्ण साजसामान बदल एकत्र कर अब इस योग्य हो गया है कि आगे बढ़े और जिस तरह हो सके शीघ्र ही आत्माके बैरीका विध्वंस कर सके। इस धीरने १४८ कर्मप्रकृतियोंके दलोंमेंसे ६१ प्रकृतियोंके दलोंको तो अपने सामनेसे. भगा दिया है, केवल ८७ (१०४-अपत्याख्यानावरणी क्रोध, मान, माया, लोभ, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, देवायु, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, मनुष्य गत्यानुपूर्वी, तिर्यगत्यानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय, अयशस्कीति) प्रकृतियोंके दल ही युद्धको सामने उपस्थित हैं। इस वीके विशुद्ध भावरूपी दल भी ऐसे वैसे नहीं हैं ! मात्मानुभवरूपी अमृतका पान करते २ इनके अन्दर बलिष्टता ऐसी बढ़ गई है कि ये मोहके दलोंको कोई चीन भी नहीं समझते।, इसको अपने कार्यमें अति सावधान देख विद्याधर गुरु इसको पुकार कर कहते हैं-अरे वीर ! साहस कर, प्रमाद चोरके वशमें न पड़, अब तू मोहके दलकी भी इष्ट चीनको जो तेरे पास हो अपने पाससे निकाल और नई मूर्छा और उसके कारणोंको मेट, शरीर मात्र परिग्रहका धारी रह और निर्द्वन्द विकार रहित होकर मोहके दलोंके पीछे निरन्तर ध्यानका अग्निवाण फेंक | इस शिक्षासे द्विगुणित माइस पाकर यह वीर आमा उठता है, कमर कसता
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है और अन्य सर्व ओरसे चित्त हटा कर अपने दलोंके दृढ़ करनेमें उपयुक्त हो जाता है, श्रीविद्याधर गुरुके समीप सम्पूर्ण परिग्रह भारको त्याग बालकके समान विकार रहित होता है और केशोंका कोंचकर पंचमहाव्रत रूपी महान सेनापतिर्योकी सुसं गति प्राप्त करता है । इनकी मददका मिलना कि यकायक प्रत्याख्यानावरणी कषायके दल दबकर बैठ जाते हैं। इस वीरका प्रयाण सातवें गुणस्थान में हो जाता है । जिस जोरके साथ यह इस स्थलपर जाता है उसी जोरके साथ दृढ़ता से जम जाता है, और सारे मोहके दलोंकी हिम्मत हरा देता है । उत्तम धर्म ध्यान शस्त्र बलसे सर्व कर्मोंको कम्पायमान रखता हुआ माप अपने अंतरंगमें सर्व प्रमादको हटा ऐसा हुछासमान रहता है कि. जिसका वर्णन करना असंभव है । आत्माकी शुद्ध परिणतिकी भावना में तल्लीनता प्राप्त कर और अपनेको रूपातीत निरंजन, निर्विकारी, परम गुणधनी, निजामृतसागर और अनंत गुणकाआकर अनुभव कर जो आनन्द प्राप्त कर रहा है वह ज्ञानीके अनुभव ही गोचर है । इसकी सारी निर्बलता इस समय दब गई. है । यह वीर आत्मा समता रसके श्रोतमें ऐसा डूब रहा है कि मोह शत्रुके दल भी इसे देख आश्चर्य करते हैं । इसकी इससमयकी शोभा निराली है, तितिया भी इस छविके निरखने की उत्सुक हो रही है । धन्य है यह - वीर जिसने स्वपुरुषार्थ बलसे: ऐसा उद्योग किया कि दीन हीन दरिद्रीस यान पहना धनका, घनीं स्वसमरानन्दका भोगी हो गया है ।
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परमात्मपदारोही, ध्यानमग्न ध्याता ध्यान धेयकी एकता में तन्मय, स्वरूपावलम्बी सप्तम गुणस्थानी वीर आत्मा किस दृश्यका आनन्द भोग रहा है, इसका पता - पाना ही दुर्लभ है, क्योंकि जिस समय यह निज कार्य में तन्मय है उस समय वह वचनके प्रयोगसे : रहित है, और जब वचन कल्पना में पड़ता है. तब उस दृश्यको अपने सामने नहीं पाता। इसलिये यही कहना होगा कि जो अनुभवे सो भी नहीं कह सक्ता और जो शास्त्रद्वारा जाने सो भी नहीं कह सक्ता । - हां जो अनुभव करता है- आत्माका आस्वादी होता है, वह आस्वादसे च्युत हो जानेपर अपनी स्मृतिसे इस बातको जानता है कि अनुभव बड़ा ही आनंदमय होता है, पर उस आनन्दके लक्षणको न तो वह भोग ही रहा है और न वह कह ही सक्ता है। और यदि वह कहने का प्रयत्न करे तो संभव है कि वह अनेक दृष्टांता दाष्टांतों उस श्रोताको सांसारिक इन्द्रियजनित सुखको सुख मानने से हटा दे, परन्तु उसके हृदय में उसके वचनोंके ही द्वारा विना स्वअनुभव पैदा हुए उस मतीन्द्रिय सुखका झलकाव हो जाना अतिशय.. असंभव है ।
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अमृतमई रसकी
स्वरमणी - शिवरूपिणी आशक्तता, उसके स्वरूप स्मरणमें तन्मयता, निराकुलतासे, उसी विचारमें थिरता, पेवता इस सप्तम क्षेत्र में इस आत्मवीरको ऐसी कि मोह शत्रुके सुभट ४ संम्वलन कपाय
युद्धक्षेत्र में इसके सन्मुख हो शस्त्र चलाते हैं, पर उनके निर्बल
हाथोंसे फेंके हुए शस्त्र उस वीरके ऊपर हीं
ऊपर लगाकर गिर
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प्राप्त हो गई है
और ९ नोकषाय
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(६०) स्वसमरानन्द ।। जाते हैं; उसके खास भावरूपी तनपर अपना घाव नहीं कर सक्ते। जब सर्वसे प्रबल सेनापतियोंकी यह दशा, तब अन्य सैन्यगणों के प्रयोग का काममें आ सक्ते हैं ? यह वीर स्वसत्तामें ठहरा हुमा निज दृश्यके अनुपम अनेक सामान्य और विशेष गुणरूनी रत्रोंको परख १ परम तृप्त हो हो रहा है। इस समय इसको यह महंकार है कि मैं अटुट धनका धनी-निन आत्मविभूतिका स्वामी हूं। मेरे समान त्रैलोक्यमें सुखी नहीं। मैं जगतके अन्य सम्पूर्ण द्रव्योंकी व जीवोंकी भी सत्तासे भिन्न, पर निन स्वभावसे मभिन्न हूं | मैं अकलंकी कर्मरूपी कालिमासे परे हूं। मेरे कर्म, नौकर्म, द्रव्यकर्मसे कोई नाता नहीं है । मैं एकाकी चिपिडरूप स्वच्छ स्फटिक समान ज्ञाता दृष्टा हूं । यद्यपि यह विकल्प भी उस स्वानुभवमें स्थान नहीं पाते, परन्तु वक्ताको उस अनुभंवके दृश्यकी दशा दिखलानी है, इससे उस निराकुल थिरभावको इन विकलों ही के द्वारा कथन किया जाता है। स्वसंवेदीको स्वरसवेदनमें विकल्प नहीं, आकुलता नहीं, खेद नहीं । इस अवस्थामें देख मोह राजाको बड़ा ही माश्चर्य होता है कि अब मेरी प्राधान्यता जानेवाली है, अब इसको इस क्षेत्रसे गिरानेका फिर योग्य प्रयत्न करना चाहिये । वह मोह युद्धक्षेत्र में आता है और इन तेरह ही
सुभटोंको ललकारता है, डांटता है और फटकारता है । मोहकी - प्रेरणासे प्रबलताको धार दीनताको छोड़ ज्यों ही वे तीव्र हृदय
वेधक बाण छोड़ते हैं उस विचारेका उपयोग विचलित हो जाता है और आनकी आनमें वह सातवेमे, छठम आ पहुंचता है। जो विश्लोकी तरंगें रुक रही थी वे एकाएक उटने लगती हैं, .
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स्वमरानन्द |
(६१)
घमसान युद्ध फिर प्रारम्भ हो जाता है । उघर मोहके वाण, इधर वीरके विशुद्ध परिणामरूपी वाण दोनों खूब चलते हैं। परन्तु यह वीर, घीरवीर तुरंत ही अपने गुरु विद्याधरको याद करता है । ज्यों ही वे आते हैं, अपूर्व विशुद्ध परिणामोंकी सहायता देते हैं कि यह प्रमादीसे अप्रमादी हो जाता है और फिर सातवीं भूमि पा लेता है । वे विचारे ११ सुभट अपनाता मुंह ले रह जाते हैं। अपना बल चलता न जान दीन उदास हो जाते हैं । यह धीरवीर निजगुणानंदी अदभुत स्वादके अनुरागमें मस्त हो जाता है, सब सुध बुध मानो विसरा देता है और यहांतक स्वानुभूतिसे एकमेक रमणता पा सेता है कि इसके सारे अंग प्रत्यंग वचन मन सच इससे मानों परे हो जाते हैं । यह कायोसर्ग में डंटा हुआ आप ही आपको अपने से ही अपने में अपने लिये देखा करता है और उसी समय अपने से ही उत्पन्न स्वामृत रसको पिया करता है । धन्य है यह स्वरूपानन्दी ! इस स्वसमरमें दृढ़तासे लवलीन यह भव्य प्राणी सर्व आकुलताओंसे पृथक् निराकुल स्वसमरानन्दको भोग परमाल्हादित हो रहा है । ( ३१ )
मोह राजासे युद्ध करते २ यद्यपि चिरकाल हो गया है, तौ भी साहसी चेतन अपने बलमें पूर्ण विश्वास रखता हुआ मोहके विध्वंश में पूर्णतासे कमर कसे हुए अपनी सातवीं गुणस्थान रूपी भूमिमें बैठा हुआ अपने उज्वल परिणामोंकी सेनासे मोहके कर्म रूपी दलको निर्वक बना रहा है । इस समय यह वीर अपने स्वरूपमें व अपनी श्रद्धा में अच्छी तरह तन्मय है । जगत्के यो
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(६२).
स्वसंमरानन्द
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डाओको युद्ध करते हुए खेद होता है, मनमें कषायकी कलुपता होती है. पर इस वीरको न खेद है न कलुषता है; किन्तु इस सर्वके विरुद्ध इसके परिणामोंमें अपूर्व शांति और आनन्द है । 'जिस स्वानुभूति - तियाके लिये इस वीरका इतना परिश्रम है उसीमें गाढ़ रुचि व प्रेमको क्षण - २ में आनन्द सागर में निमग्न रखता है। यह लीन है - अपने कार्यमें कुशल हैं, तौ भी मोहके, संज्वलन कषाय रूपी बीरोंने जो अभी २ अति निर्बल हो गए थे अपनी तेजी दिखलाई और ऐसी चपेट मारी कि उनके जोरके. सामने चेतनके उज्ज्वल परिणाम दवे और वह यकायक छठे गुणस्थान में आगया । यद्यपि यहां उतनी दृढ़ता नहीं है, तौभी चेतन अपने कार्य में मजबूत है। यहांसे नीचे गिरानेका यत्न शत्रुके दल भले ही करें पर इसके दृढ़ दलोंके सामने उनका जोर नहीं चलता । चेतन जत्र अपने दलोंका शुमार करता है तो देखता है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्यं और अपरिग्रह यह पाँच बड़े २ सेनापति अपनी वीरतामें किसी तरह कम नहीं है ।
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निज सुख सत्ता चैतन्य बोध रूपी निधिको किसी भी प्रकारसे भ्रष्ट न होने देनेवाला अहिंसा महाव्रत है । सत्य यथार्थ निज स्वरूपकी निर्मलता को कायम रखनेवाला सत्य महाव्रत है । निज विभूतिके सिवाय अन्य किसीके कोई गुण व पर्यायको नहींचुरानेवाला अस्तेय महाव्रत है । निज ब्रह्मस्वरूप में थिरता के साथ चलनेवाला ब्रह्मचर्य महात्रत है । और पर भावों का त्यागरूप
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'स्वसमरानन्द ।
(६३)
तरह पांच समितिकी सेनाएं भी बड़ी ही अपूर्व हैं, जो सदा पांच महाव्रत रूपी सेनापतियोंकी रक्षा किया करती हैं। निज जीव सम समस्त जीवोंका अनुभव कर निज चरण प्रवृत्तिसे पर जीवोंको बाघासे बचानेवाली ईर्ष्या समिति है । कर्कश कठोरं वचन वर्ग'णाओंसे पर जीवोंको बाघा होती है- ऐसा विचार सदा समता रस गर्भित शांत ध्वनिको अंतरंगमें फैलाकर निज तत्वकी सत्यताको - कायम रखनेवाली भाषा समिति है । व्यवहारिक शुद्ध आहार - वर्गणाओंके ग्रहणसे केवल परकी तृप्ति जान निज अनुभवमई परम - शुद्ध और स्वादिष्ट रसका आहार अपने आपको करा कर तृप्ति देनेवाली एषणा समिति है । व्यवहार प्रवर्तन में शुभोपयोग द्वारा वर्तते हुए बंधकी आशंका कर निज उपयोगको अति सम्हालकर निज भूमिसे उठाते हुए व निम गुण व पर्यायके मनन रूपी गृहण में प्रवर्तते हुए निज वीतराग परिणतिको रक्षा देनेवाली आदान निक्षेषणा समिति है । निज आत्म सत्तामें बैठे हुए कर्म मलोंको अपनेसे हटाकर उनको उनके स्वरूप व आपको अपने स्वरूपमें निर्विकार रखनेवाली प्रतिष्ठापना समिति है । ऐसी अपूर्व समिति रूपी सेनाओंके सामने शत्रु की सेना क्या कर सक्ती है | 'पंचेन्द्रिय निरोधरूपी सेना भी बड़ी प्रबल है । यह प्रचल शत्रुओं के आसको रोकने वाली है । स्पर्श इन्द्रिय पर हैं, पुद्गल मय है, विनाशीक है । मैं स्वयं चैतन्य स्वरूप अविनाशी हूंऐसा अनुभव प्रधानी उपयोग निजस्वरूपके सिवाय अन्यको स्पर्श नहीं करता हुआ चेतनकी सेनाकी दृढ़ता से रक्षा करता है।
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(६४) स्वसमरानन्द। मात्म प्रमुसे विलक्षण है-ऐसा जान ज्ञानोपयोग सर्व मिष्टादि रसोंका राग त्याग आत्म समुद्र में भरे हुए पूर्णानन्द रूपी निर्मल रसको लेता हुआ परम तृप्त रहता है और किसी भी शत्रुकी सेनाके बहकाने में नहीं पड़ता।
घ्राण इन्द्रिय जइ वस्तुओंकी गंधके आधीन हो हर्ष विषाद करती है। इसकी यह परिणति वैभाविक है। मेरे स्वमावसे सर्वथा भिन्न है-ऐसा जान चेतनकी ज्ञान चेतना सर्व पर वस्तु
ओंके सामान्य स्वभावको वीतरागतासे देखती हुई अपूर्व सुगधित निन आत्म रूपी कमलकी मनोहर स्वानुभूति रूपी गंधमें भ्रमरीकी तरह उलझकर लीन हो जाती है और पर पदार्थके गंधके मोहमें न पड़ शत्रुओंके आक्रमोंसे सदा बचती रहती है । चक्षु इंद्रिय पुद्गल परमाणुओंका संघट्ट है। अपनी पुद्गलमई परिणतिसे स्थूल पुद्गलोंको देख देख हर्ष विषाद करती हुई शत्रुओं को अपने पास बुलाती है-ऐसा जान ज्ञान दृष्टि सम्हलती है और न देखने योग्यकी परवाह न कर देखने योग्य अत्यन्त सुन्दर निन शुद्धात्म रूपको व अन्य आत्माओंके परम मनोहर शुद्ध स्वरूपको देखने में लीन होती हुई, अपूर्व आनन्द प्राप्त करती हुई ऐसी चौकनी रहती है कि इसकी सेनाके पहरेके सामने किसी भी शत्रुसेनाकी मनाल नहीं जो इस चेतन की रणभूमिमें प्रवेश कर सके।
कर्ण इन्द्रिय स्वयं नई है । भाषा वर्गणामई जड़ शब्दोंको गृहण कर नाना प्रकार परिणति करती है । शत्रुओंको बुलाय कर चेतनकी हानि करती है, ऐसा जान भाव श्रुतज्ञान अपने अनुभव रूपी खड्गको लिए हुए मुस्तैद हो जाता है और ध्वनि सम्बन्धी
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(६५)
स्व सेमरानन्द !
संकल्प विकल्पों की परवाह न कर अपने निर्विकल्प स्वरूपके जानन मानन में तल्लीन रहता हुआ निज स्वामी चेतनको शत्रु दलसे हर तरह बचाता है ।
इस तरह पंचेन्द्रिय निरोध रूपी सेनाए अपना कर्तव्य भले प्रकार करती हुई चेतन रूपी राजाकी सेवा बजा रही हैं ।
उधर देखा जाता है तो छह आवश्यक क्रियाओंकी गंभीर सेनाएं अपना ऐसा संगठन किये हुए हैं कि जिससे चेतनको अपनी सेनाका पूर्ण विश्वास है ।
प्रतिक्रमणकी क्रिया पिछले दोपों को हटाती हुई, जब अपने निश्चय स्वरूपमें परिपक्क हो जाती है तत्र चेतनकी भूमिमें शुद्धता स्वच्छता व मनोहरता ही दीखती है और ऐसी अपूर्व छटा झलकती है कि मानों चेतनकी सर्व सेनाओंमें अमृत- जल ही छिड़का हुआ है । यह दोष निर्मोननी सेना अपनी दृढ़ता से दोषजनित शत्रु दर्लोके आगमनको रोके रखती हैं। प्रत्याख्यानकी क्रिया आगामी दोषों से रागभाव छुड़ाती हुई अपने निश्चय स्वरूप में रह कर चेनतको निःशक रखता है और उसे अपनी सत्ता व उसकी शक्तिका पूरा २ उपयोग करनेकी स्वतंत्रता यह निर्मल सेना अत्यागसे आनेवाले शत्रु देती है ।
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वंदना क्रियाकी सेना जब अपनी व्यवहारकी शिथिल प्रवृतिमें थी तब कर्म शत्रुओंके लिये घर कर दिया करती थी, परन्तु अब यह सेना अपने शुद्ध आत्म स्वरूपमें ही लौलीन है, उसकी पूजा में ही तन्मय है, चेतनको शुद्ध भावमें जागृत रखते हुए यह सेना भी शत्रुओंके आक्रमण से बची रहती है ।
प्रदान करती है । दलको नहीं आने
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स्वसमरानन्द । (६६)
संस्तव क्रियाने अपने असली रूपको सम्हाला है, अपने ही शुद्ध गुणों के अनुभव रूपी स्तुतिमें भीजी हुई चेतनकी सर्व सेनाऔमें ऐसी सुन्दरता फैला रही है मानो सारी परिणाम रूपी सेनाको किसी अपूर्व विनयके लाभमें शांतमय पुरस्कार ही प्राप्त हुभा है। *. यह संस्तव क्रिया चेतनको स्वस्वरूप व स्यबलके स्मरणमें सावधान रखती हुई मोहके मनोहर ज्ञानरूपी जाल में पड़नेसे बचाती है।
सामायिक क्रियाकी सेना तो बहुत ही बहारदार है । इसके सर्व योद्धामोंकी सुरत एक सी परम शांतमय और मनोहर है। सर्वका डीलडौल भी बरावर है। पोशाक भी सर्वत्री एकसी श्वेत रंगकी है। यह सेना चेतनकी सारी सेनाओंकी जान है । इस सेनाके योद्धाओंके बान भी बड़े तीक्ष्ण व एक साथ चोट देनेवाले हैं, जिसकी चं टसे कर्मशत्रुके दलके दल स्वाहा हो जाते हैं। यह परम स्वात्मगुणानुरागिणी वीतरागताकी क्रांतिसे चमकनेवाली सामायिक क्रिया चेतनको अपनी शुद्ध भूमिमें दृढ़ताके साथ स्थिर रखनेवाली है, और ऐसी तेजशाली है कि इसके सामने शत्रुका एक भी योडा चेतनके सेनाकी भूमिकामें प्रवेश नहीं कर सक्ता।
कायोत्सर्ग क्रियाकी सेना अपनी दृढ़, ऊंची, एकता, शांतता च निज मनन रूपी पताकाको फहराये हुए चेतनकी सारी सेनाकी रक्षाके लिये दृढ़ स्तंभ स्वरूप है । इस क्रियाके प्रतापसे चेतन अपने सर्व शुद्ध परिणामोंके योद्धाओंके बलोंको एक साथ अनुभव करता हुआ परम तप्त रहता है और ज्यों १ इस क्रियाका सहारा
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(६७)
स्वसमरानन्द ।
पाता है, कर्म शत्रुओंके विध्वंस करनेका उत्कट साहस जमाता
जाता है ।
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इस तरह छह आवश्यक क्रियाओंकी सेनाओंको देखकर चेतन चीर परम प्रसन्न हो रहा है । प्रगत्तंगुणस्थान में ठहरा हुआ चेतन अपनी सर्व सेनाका अलग ९ विचार करता हुआ अपने बलको पुष्ट जान और मोह शत्रुसे विजय पानेका पक्का निश्चयंकर स्वसमरानन्दमें तृप्त हो परमानन्दित रहता है । ( ३२ )
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चैतन्य राजा अपनी पूर्ण शक्तिको लगाकर व अपनी २८ मूल गुण रूपी सेनाका विचार कर यकायक अपने उज्जल परिणामरूपी शस्त्रोंकी सम्हाल करता है और बातकी बातमें पष्टम श्रेणी से सातवीं श्रेणीपर पहुंच जाता है इस श्रेणीपर पहुंचते ही अब तो यह अपने समरके एक तान में ऐसा लीन होता है कि इसे और कोई ध्वनि ही नहीं सुझती है। यह क्षायिक सम्यग्टी है । स्वतत्त्वका अप निश्चय रखनेवाला है। अपनी शक्तिकी व्यक्ति में व मोहके जीतने में अटूट परिश्रम कर रहा है । यह वीर मात्मा अब सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान में तन्मय है। अब नीचे गिरनेका नहीं, ऊपर ही ऊपर चढ़ता है। इस समय मोह शत्रुकी सेनाएं जो ६३ प्रकृतिरूप छठेमें आकर जमा होती थी सो उनमें से ६ का आना बन्द हो गया । जैसे अस्थिर, अशुभ, असाता, भयशस्कीर्ति, अरति और शोक केवल ५७ ही आती हैं।
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'हाँ' जब यह आत्मा स्वस्थान अप्रमत्त अवस्था में होता है तब इसके .. आहारक शरीर और माहारक अंगोंमें पांव भी आते हैं। इस
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स्वसमरानन्द।
(६८) समय चेतन राजाके सामने मैदानमें खड़ी हुई ८१ मेसे आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, निद्रानिद्रा, प्रचलापचला, और स्त्यान गृद्धि निकाल करके ७६ ही प्रकृतियोंकी सेना है, तो भी मोहके युद्ध क्षेत्रके अड्डेमें १४८ में से ३ दर्शनमोहनी, ४ अनंतानुबंधी कषाय, नरक व तिथंचायु इस तरह ९ निकाल कर केवल १३९ प्रकृतियोंकी कुल सेनाएं जमा हैं । अब भी इस उद्योगी वीरात्माको इन सर्व सेनाओंको विध्वंश करना है-बड़ा भारी काम है । तो भी यह घबड़ाता नहीं, इसके परिणामों में बड़ी भारी शांतता है, बड़ी भारी वीरागता है, बड़ा ही ऊंचा धर्मध्यान है । रूपातीत ध्यानमें लय है जहां ध्यान, ध्याता, ध्येयका विकल्प नहीं है । इस समय इसके उपयोगरूपी दिशामें परमशांत निर्मल आत्मचन्द्रमा अपनी शुद्ध गुणकिरणावलीको लिये हुए झलक रहा है। उस चंद्रमासे जो अतिशांत स्वानुभवरूपी रस टपक रहा है उसे पान करते हुए इस ध्यानीको परम तृप्तता हो रही है । उस ध्यानमें प्रमाण, नय और निक्षेपके सर्व ही विकल्प अस्त हो गए हैं। इतने ही में मोह नाशक अधोकरण लब्धिके समय २ अनंत गुणी विशुद्धताको लिये हुए परिणाम रूपी सेनाओंका समागम होता है । यद्यपि यह सेना उतनी बलवती नहीं है जैसी. अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरणको सेनाएं होती हैं तो भी,मोह शत्रुको छकानेके लिये व उसे रुलाने के लिये बड़ी ही प्रबल हैं। इन परिणामोंका अनुभव कर वीरात्मा त्रिगुप्तरूप अति प्रौढ़ दुर्गमें बैठा हुआ:-मोहके झपेटोंसे बिलकुल बचा हुआ है । उसको अपनी, अनुभूति तियासे सम्मेलन करनेका परम सुंदर अवसर है । वास्तव में यह अनुभूति सखी ही शिव
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(६९) स्वसमरानन्दः । सुन्दरीकी भेट, कराने वाली है। विना इसके बीचमें हुए :कोई 'उस अपूर्व सुंदरीसे भेट ही नहीं कर सका। . . . . . . '.. बड़े ही आश्चर्यकी बात है. कि यह स्वसमरानादी आत्मा स्वानुभूतिका भोग भी करता जाता है. और युद्ध भी करता जाता है । यद्यपि लौकिक अवस्थामें, दोनों क्रियाओंका एक साथ युगपत होना सर्वथा असंभव है; तथापि पारलौकिक अवस्थामें दोनोंका. एक साथ ही सम्बन्ध है, जो निजानन्दी है । वही-मोह विजयी. है । जो स्वरसका पान करनेवाला है. वही. मोह संहारक है। जो. भव सम्बन्धी. क्लेशोंसे अतीत है. वही मवमें भ्रमणः करानेवाले. मोहको जीत सक्ता है । जो निन भूमिमें स्थिर है वही अपने निशानोंसे मोहकी सेनाओंको चूर चूर कर सकता है। इस तरह यह सातिशय अप्रमत्ती. आत्मा परम वीरताके साथ अपने प्रेम.. रसको पीता हुआ व अपने स्वभावमें लय रहता हुआ : मोहके .. सामने डटा हुमा स्वसमरानन्दका परमसुख - अनुभव कर . . नहा है।
सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानमें विराजनेवाला साधु आत्मा मोहको विजय करने ही वाला है । इसके परिणामरूपी. उन्चल चाणोंकी. ऐसी तेजी है कि मोहकी: सेनाको शीघ्रही विध्वंश करनेवाला है। इसके निर्मल. ध्यानकी. खगके सामने किसीका. जोर नहीं चलता । यकायक तेजीसे धर्म ध्यानकी खड़गको उठाते ही मोह शत्रुके दल जो सामने खड़े हुए हैं कांप जाते हैं.। संज्वलन क्रोधः मान माया लोभ और नोकषाय सेनापतियोंकी सेना यकायक
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(७०)
स्वसमरानन्द |
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घबड़ा जाती है । उनके घवड़ानेसे ही उनको बहुती निर्मलता आ जाती है। वे चेतन राजाके रास्तेको रोककर खड़े थे, पर उनमें कायरता के आते ही वीर मात्मा अपनी सेनाओं को बढ़ाता है और झटसे आठवें गुणस्थान में प्राप्त हो जाता है। अपूर्वकरण गुणस्थान में जाते ही चेतन राजाके पास ऐसे योद्धा जो पहले नहीं माए थे इस चेतनकी वीरता देख आते हैं और बड़ी ही उमंगसे इसको अपनाते हैं। मंत्र इस वीरने धर्मध्यानकी खड़गको अकार्यकारी जान छोड़ दिया और दृढ़ता के साथ पृथक् -वितर्कविचार नामक शुक्लध्यानकी खड़गकों हाथमें ले लिया है। इस पदमें यह वीर बड़ी ही एकाग्रतासे निर्मल भावके बाण चलाता है, यद्यपि बीच २. में मन वचन, काय योगोंकी पलटन होती हैं, व श्रुतके पद व अर्थका व एक गुणसे अन्य गुणका परिवर्तन होता है तौ भी इसको मालूम नहीं पड़ता । यह तो अब इस धुनमें है कि किसी - तरह मोहको नाशकर भगादूं । यद्यपि यह वीर इस उद्यममें है तथापि मोह भी गाफिल नहीं है। सातवें पदमें मोहकी सेनामें १७ प्रकृतियो की सेना बढ़ती थी । अब वहां केवल देवायुकी प्रकृति घट गई । इस क्षपक श्रेणी में भी १६ प्रकारकी सेना आरही हैं । युद्धमें सामना किये हुए ७ वें ७६ प्रकृतियोंकी सेना थी अब सम्तप्रकृति, अर्द्धनाराच, कीलक, असंप्राप्ता पाटिका संहनन रुक गई केवल ७२ प्रकृतियोंकी सेना है, जब कि मोहराजाकी युद्ध भूमिमें १३८ प्रकृतियोंकी कुल सेनाएं हैं, देवायुकी नहीं है । जो साहसी होते हैं वे बातकी बातमें बहुत कुछ कर डालते हैं | धन्य है वीर आत्मा ! अब इसकी भावना सफ़ल होनेको
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है । अब यह शीघ्र ही मुक्ति कन्यका का वर होगा | अब इसके मीतरी जोशका पार नहीं है । अब यह महान आत्मा वीर रसको झलकाता हुआ स्वसमरानन्दको अनुपम रस पी रहा है। ( ३४ )
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अपूर्वकरण गुणस्थान में बैठा हुमा वीरात्मा अपनी शुद्धोपयोगकी दशा में अनुपम अनुभव रसंका पान करता हुआ किस तरह. उन्मत्त है उसका वर्णन नहीं हो सक्ता । जैसे कोई मनुष्य दूरीपर बैठे हुए अपने मित्रको मिलनेकी मनोकामनासे बढ़ा चला जाता हो और जब वह मित्र निकट रह जाता है तब अपूर्व आनन्दमें भर जाता है उसकी यह आशालता खिल उठती है कि अब मैं शीघ्र ही मित्रसे मिलानेवाला हूं, उसी तरह इस वीरात्माकी दशा है । यह ore क्षपकश्रेणीका नाथ है। मोह राजाकी हिम्मत इसके सामने । पश्त हो गई है । इसको अच्छी तरह भास रहा है कि यह अपनी केवलज्ञानरूपी ज्योतिसे शीघ्र ही मिलेगा । शुक्कुध्यानकी निर्मक तरंगें अव्यक्त रूपसे उठ २ कर इसके चित्तको धो रही हैं। इस वीरकी उज्वल परिणामरूपी सेना दिनपर दिन अति दृढ़ता और साहसमें भरती चली जाती है । यह बात सच है कि जिसकी एक दफे विजय हो जाती है उसका साहस उमड़ जाता है, पर जिसकी कई दफे विजय पताका फहराए उसके साहस व उमंगका क्या कहना । यह वोर संयम अश्वपर चढ़े हुए, उत्तम क्षमाका बख्तर पहरे हुए, ध्यान खड्ग लिये हुए समता के मैदान में इस अनुपमता से कीड़ा कर रहा है और अपनी खड़गकी घारको चमका रहा है कि मोह वीरकी सेना सामने खड़ी हुई
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स्वममरानन्द। (७२) कांप रही है, उमको साहस नहीं होता कि वह आगे बढ़ सके। यह वीरात्मा स्वसमाधिके नशे में उन्मत्त होता हुआ अपनी परिणामरूपी सेनाको बड़े वेगसे चलता है और ध्यान पड्गके दाव पेंच इतने वेगसे करता है कि मोहकी सेनाके कई बड़े २ योडा चोट खाकर गिर जाते हैं और फिर कभी मुंह न दिख एंगे ऐसी प्रतिज्ञा कर लेते हैं। वे ३६ योहा निम्न प्रकार हैं निद्रा,प्रचला, तीर्थकर, निर्माण, प्रशस्त विहायोगति, पंचेन्द्रिय जाति, तैनस शरीर, कार्माण शरीर, आहारक शरीर, आहारक मगोपांग, सम. चतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियक शरीर, वैक्रियक अंगोपांग, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, रूप, रस, गंध, स्पर्श, मगुरुन्धुत्व, उपघात, परघात, उछास, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, हास्य, रति, जुगुप्ता भय हैं। इन नवीन सेना
ओंके हठते ही यह नोर्वे गुणस्थानमें आनाता है और अनिवृत्ति गुणस्थानी कहलाता है। अब यहां केवल २२ प्रतियोकी सेना ही मोहकी सेनामें आती हैं । मैहानमें ८ वी श्रेणीमें ७२ प्रक. तियां थी, अब यहां ६ नहीं हैं; अर्थात हास्य, रति, मरति, शोक, भा, जुगुप्सा । केवल ६६ हो अपना नीचा मुंह किये हुए खड़ी हैं । यद्यपि मोहकी रंगकी भूमिमें अब भी १३८ प्रकृतियों की सेना पुरानी आई हुई मौजूद हैं । इस समय भी चेतन वीरके पास वही प्रथम शुक्लध्यान रूपी खड़ग है, पर यहां इसकी धार बहुत तीक्ष्ण होगई है। मोहके बलको तोड़ते २ इसकी धार तेज हो गई है | आठवेमें इसकी धार भी मन्द थी और ध्याताकी स्थिरता भी कम थी, पर यहां स्थिरता अधिक है।
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इस वीर साहसीका उत्साह भी ज्यादा है। यह धर्मबुद्धि पवित्र कार्य करनेवाली आत्मा परम पुरुषार्थी है। इसकी तृष्णा भी अगम्य है, इसको तीनलोक व अलोकका राज्य लेना है, इसको सिद्ध अवस्थाकी बराबरी करनी है, इसको तीन लोकके ऊपर अग्रभागमें विराजना है। ऐसा त्रष्णातुर शायद ही कोई हो पर धन्य हैं इस शुद्धात्मसेवीकी महिमा । यह अपने महान् लोभको रखते हुए भी निर्लोभी है - परम संतुष्ट है- षट्ररस से रहित आत्मीक रसका आस्वादी है, आत्मानुभवकी कल्लोलोंमें कलोल करनेवाला है । यह धीर वीर परमात्माकी अकंप भक्तिमें लीन रहता हुआ और मोह शत्रुके दांत खट्टे करता हुआ स्वसमरानन्दका अपूर्व लाभ ले रहा हैं ।
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संयम - अश्वपर आरूढ़ परमोत्साही आत्मा ९ र्वे गुणस्थान में ठहरा हुआ जिन अपूर्व परिणाम रूपी सेनाओं का लाभ कर रहा है उनका कथन नहीं हो सक्ता । इन सेना-समूहों में एक बड़ी अद्भुतता यह है कि सेनाओंका प्रवाह विलक्षण होनेपर भी उन्हीं सेनाओंके बिलकुल समान हैं, जो ऐसी श्रेणीपर आरूढ़ हरएक वीरात्माको प्राप्त हुआ करती हैं। मोह शत्रुके कषायरूपी योद्धा इन सेनाओं को मुंह देखते ही थरथर कांपते हैं और अंतर्मुहूर्तकी वीतरागकी वाणवर्षासे उनके पैर टिकते नहीं और सबके सब गिर जाते हैं । चेतनवीर अपनी बाणवृष्टिको कम नहीं करता और
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प्रतिसमय अधिकाधिक वेगके साथ वीतरागताकी शांतमय अग्निये वर्साता है, जिनके प्रभावसे कर्षायोंकी सेनाएं अधमरी होती हुई
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स्वसमरानन्द। प्राणहीन हो जाती हैं । केवल एक लोभ कषायके प्राण नहीं निकलते | वह अपनी जरी पंजरी लिये हुए स्वांस लिया करता है । शेष कषायोंके मरनेपर केवलसुक्ष्म लोमके जीवित रहते हुए यह वीर आत्मा सूक्ष्मसापराय नामकी दसवीं श्रेणीमें उपस्थित होता है। यहां पुरुषवेद संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोमको घटाकर केवल १७ नवीन कर्म-प्रकृतियोंकी सेना ही मोहकी फौजमें माती है; जबकि रणक्षेत्रमेंसे स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, संन्वलन कोध, मान, माया, ऐसी १ सेनाओंकी सत्ता ही निकल जाती है। केवल ६० कर्म प्रकृतियोंकी सेनाएं ही ६६ में से रह जाती हैं। जबकि मोहके पास उसके भंडारमें १०२ सेनाका ही सत्व रह जाता है ९ मी श्रेणीमें १३८ का था, उसमें से नित्नलिखित छत्तीस प्राण रहित हो जाती हैं । तिर्यग्गति १, तिर्यगत्यानुपूर्वी २, विकलत्रय ३, निद्रानिद्रा १, प्रचलाप्रचला १, स्त्यानगृद्धि १, उद्योत ?, आताप १, एकेन्द्रिय १, साधारण १, सूक्ष्म १, स्थावर १, प्रत्याख्यानावरणीकषाय ४, मप्रत्याख्यानावरणीकषाय ४, नोकषाय ९, संज्वलन कोध १, मान १, माया १, नरकगत्यानुपूर्वी १ ॥
इस तरह यह वीरात्मा मोहपर विनय पाता हुआ अपने महापराक्रमशाली तेजको धारे हुए और प्रथम शुक्लध्यानकी खड़गको तेज किये हुए अभेद रत्नत्रयमयी स्वसंवेदन ज्ञानद्वारा निन आत्माके शुद्ध परम पारणामिक स्वरूपमें लीन होता हुआ परसे उन्मुख होते हुए भी परका किञ्चित विचार न करके स्व स्वरूप अमृतमई जलसे भरे हुए समुद्र में गोते लगाता हुआ सिख सुखके समान परम अतीन्द्रिय स्वसमरानंदको अनुभव करता हुआ प्रमुदित हो रहा है।
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वीर आत्माने परिश्रम करते २ शत्रुके विजय में कोई कसर नहीं रक्खी है, दसवें गुणस्थान में बैठा हुआ यह वीर प्रथक्त्ववितर्क विचार नामा शुक्लध्यानके द्वारा छोड़े हुए विशुद्ध परिणामरूपी बाणोंसे कर्मशत्रुओं को महान खेदित कर रहा है बातकी बात में सूक्ष्म-लोभ रूपी योद्धा, जो अधमरी दशामें पड़ा हुआ श्वास गिन रहा था, अपने प्राणोंको त्यागता है और तब मोह राजा मय अपने कुटुम्बके नाश हो जाता है । उस समय उस ज्ञानी अत्माको क्षीण मोह गुणस्थानी कहते हैं। मोहके विजयसे जो इस वीरको हो रहा है वह वचनातीत है । अब यह स्वानुभूति रमणी रमन में ऐसा एकाग्र हो गया है कि इसका उपयोग अन्यत्र पलटता ही नहीं । यद्यपि मोह राजाका मरण होगया है तथापि उसकी सेना ७ कर्मरूपी योद्धा अमीत सजीवित हैं । यद्यपि वे इसके स्वानुभव विलास में विधायक नहीं हैं; तथापि इनमें से वरणी अनंतज्ञान, दर्शनावरणी अनंत दर्शन, अंतराय अनंतवीके प्रकाशित होने में बाधक हो रहे हैं और इस आत्माको पूर्ण सत्य भोगने में विघ्नकर्ता हैं । इस वीरने इन्हींके संहारके लिये एकत्त्ववितर्कविचार नामा द्वितीय शुक्ल ध्यानकी खड़ग सम्हाली है और अंतर्मुहूर्त पर्यंत तक उसके शुद्ध परिणाम रूपी चोटों की मार उनको देनेका निश्चय कर लिया है। मोक्ष नारीको अब पूण निश्रय हो गया है कि यह वीर शीघ्र ही शिवपुरका प्रभु हो जायेगा । इसीके आनंदमें मोह शत्रुके क्षय होने पर विकी गरज से नहीं, किन्तु प्रमोद प्रदर्शनार्थ सातावेदनीय कर्म
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स्वसमरानन्द । (७६) ....... उमंग २ कर आता है और विना कोई विकार पैदा किये हुए एक समय मात्र विश्राम कर अपना आदर चेतन राजा द्वारा न। पाता हुआ चल देता है । मोह राजाका निमक खानेवाले कर्मोकी सेनाएं मोहके मरने पर भी युद्धक्षेत्रमें डटी हैं। १९ वें में ६० " दल थे उनमेंसे सुक्ष्मलोभ, बज्रनाराच और नाराचके नष्ट हो .... जानेसे केवल ६७ ही द अति ग्लानित अवस्थामें रहगए हैं। मोह रानाके भंडारमें अब भी १०१ सेनादलः पड़ा है। १०वें में १०२ का था उनमेंसे संज्वलन लोभके चले जाने पर १०१, .. प्रकृतियोंके दलोंका ही सत्त्व है । इस समय इसकी एकाग्रता " . इसके चित्तको जो साहस, निर्मलता और एकाग्रता प्रदान कर .. रही है उसका अनुभव उसी ही वीरको है. जो कोई अपने शत्रुका .. संहार कर डाले और फिर यह भरोसा हो कि वह सदाके लिये.. विजयी हो गया तो उसके हर्षका क्या.ठिकाना ! नित: मोहके .. रहते हुए कर्मों की सेनाएं आ. आकर चेतन रानाकी शक्तियोंको दबाती थीं और इसको अपने स्वरूपसे गिराकर पर-पुलजनित पर्यायों व अवस्थाओंमें वावला: कर देती थीं, वह · मोहराना नवं . चला गया तब आत्माके: प्रभुत्वका क्या ठिकानां ? यह वीरधीरः ..
आत्मा अपनी शक्तिको सम्हाले हुए. पूर्ण एकचित्ततासे अपने गढ़: :.. ‘पर खड़ा हुआ बड़ी ही धीरता और स्वप्रभावसे अपने ही अंतनंगमें स्वसमरानंदका उपभोग करता हुआ दीप्तमान हो रहा है।..
मोहविनयी द्वादश गुणस्थानावरोही वीरात्मा निर्विकल्पः . : समाधिकी एकतारूपी, द्वितीय शुक्लध्यानकी अति विशुद्ध परिणा-:..
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(७७) स्वसमरानन्द । मरूपी चोटोंसे उन कर्मरूपी सेनापतियोंको विह्वल कर रहा है जो मोह राजाके नष्ट होनेपर भी अपने आप मरना तो कबूल करते हैं, परन्तु पीठ दिखाना उचित नहीं समझते । अंतर्मुहूर्तके लगातार प्रयत्न करनेसे ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी और अंतराय कर्मोकी सेनाएं अपनी वर्तमान पर्यायको छोड़कर जड़-पत्थरके. खंड समान काम हो जाती हैं । इनके नष्ट होते ही इस वीरास्माको गर्हत परमात्माके शांतमय पदसे मलंकृत किया जाता है। इस अभूतपूर्व दशाके पाते ही अंतरंग और बहिरंगकी अटूट लक्ष्मी प्रभुकी सेवाके लिये भाजाती है । अब तो इस वीरकी अपूर्व दशा है। इसके भानन्दका कुछ ठिकाना नहीं । अब यह कृतकृत्य हो गया है, इसने इच्छाओंका रोग समूल नष्ट कर दिया है, पराधीन, इन्द्रियननित ज्ञान भी नहीं है, मतीन्द्रिय व स्वाभाविक ज्ञानरूपी दर्पणमें विना ही चाहे अपने स्वभावसे त्रिकालवर्ती सर्व द्रव्योंकी सर्व पर्याय झलक रही हैं तो भी उपयोगकी थिरता निन आत्मानुभवमें ही शोभायमान है । यद्यपि परोपकार करनेकी चिंता नहीं है तो भी पूर्वमें भावित जगत उपकारक भावनाकेप्रतापसे स्वतः स्वभाव प्रभुकी वचनवर्गणा भबुद्धि पूर्वक किसी कंठस्थ पाठके उच्चारणके समान व निद्रित अवस्थामें वचन स्फूर्ति वत व विना चाहे अंगोंका फडकन व पगोंका अभ्यस्त मार्गमें गमनके समान खिरती है जिसके द्वारा अन्य जीवात्माओंको यह घोषणा प्राप्त होती है कि मोह शत्रुके पंजेमें फसे हुए तुम दुःखी पराधीन, बलहीन और निकृष्ट हो रहे हो, अतएव इस मोहके. विजय करने का उसी उपायसे उद्योग करो जैस कि हमने किया है।
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इस धर्मोपदेश के प्रतापसे अनेक भव्य जीव निकट संसारी सम्हलते हैं और मोहके जीतने के लिये बैरी कमर कस लेते हैं ।
यद्यपि प्रभु परमात्मा हैं तथापि मोहद्वारा एकत्रित सेनाओंका सर्वथा संगठन मोहके क्षय होनेपर भी अभी दूर नहीं हुआ है । आत्मक्षेत्रमें अघमरी दशामें भी कर्मसेनाएं अड्डा किये हुए हैं । युद्धमें साम्हना करनेवाली उदय होती हुई बाहरवें गुणस्थान में ५७ कर्मसेनाएं थीं । जिनमेंसे ५ ज्ञानावरण, ५ अंतराय, ४ दर्शनावरण तथा निद्रा और प्रचला इन १६ प्रकृतिरूपी सेनाओंके घट जानेपर ४१ प्रकृतियोंकी सेना अब भी साम्हने मौजूद है तथा तीर्थंकरकी अपेक्षासे ४२ की है । युद्धक्षेत्रकी सत्ता १२ वें में १०८ सेनाएं थीं। यहां उन्हीं ऊपरकी १६ प्रकृतियोंके घटाने पर अब भी ८५ प्रकृतियों की सेना पड़ी हुई है । यहां भी - आत्मा के प्रदेशोंक सकंप होनेके कारण सातावेदनीय कर्मकी नवीन सेना भी जाती है, परन्तु आकर चली जाती है, प्रभुको मोहित नहीं कर सक्ती । वास्तवमें जब मोह राजाको ही नष्ट कर डाला -तब फिर किस कर्मकी शक्ति है जो आत्माको अचेत कर सके । धन्य है यह वीर जिसने अपने सच्चे अटूट पुरुषार्थके वलसे जीवन्मुक्त परमात्माका पद प्राप्त करके स्वसमरानन्दके अनुपम -लाभ लेनेका मार्ग अनन्त कालके लिये खोल दिया है । ( ३८ )
परम प्रतापी परमधीर वीर आत्मानें अपने साध्यकी सिद्धिमें - अपने आत्मोत्साहकी दृढ़ता से पूर्णता प्राप्त कर ली है - यह बात बड़े महत्वकी है । जिस गुणस्थानपर आजानेसे यह आत्मा मुक्तिः
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सुन्दरीका नाथ हो जाता है उस अयोग नामके १४ वे गुणस्थानपर इसने प्रवेश कर लिया है। अब यहां किसी भी नवीन सेनाका युद्धक्षेत्र में आगमन नहीं होता । तेरहवें गुणस्थान में ४२ कर्म प्रकृतियों की सेनाएं युद्धक्षेत्र में अधमरी दशा में साम्हना किये हुए थीं। यहां उनमें से १० बिलकुल साम्हनेसे हट गईं, अर्थात् वेदन १, वज्रवृषभनाराच संहनन १, निर्माण ९, स्थिर १, अस्थिर १ शुभ १ अशुभ १, सुस्वर १, दुःश्वर ९, प्रशस्त विहायोगति १, ममशस्त विहायोगति ९, औदारिक शरीर १, औदारिक अंगोपांग १, तैजस शरीर १, कार्माण शरीर १, समचतुरस्रसंस्थान ६, न्यग्रोध १; स्वाति १, कुव्नक १, वामन १, हुंडक १, स्पर्श १, रस १, गंध १, वर्ण १, अगुरुलघुत्व १, उपघात १, परघात १, उद्धार १, प्रत्येक १, इस तरह १० फे मानेपर केवल ११ प्रकृतियों ही की सेनाएं रह गई हैं, जैसे वेदनीय १, मनुष्यगति १; मनुष्यायु २, पंचेन्द्रिय जाति ९, सुभग १, १, बादर १, पर्याप्त १ आदेय १, यशः कीर्ति र, तीर्थकर प्रकृति १, उच्च गोत्र १; यद्यपि युद्धक्षेत्र में तेरहवें गुणस्थान की तरह अंतिम दो समय तक ८१ का सत्व रहता है पर उसी समय ७२ का सत्व विध्वंश हो जाता है और अंतिम समयमें शेष १३ प्रकृतियोंकी सत्ता भी चली जाती है। इस तरह इस गुणस्थान में आत्मवीरको बहुत परिश्रम नहीं करना पड़ता । मितने समय में हम अ इ उ ऋ ऌ- ऐसे पांच अक्षरोंको बोलते मैं उतनी ही देर तक यह वीर परम निकम्प परम ध्यानरूप अत्यन्त शुद्ध परिणतिको लिये हुए अपने आत्मानन्दमें लीन
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रहता है । इसीके प्रतापसे सारी कर्मों की सेनाओं की संत्ता दूर हो जाती है | आत्मबीरके लिये मैदान साफ होजाता है । कहीं कोई भी रिपु योद्धा दिखलाई नहीं पड़ता । सब तरह शत्रुका विध्वंश कर इस वीरने अन्त कालके लिये अपना कोई भी विरोधी नहीं रक्खा जो इसको अपने साध्यसे रंच मात्र भी गिरा सके । मथ यह पूर्ण परमात्मा होगया है | शरीरादि किसी भी पुद्गलकी वर्गणाका सम्बन्ध नहीं रहा है। निष्कलंक पूर्णमासीके चंद्रमा के समान पूर्ण प्रकाशमान होगया है । स्वभावसे ही ऊर्ध्वं गमन करके यह तीन लोकके अग्रभागमें तनुं बातवलयमें जाकर ठहरा गया है। अलोकाकाशमें केवल प्रकाश होने से धर्मास्तिकायकी आगे सत्ताके बिना यह आगे नहीं जाता । यह सिद्धात्मा होकर ऐसा 'इच्छा' रहित, कृतकृत्य और स्वात्मानन्दी हो गया हैं कि इस परमात्माको अब कोई सांसारिक संकल्प विकल्प नहीं सताते । इसका ज्ञान स्वरूपी आत्मा अपने अतिम देहके समान उससे कदमें वालसे भी कुछ कम आकारको रखे हुए सदा स्वरूपके अनुपम आनन्द रसका स्वादी रहा करता है, निज शिवतियाके विलाससे उत्पन्न अमृतधाराका नित्य निरन्तराय पान किया करता है । अब इसकी ईश्वरता पूर्ण हो गई है, जिस अटूट लक्ष्मीको मोहकी फौनने दबाया था उसको इसने हासिल कर लिया है। इसकी महिमाका अत्र पार नहीं है | मोह शत्रुसे लड़ते हुए जो समरका आनन्द था वह यहां समरके विजय के अनन्दमें परिणमन हो गया है। इसका मानन्द भव स्वाधीन है । आप ही नाथ है, आप ही शिव सुंदरी है, सिर्फ कथनमें भेद है, परन्तु वास्तव में अभेद है । परम शुद्ध
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स्वसमरानन्द ! निश्चय स्वरूपका पर्चा होकर यह अव स्वभाव विकाशी हो गया है, औपाधिक गुणोंसे रहित होनेसे निर्गुण है, पर स्वाभाविक गुणोंका स्वामी होनेसे सगुण है । धन्य है यह वीर, धन्य है यह सम्यक्ती आत्मा, धन्य है यह रत्नत्रयका स्वामी । अब यह भक्तजनोके द्वारा ध्येय है । स्वसमरानंदके फलको पाकर निश्रग शुद्धोपयोगको रखता हुआ यह वीर महावीर परमात्मा होकर जिस अद्भुत स्वजातीय आनन्दका अनुभव कर रहा है उस भानन्दकी झलकको वे ज्ञानी भी प्राप्त कर सक्ते हैं जो इस महावीर परमात्मा के गुणका अनुभव कर उसके शुद्धोपयोग पथपर अपने उपयोगको आचरण कराते है । शुभोपयोगमें रुके हुए मनुष्य मुमुक्षु होकर fte Farrotest फिकर करते हैं वह स्वात्मलाभ सर्व मुमुक्षुओको प्राप्त हो ऐसी इस स्व स्वरूप मननके अभिलासी लेखककी भावना है । जिस वाइस वीर मिथ्यादृष्टीने अति नीची श्रेणी से चढ़ कर सर्वोच्च श्रेणीको प्राप्त करके अपने परमात्म पदका लाभ कर लिया है और इस चतुर्गतिमय संसारके भ्रमणसे अपनेको रक्षित कर लिया है । इसी तरह जगत निवासी हरएक स्वभाव विकासका इच्छुक भव्यात्मा उद्यम करके उस परम सुखमयी स्वपदको उपलब्ध कर सक्ता है और भवसागर से निकलकर अनन्त काल तक के लिये सुखसागरमें मग्र होकर परम सुखको प्राप्तकर सक्ता है । इति-शुभं भवतु - कल्याणं भवतु ।
मिती श्रावण सुदी १ रवि० विक्रम सं० १९७३, वीर सं० २४४२, तारीख ३० जुलाई १९१६ ई.
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ASASASASACH
न० शीतलप्रसादजी रचित ग्रन्थ ।
समयसार टीकी (कुंदकुंदाचार्यकृत पू. २५०) टीका
(पूज्यपादस्वामीकृत, ट १०५) ११) गृहस्थधर्म (दूसरी बार छप चुका पृ. ३५०) TU), सुखसागर भजनावली (ए भजनीका संग्रह) (2) १ स्वसमरानंद (चेतन-कर्म युद्ध)..... ६ चढाला ( दोकतराम कृतेः सान्वयार्थ ७ नियम पोथी ( हरएक गृहस्थको उपयोगी)
जिनेन्द्र जस दर्पण म० भाग (जैनधर्मका स्वरूप) आत्म धर्म (जैन भजैन सबको, उपयोगी, दूसरीवार) (I) १० नियमसार टीका (कुन्दकुन्दाचार्यकृत) ११ प्रवचनसार टीका (तैयार हो रहा है ) १२ सुलोचनाचरित्र
११ अनुभवानंद (आत्मा अनुभवका स्वरूप) ४ दीपमालिका विधान (महावीर पूजन सहित) १५ सामायिक पाठ अर्थ
"(संस्कृत, हिन्दी छंद, अर्थ, विधि सहित) ) १६ इष्टोपदेश टीका (पूज्यपाद कृत. टे. २८०)
मिलने का पता
मैनेजर, दिगम्बर जैन पुस्तकालय खरत।
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