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________________ स्वसमरानन्द | (४६) जाता है । यकायक उघरसे परम दयालु विद्याधर गुरु आते हैं और दूसरे इस आत्मकी ऐसी भवम चेष्टा देख सोचते हैं कि अरे क्या हो गया ? यह तो वही है जिसने अपने बलसे मोह - राजा सर्वसे प्रबल कषायरूपी सर्व वीरोंको दवा दिया था और यह ग्यारहवें स्थान पर पहुंचा गया था, केवल तीन ही स्थान तम करना बाकी रहे थे । यदि उन्हें और तय कर लेता तो अवश्य -तीन लोकका नाथ होकर स्वानुभूतिका आनन्द सदा के लिये भोगता। पर कोई आश्चर्य नहीं। जबतक शत्रुका नाश न किया जाय तबतक उसके जोर पकड़ लेनेमें क्या रोक हो सकती है । वास्तचमें अब तो इसकी फिर पहले कीसी बुरी दशा हो रही है; परन्तु यह साहसी और उद्योगी है; अतएव परोपकारता करना चाहिये, भेजता है, देशना आती है और अपना प्रभाव उस पर जमानेके लिए उसी वक्त अपनी पुत्री देशनालव्धिको समझानेके लिये उसीके सामने बैठ अपने इष्टदेव परमशुद्ध परमात्माका मननकर भवातापकी गर्मी मिटाती है और निजस्वरूपके प्रेममें रत हो हृदयमें शांतिधारा बहा उसीके रसको स्वयं पान करती है तथा कुछ रसके छीटे उस दुखी आत्माके ऊपर डालती है। यह उस छींटेको पाकर यकायक चौंकता है, फिर चाहकी दाहसे जलने लग जाता है।. सच है मिथ्यात् बैरी इस जीवका परमशत्रु है। नो साहकर इसका सर्वथा विध्वंश कर डालते हैं, वे ही स्वसमरानन्दको पाकर जगनायक हो जाते हैं । (२४) 4 परमकल्याणरूपिणी जगदुद्धारकारिणी सुपथ - प्रकाशिनी विद्याधरकी सुपुत्री : "देशनालब्धि" के बारबार परमामृत
SR No.010057
Book TitleSwasamarananda athwa Chetan Karm Yuddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages93
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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